इस बार का दिल्ली विधानसभा चुनाव कुछ मायनों में पिछले चुनावों से अलग है. इस बार भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर एक नया दल ‘आप’ चुनावी राजनीति की प्रकृति को बदलने का दावा कर रहा है.
आंदोलन से उपजे इस राजनीतिक दल को समाज का एक तबका अपनी आकांक्षाओं से जोड़ कर देखने लगा है. लेकिन इस क्रम में कई महत्वपूर्ण प्रश्न भी खड़े हो रहे हैं. क्या चुनावी सफलता के लिए समाज को आम आदमी या खास आदमी जैसे वर्गो में बांटना उचित है? क्या समावेशी राजनीति का आदर्श ऐसे किसी विभाजन की स्वीकृति देता है. वस्तुत: आम आदमी की ढाल का प्रयोग करके सभी राजनीतिक दल अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं, ऐसे में ऐसे अलोकतांत्रिक विभाजन को स्वीकार नहीं किया जा सकता है.
‘आप’ ने अपने पहले चुनाव में पहले से स्थापित दल से खुद को अलग दिखाने के लिए जो मुद्दे उठाये हैं, और जिस तरह के सामाजिक समर्थन का दावा किया है, वह अपने आप में कुछ गंभीर राजनीतिक सवाल पैदा करता है. आप द्वारा उठाये गये वर्तमान मुद्दे केवल शहरी अवधारणाओं पर आधारित दिखते हैं. इसमें समावेशी राजनीति, समावेशी विकास की झलक नहीं मिलती. केवल किसी पब्लिक मीटिंग में चंद कविताओं और जज्बाती बातों के सहारे देश की राजनीति की दिशा को बदलने का दंभ भरना राजनीतिक अपरिपक्वता ही नजर आ रही है. व्यवस्था परिवर्तन का नारा देकर अपनी राजनीति शुरू करने वाले आप के नेता अगर विचारधारात्मक आधार पर एक नया विकल्प जनता के समक्ष रखते, जो जमीनी सच्चइयों का सामना करने में भी सफल होते, तो शायद जनता अपने आप को इस राजनीति के ज्यादा करीब पाती.
ऐसा प्रतीत होता है कि आंदोलन से उपजे इस राजनीतिक दल का समाज के दूरगामी उद्देश्यों और सरोकारों से कोई नाता नहीं है. आप के नेतृत्व को यह समझना होगा कि एक मुद्दे को लेकर हठ और वास्तविक राजनीति के मायने अलग-अलग होते हैं. भ्रष्टाचार का मुद्दा अवश्य ही एक गंभीर मसला है, लेकिन समाज में और भी कई मुद्दे हैं, जिन पर कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध राजनीतिक दल की आवश्यकता है. बिना वैचारिक धरातल के किसी भी राजनीतिक दल का लंबी दूरी तय कर पाना संदेहास्पद है.
राजनीति केवल किंतु-परंतु अथवा विरोध से नहीं, बल्कि विकल्प से चलती है, जिसकी जड़ जमीनी हकीकत से जुड़ी होती है. विकल्प के उद्भव का इतिहास होता है और उस इतिहास की नींव विरासत और उसकी संस्थाएं होती हैं. इसलिए स्वस्थ और सार्थक राजनीति के लिए इन विरासत की संस्थाओं से उपजे लोकतांत्रिक मूल्यों को संजोये रखना राजनीतिक दलों का भी दायित्व है.
भारत के चुनावी इतिहास में ऐसे अनेक दलों का उदय हुआ है, जिन्होंने एंटी इंकंबेंसी की लहर पर सवार होकर और जनभावनाओं को उभार कर अपनी राजनीतिक यात्र आरंभ तो की, लेकिन निश्चित सामाजिक दृष्टि के अभाव में ज्यादा समय तक टिक नहीं पाये. जेपी मूवमेंट के बाद बनी जनता पार्टी, असम में असम गण परिषद आदि इसके उदाहरण हैं.
विरोध की जिस राजनीति के सहारे ‘आप’ अपना भविष्य गढ़ना चाहती है, वह राजनीतिक गतिरोध की स्थिति को ही जन्म देगी. ऐसे में जरूरी है कि सिर्फ इस विधान सभा चुनाव में सफलता-विफलता के पैमाने पर वह राजनीति को न कसे. उसे राजनीतिक लड़ाई में बने रहने और जनसरोकारी राजनीति करने के लिए एक बृहद कार्यक्रम और दीर्घकालिक नीति के साथ जनता के बीच जाना होगा.
श्याम कुमार
दिल्ली विश्वविद्यालय