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दुश्मन गोलियां बरसाते रहे और वह बढ़ते गये

गंगासागर में बेमिसाल साहस का परिचय तीन दिसंबर 1971 को झारखंड की माटी के लाल लांस नायक अलबर्ट एक्का ने अपनी बहादुरी के बल पर पाकिस्तानी फौज को तहस-नहस कर दिया था. दुश्मन मशीनगन से अलबर्ट एक्का पर गोलियों की बौछार कर रहे थे और अलबर्ट गोलियों की परवाह किये बगैर आगे बढ़ रहे थे. […]

गंगासागर में बेमिसाल साहस का परिचय
तीन दिसंबर 1971 को झारखंड की माटी के लाल लांस नायक अलबर्ट एक्का ने अपनी बहादुरी के बल पर पाकिस्तानी फौज को तहस-नहस कर दिया था. दुश्मन मशीनगन से अलबर्ट एक्का पर गोलियों की बौछार कर रहे थे और अलबर्ट गोलियों की परवाह किये बगैर आगे बढ़ रहे थे.
वे गंभीर रूप से घायल हो चुके थे, इसके बावजूद आगे बढ़ते हुए उन्होंने दुश्मन के मशीनगन पर कब्जा कर लिया, जिससे गोलीबारी बंद हो गयी. बाकी का काम उनके सहयोगियों ने कर दिया, लेकिन इसकी कीमत अलबर्ट एक्का को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. इसी बहादुरी के लिए उन्हें मरणोपरांत देश का सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र दिया गया.
युद्ध का वह खौफनाक दृश्य आज भी लोगों का दिल दहला देता है. चारों ओर गोलियां चल रही थी. कहीं से आग के गोले निकल रहे थे, तो कहीं से हैंड ग्रेनेड और मोर्टार छोड़े जा रहे थे. चारो ओर सिर्फ धुंआ ही धुंआ छाया था. लेफ्टिनेंट विजय पन्ना वहां पर तैनात थे. अलबर्ट एक्का बी कंपनी में थे, जिसका मोर्चा गंगासागर के पास के रेलवे स्टेशन पर था. यहीं पर पाकिस्तान के 165 सैनिक जमे हुए थे. वे भारतीय सीमा में घुसपैठ करने की तैयारी में थे. भारतीय सैनिकों को पाक सेना पर हमला करने का आदेश मिला.
हमले से पहले भारतीय सैनिक वहां गड्ढा खोद कर बंकर बना चुके थे. सुरक्षा के दृष्टिकोण से सैनिक बंकर में शरण ले चुके थे. ऐसा इसलिए किया गया था, ताकि हवाई मार्ग से नजर रखने वाले दुश्मन की नजर से भारतीय सैनिक बच सकें. तीन दिसंबर की रात लगभग ढाई बजे अलबर्ट एक्का ने अपने साथी जवानों के साथ रेलवे पटरी को पार किया. पाकिस्तानी सेना को इसकी भनक लग गयी. पटरी पार करते ही पाकिस्तानी सेना के संतरी ने थम कहा. भारतीय फौज हर हाल में आगे बढ़ना चाहती थी. भारतीय सैनिकों ने उस पाकिस्तानी संतरी को गोली मारी और उस इलाके में घुस गये. तब तक पाकिस्तानी सैनिक भी सतर्क हो चुके थे. पाकिस्तानी सेना ने भारतीय फौज पर गोलीबारी आरंभ कर दी.
अलबर्ट एक्का आगे चल रहे थे. उन्होंने समझ लिया कि बगैर बंकर नष्ट किये पाकिस्तानी सैनिकों पर काबू नहीं पाया जा सकता था. उनके पास हैंड ग्रेनेड था, जिसे उन्होंने उस बंकर को लक्ष्य कर फेंक दिया और इससे पाकिस्तानी सेना का पूरा बंकर उड़ गया. वहां मौजूद अधिकांश पाकिस्तानी सैनिक मारे गये. कुछ को भारतीय फौज ने अपने काबू में कर लिया. फिर फौज आगे बढ़ी. भारतीय फौज का मनोबल ऊंचा था. उसने रेलवे के आउटर सिग्नल वाले इलाके को कब्जे में ले लिया. पाकिस्तान की फौज टॉप टावर पर मौजूद थी. वहां से उसने भारतीय जवानों पर अचानक मशीनगन से हमला कर दिया.
कई भारतीय फौजी इस हमले में मारे गये. पाकिस्तानी सेना ऊपर से हमला कर रही थी, इसलिए भारतीय फौज को नुकसान ज्यादा हो रहा था. अनेक भारतीय सैनिक इस आक्र मण में शहीद हो गये. अपने साथियों को शहीद होते देख अलबर्ट एक्का ने मन बना लिया कि किसी तरह वे टॉप टावर पर चढ़ कर उस मशीनगन को अपने कब्जे में लेंगे, जिससे दुश्मन फायरिंग कर रहे थे. काम आसान नहीं था, जोखिम भरा था. लेकिन इसके सिवा अलबर्ट एक्का के पास कोई रास्ता भी नहीं था. टॉप टावर पर चढ़ने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती और इस दौरान दुश्मन गोलियों की बौछार करते.
इस बात को अलबर्ट भी जानते थे. उन्होंने रणनीति बनायी. टावर की ओर दौड़े. पाकिस्तानी फौज ने उन पर गोलियां बरसानी शुरू कर दी. गोलियां उन्हें लगती रहीं और वे टावर की ओर भागते रहे. फिर तेजी से टावर पर चढ़ गये. वहां पहुंच कर उन्होंने मशीनगन को कब्जे में लेकर उसे दुश्मन की ओर कर दिया. इस प्रयास में उनका पूरा शरीर गोलियों से छलनी हो चुका था. मशीनगन पर कब्जा कर लेने से वहां पाकिस्तानी सेना पस्त हो गयी. कई पाकिस्तानी सैनिकों को उन्होंने मार डाला. वे बुरी तरह घायल थे, लेकिन इसके पूर्व वे अपना काम कर चुके थे. टावर भारतीय फौज के कब्जे में आ चुका था. घायल अलबर्ट एक्का टॉप टावर से गिर पड़े. तब तक अन्य भारतीय सैनिक भी वहां पहुंच चुके थे.
मेजर डी एन दास ने उन्हें मोरफिन की सुई दी, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी. अलबर्ट एक्का शहीद हो चुके थे, लेकिन शहीद होने के पहले उन्होंने अपना काम कर दिया था. अगर उन्होंने मशीनगन का मुंह बंद नहीं किया होता, तो न जाने कितने भारतीय जवान शहीद हो गये होतेे.
अलबर्ट एक्का का जन्म गुमला जिले के जारी गांव में 1942 में हुआ था. यह गांव आदिवासी बहुल है. इस इलाके से भारतीय सेना में अनेक युवक जाते रहे हैं. अलबर्ट एक्का के पिता जूलियस भी सेना में थे. उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लिया था. सेना से जब वह रिटायर हुए थे, तब उनकी इच्छा थी कि उनका पुत्र अलबर्ट भी सेना में भर्ती हो. अलबर्ट ने प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही सीसी पतराटोली से ली. मिडिल स्कूल की पढ़ाई भीखमपुर से की.
गरीबी के कारण अलबर्ट एक्का बहुत ज्यादा पढ़ाई नहीं कर सके और गांव में ही अपने पिता के साथ खेतीबारी का काम करने लगे. इसी दौरान उन्होंने दो वर्ष तक नौकरी की तलाश भी की, मगर इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली.
अलबर्ट का झुकाव भी सेना की ओर था. भले ही वह खेतों में काम करते थे, लेकिन शारीरिक रूप से चुस्त रहने के लिए वह दौड़ते भी थे. इसलिए जब भारतीय सेना में बहाली की उन्हें जानकारी मिली, तो उन्होंने अपना भाग्य आजमाया. सेना में उनका चयन हो गया. उस समय उनकी उम्र सिर्फ 20 साल की थी. 1968 में उनका विवाह बलमदीन एक्का से हो गया.
अगले वर्ष 1969 में उन्हें एक पुत्र हुआ, जिसका नाम उन्होंने विसेंट एक्का रखा. 1971 के भारत-पाक युद्ध में जब अलबर्ट एक्का शहीद हुए, उस समय उनका बेटा सिर्फ दो साल का था. विसेंट भी अपने पिता की तरह सेना में जाना चाहते थे. उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका. अब वे गांव में ही रहते हैं. वर्ष 2000 में गणतंत्र दिवस के अवसर पर उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया गया. जारी के इस सपूत के नाम पर रांची शहर के मध्य में अलबर्ट एक्का चौक है, जहां उनकी प्रतिमा भी स्थापित है. गुमला जिले में अलबर्ट एक्का के गांव व ब्लॉक का नामकरण भी उनके नाम पर हुआ है.
परमवीर अलबर्ट एक्का की स्मृति में गुमला जिला प्रशासन एवं आम जनता ने गुमला शहर के बीच में उनके नाम से एक स्टेडियम बनाया, जहां खेलकूद एवं अन्य कार्यक्रमों का आयोजन होता चला आ रहा है. चैनपुर प्रखंड मुख्यालय, डुमरी प्रखंड में शहीद अलबर्ट एक्का की कई भव्य प्रतिमाएं स्थापित है. चैनपुर कॉलेज का नाम इसी महानायक के नाम पर परमवीर अलबर्ट एक्का कॉलेज चैनपुर रखा गया है.
अकेले टॉप टावर पर चढ़ गये थे अलबर्ट
शहीद अलबर्ट एक्का के दोस्त डीएन दास जो युद्ध में उनके साथ थे, ने आपबीती सुनायी. उनके अनुसार 20 से अधिक गोली लगी थी अलबर्ट एक्का को.
तीन दिसंबर 1971 के युद्ध कावह दृश्य आज भी रिटायर मेजर डीएन दास को याद है. श्री दास शहीद अलबर्ट एक्का के दोस्त हैं और वे युद्ध में अलबर्ट के साथ थे. श्री दास ने बताया कि 1971 के युद्ध में चारों ओर गोलियां चल रही थी. कहीं से आग के गोले निकल रहे थे. तो कहीं से हैंड ग्रेनेड व मोर्टार छोड़े जा रहे थे. कहीं सिर्फ धुआं ही धुआं नजर आ रहा था. हर पग पर खतरा था. उस समय लेफ्टिनेंट कर्नल विजय नारायण पन्ना थे. उन्होंने कहा कि पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया है. यह सूचना मिलते ही हम पाकिस्तान से दो-दो हाथ करने के लिए तैयार हो गये. अलबर्ट एक्का व मुझे बी कंपनी में रखा गया. हमलोग दोनों साथ में थे. हमारा मोरचा गंगा सागर के पास था.
वहीं पास रेलवे स्टेशन है. जहां पाकिस्तान के घुसपैठी अड्डा जमाये हुए थे. वहां 165 पाकिस्तानी थे. हमें गंगासागर के पास दो दिसंबर को पाक सेना पर आक्रमण करने का निर्देश दिया गया. आक्रमण से पहले हमलोगों ने वहां पास एक गड्ढा खोदा और सुरक्षा के दृष्टिकोण से वहां शरण ली. जिससे हवाई मार्ग से नजर रखनेवाले दुश्मनों की हम पर नजर न पड़े. तीन दिसंबर की रात 2.30 बजे हम रेलवे पार कर गये. उस समय मैं 20 वर्ष का व अलबर्ट एक्का 26 वर्ष के थे. जैसे ही हमनें रेलवे स्टेशन पार किये, पाकिस्तान सेना के संतरी ने हमें थम कहा.
उस संतरी को गोली मार हम दुश्मन के इलाके में घुस गये. हमारे ऊपर एलएमजी बंकर से आक्रमण हुआ. तभी अलबर्ट एक्का ने बहादुरी का परिचय देते हुए अपनी जान की परवाह किये बिना अपना ग्रेनेड एलएमजी में डाल दिया. इससे पाक सेना का पूरा बंकर उड़ गया. हमने 65 पाक सैनिकों को मार गिराया और 15 को कैद कर लिया. रेलवे के आउटर सिग्नल इलाका को कब्जे में लेने के बाद वापस आने के दौरान टॉप टावर मकान के ऊपर में खड़ी पाक सेना ने अचानक मशीनगन से हम पर हमला कर दिया. इसमें 15 भारतीय सैनिक मारे गये.
तब अलबर्ट दौड़ते हुए टॉप टावर पर चढ़ गये. टॉप टावर के मशीनगन को अपने कब्जे में लेकर दुश्मनों को तहस-नहस कर दिया. इस दौरान अलबर्ट एक्का को 20 से अधिक गोलियां लगी. उनका शरीर छलनी हो गया था. वे टॉप टावर से नीचे गिर गये. जहां उन्होंने मेरे सामने अंतिम सांस ली. टॉप टावर से नीचे गिरने के बाद मैंने ही अलबर्ट एक्का को मोरफेन की सूई दी थी, परंतु देर हो चुकी थी. जारी के वीर सपूत अलबर्ट शहीद हो चुके थे.

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