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आप का राजनीति पर असर तो पड़ेगा ही

देश में 1974 के बाद बहुत से छोटे-बड़े आंदोलन हुए और आगे भी होते रहने चाहिए. क्योंकि आंदोलनों से ही यह साबित होता है कि लोकतंत्र की आत्मा जिंदा है. जहां तक किसी आंदोलन के फेल या पास होने की, सफलता या असफलता की बात है, तो इसकी अपेक्षा आंदोलन का होना मायने रखता है. […]

देश में 1974 के बाद बहुत से छोटे-बड़े आंदोलन हुए और आगे भी होते रहने चाहिए. क्योंकि आंदोलनों से ही यह साबित होता है कि लोकतंत्र की आत्मा जिंदा है. जहां तक किसी आंदोलन के फेल या पास होने की, सफलता या असफलता की बात है, तो इसकी अपेक्षा आंदोलन का होना मायने रखता है. इस लिहाज से अरविंद केजरीवाल के आंदोलन और फिर ‘आम आदमी पार्टी’ के गठन को देखें, तो यह आंदोलन एक हद तक सफल जरूर रहा.

अब अगर वह (आप) दिल्ली विधानसभा में पूरी तरह से कामयाब नहीं भी होता है, तो भी देश की राजनीति पर उसका असर पड़ेगा. क्योंकि 1980 के बाद हमारे देश की राजनीति में लूट-खसोट वाले नेता आये, जिससे कई स्तरों पर देश में भ्रष्टाचार फैलना शुरू हुआ. लेकिन, जिस तरह से अरविंद केजरीवाल की पार्टी आप की सफलता-असफलता से पहले ही लोग उससे जुड़ने लगे, इससे जाहिर होता है कि लोगों में भ्रष्टाचार के विरोध की हिम्मत पैदा होने लगी है.

अब राष्ट्रीय दलों को भी इस बात का डर सताने लगा है कि उन्हें ईमानदार प्रत्याशियों को ही टिकट देना चाहिए. राहुल गांधी के प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया पर भी अरविंद केजरीवाल की मुहिम का असर दिखता है.

ग्लोबलाइजेशन (वैश्वीकरण) के इस दौर में आंदोलन कहीं गुम हो गये थे, लोगों की तमाम ऊर्जा एनजीओ वगैरह में लगी हुई थी. देश का युवा सिर्फ अपनी नौकरी ढूंढ़ने-बदलने में लगा रहता था, लेकिन अब वह नौकरी के साथ ही भ्रष्टाचार आदि के मुद्दों पर भी सोचने लगा है. अब युवा राजनीति को गंभीरता से लेने लगे हैं. यह सब अन्ना और केजरीवाल के आंदोलन से ही हो सका है. अगर केजरीवाल नहीं भी कामयाब होते हैं, तो भी यह देश के लिए जरूरी है कि लोगों में लोकतंत्र और उसकी ताकत को लेकर समझ विकसित हो.

और यह तभी हो सकता है जब तमाम बड़े और बुनियादी मुद्दों को लेकर शांतिपूर्ण आंदोलन होते रहें. हालांकि अभी भी ‘आप’ में और ‘आप’ के कार्यकर्ताओं में बहुत सी राजनीतिक स्तर की कमियां हैं. कार्यकर्ताओं का बच्चों जैसा व्यवहार है, क्योंकि उनमें ज्यादातर युवा हैं. उन्हें समाज की थोड़ी कम समझ है. देश में हर कहीं अलग तरह का समाज है, जिसे लेकर उन्हें एक समझ विकसित करनी होगी. लेकिन इसके साथ ही यह भी एक तथ्य है कि उनमें सुधार की सबसे ज्यादा और जल्दी गुंजाइश भी है. अगर आप कार्यकर्ता सुधारों के साथ आगे बढ़ते हैं, तो निश्चित रूप से आने वाले दिनों में ‘आप’ कुछ अच्छा कर सकती है.

बातचीत: वसीम अकरम

अरविंद मोहन
वरिष्ठ पत्रकार

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