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आपाधापी में गुम न हो जाये बचपन

बच्चों की दुनिया अलग है. यह वयस्कों की दुनिया से अलग है और ज्यादा खुशगवार भी इस बात से शायद हम सब सहमत होंगे. मगर कई दफा हम इस बात को भूल जाते हैं और बच्चों के जीवन में ऐसे प्रयोग करने लगते हैं, जिससे उनका बचपन दुखों से भरा और कलुषित हो जाता है. […]

बच्चों की दुनिया अलग है. यह वयस्कों की दुनिया से अलग है और ज्यादा खुशगवार भी इस बात से शायद हम सब सहमत होंगे. मगर कई दफा हम इस बात को भूल जाते हैं और बच्चों के जीवन में ऐसे प्रयोग करने लगते हैं, जिससे उनका बचपन दुखों से भरा और कलुषित हो जाता है. हर बच्चे का अधिकार है कि उसे खुशनुमा बचपन जीने का बराबरी का अवसर मिले. उसे स्वतंत्र रूप से विकसित होने का मौका मिले. कई दफा लोग सोचते हैं कि शिक्षा का अधिकार ही बचपन का अधिकार है. मगर बचपन का अधिकार शिक्षा के अधिकार से कहीं आगे का मामला है. इस बार बाल दिवस के मौके पर हमने खास तौर पर इस मसले पर बात करने की कोशिश की है. इस आलेख के जरिये हम यह जानने का प्रयास कर रहे हैं कि गांवों में बचपन कितना सुरक्षित और आनंदमय है.

जब हम गांव में बचपन की बात करते हैं तो यह कहीं ज्यादा बेहतर अहसास देता है. गांव में बच्चों के पास आजादी है और उन्मुक्तता है जो शहर के बच्चों को शायद ही नसीब हो पाता है.

गांव के बच्चों के पास दौड़ने-कूदने और देखने-समझने के लिए प्रकृति बांहे पसारे मौजूद है, जबकि शहर में बच्चों के लिए फ्लैट की चाहरदीवारी है और जानने-सीखने-समझने के लिए टीवी का बुद्धू बक्सा है. शहर के बच्चों के पास खेलने के लिए छोटा सा गलियारा भी मुश्किल से मौजूद होता है, मगर गांव में वाहनों की रेल-पेल नहीं होने के कारण बच्चे कहीं भी बेखौफ होकर घूम-फिर सकते हैं. मगर जब हम बचपन के अधिकार की बात करते हैं तो बात यहीं खत्म नहीं होती. शहरों में बच्चों के पास बेहतर स्कूल हैं. हर क्षेत्र में आगे बढ़ने की बेहतरीन संभावना है. अगर बच्चों को खिलाड़ी बनाना चाहते हैं, कलाकार बनाना चाहते हैं या खगोलविद बनाना चाहते हैं, शहरों में ऐसे हर मौके हैं, जबकि गांव के बच्चों को ऐसे कैरियर के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है.

बड़ों की निगाह में बच्चे
बड़ों की दुनिया में बच्चों का कितना ख्याल रखा जाता है यह एक गंभीर सवाल है. खास तौर पर यह देखते हुए कि इस दुनिया में बच्चों को वोट डालने का अधिकार नहीं है. चुनाव में बच्चों के मसलों पर कितनी बातें होती हैं. अक्सरहां तो धर्म और जाति के नाम पर मतदान होता है. जहां दूसरे मुद्दे उठाये जाते हैं, वहां भी भ्रष्टाचार, महंगाई, रोजगार और गरीबी जैसे मुद्दों को ही तरजीत दी जाती है. बच्चों के मुद्दे गौण ही रहते हैं. इधर शिक्षा का अधिकार के जरिये बच्चों के सवालों को कुछ हद तक सामने लाने की कोशिश की गयी है. मगर राज्य और पंचायतों की राजनीति में अक्सर बच्चों के मसले गैरहाजिर ही रह जाते हैं.

पंचायतों की सरकार तो हम गांव के लोगों के पास है, मगर हम ग्राम सभा में बच्चों के सवाल को कितना उठाते हैं. मनरेगा की योजनाएं, इंदिरा आवास और सड़क के आगे अगर कोई मसला आता भी है तो उससे बच्चों का हित गायब ही रहता है. इधर कुपोषण के जरिये बच्चों के सवाल को उठाने की कोशिश जरूर की गयी है. हमें अपने स्कूलों की बेहतर व्यवस्था से साथ-साथ उनके खेल-कूद और सर्वागीण विकास के बारे में भी ग्राम सभा में चर्चा करना चाहिये.

भाषा का सवाल
जहां तक झारखंड के गांव के बच्चों का शैक्षणिक और दूसरी गतिविधियों से जुड़ने का मसला है, भाषा का सवाल उनके लिए सबसे अधिक बाधक बनता है. झारखंड के अधिकतर बच्चों की घर की भाषा और दैनिक बोलचाल की भाषा स्कूली पाठय़क्रम की भाषा से बिल्कुल अलग है. यूनीसेफ की झारखंड की इकाई द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक झारखंड में 96 फीसदी बच्चे अपने घरों में आदिवासी और स्थानीय भाषाओं में बातचीत करते हैं.

इनमें से दो तिहाई बच्चे(65.7 फीसदी) जनजातीय भाषाओं में बातचीत करते हैं. झारखंड की जनजातीय भाषाएं हिंदी से काफी अलग हैं, जिसका इस्तेमाल स्कूली पाठय़क्रम में और पढ़ाई के माध्यम के तौर पर किया जाता है. जाहिर सी बात है इन बच्चों को स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई की बातों को समझने में काफी परेशानी होती है. अधिक बच्चे कक्षा में बतायी गयी बातों को ठीक से समझ नहीं पाते और यह सिलसिला चलता चला जाता है. यहां सिर्फ 3.7 फीसदी बच्चों की मातृभाषा हिंदी है. इसलिए झारखंड में पठन पाठन का माध्यम स्थानीय भाषा पर आधारित होना चाहिये और पाठय़ पुस्तकें भी स्थानीय भाषाओं में विकसित की जानी चाहिये. कुछ साल पहले झारखंड सरकार ने इस संबंध में कोशिशें जरूर की मगर उनका वितरण नहीं हो पाया और यह परियोजना नाकाम रह गयी.मगर अब सरकार को इस दिशा में सार्थक कदम उठाने की जरूरत है.

यूनीसेफ की झारखंड इकाई की ओर से इस सर्वेक्षण को ध्यान में रखते हुए झारखंड की नौ प्रादेशिक भाषाओं में चित्रत्मक शब्द कोश विकसित किये गये हैं. इसे काफी पसंद किया जा रहा है. अगर बच्चों को शिक्षा व्यवस्था से जोड़ने के लिए कुछ करना है तो उन्हें उनकी भाषा में प्रारंभिक शिक्षा उपलब्ध कराने से बेहतर कुछ नहीं होगा.

घर आंगन में विज्ञान
यूनीसेफ के शिक्षा विशेषज्ञ विनय पटनायक कहते हैं कि बात सिर्फ भाषा पर ही समाप्त नहीं होती. हमें इससे और आगे जाने की जरूरत है. हमें विज्ञान को भी स्थानीय जनजीवन से जोड़ना चाहिये. वे बताते हैं कि अगर हमारे घरों में चावल पकाया जाता है तो हमें यह भी जानना चाहिये कि यह कौन-सी वैज्ञानिक प्रक्रिया है. वैज्ञानिक प्रक्रियाएं सिर्फ प्रयोगशालाओं में सीखने की चीज नहीं है, हमारे दैनिक जीवन में कई काम ऐसे किये जाते हैं जो वैज्ञानिक प्रयोगों के उदाहरण हैं. अगर कोई बुनकर धागा तैयार कर रहा है, या साइकिल मिस्त्री पंचर बना रहा है तो वह इसके लिए कई वैज्ञानिक प्रक्रियाओं से होकर गुजरता है. अगर हम विज्ञान को उन प्रक्रियाओं से जोड़कर बच्चों को बताते हैं तो उनके लिए विज्ञान सीखना काफी आसान हो जायेगा.

मध्य प्रदेश की संस्था एकलव्य ने आम जनजीवन में वैज्ञानिक प्रक्रियाओं के जरिये बच्चों को विज्ञान शिक्षण से जोड़ने की दिशा में काफी महत्वपूर्ण काम किया है. झारखंड में भी बच्चों के बीच ऐसे काम किये जाने की जरूरत है, जिससे बच्चों के लिए पढ़ाई-लिखाई हौवा न रहे.

पुस्तकालय एवं प्रयोगशाला
राज्य के अधिकतर स्कूलों में पुस्तकालयों और प्रयोगशालाओं की हालत बहुत लचर है. पढ़ाई का मतलब सिर्फ टेक्स्ट बुक की पढ़ाई नहीं हो सकती. जब तक बच्चे साहित्य, इतिहास, समाजशास्त्र और विज्ञान की पाठय़पुस्तकों से इतर किताबें नहीं पढ़ेंगे तब तक उनका सर्वागीण विकास नहीं हो सकता.

गांवों में अब तक जो शिक्षा की व्यवस्था रही है, उसके हिसाब से स्कूलों को अलग और समाज को अलग रखा जाता है. यह माना जाता है कि स्कूल जाने का मतलब घर-परिवार और समाज के माहौल से दूर चले जाना है. घर-परिवार और समाज जहां मौज-मस्ती और अनौपचारिक गतिविधियों के केंद्र हैं वहीं स्कूलों में पहुंचकर बच्चों का काम सिर्फ किताबों में सर खपाना है. जबकि आधुनिक सोच कहती है कि शिक्षा को इस तरह से समाज से काट कर नहीं देखना चाहिये. बच्च अपने माता-पिता, भाई-बहन और समाज के दूसरे लोगों से जितना सीखता है उतना स्कूल जाकर भी नहीं सीखता.

वह लोगों से व्यवहार करने की कला, सामान्य ज्ञान-विज्ञान, कला और संगीत आदि अपने समाज से ही सीखता है. मगर वह जो चीजें अपने समाज से सीखता है उसे स्कूल की व्यवस्था जीरो करार देती है. वह उन अनुभवों का इस्तेमाल औपचारिक शिक्षा को सरल और सहज बनाने में नहीं करती. इससे स्कूलों में सीखने-सिखाने प्रक्रिया जटिल होती है और बच्चों को पढ़ाई पहाड़ की तरह लगने लगती है.

इसलिए समाज को स्कूलों से जुड़ाव बनाये रखना चाहिये. समाज में कई लोग ऐसे होते हैं जो एक शिक्षक से ज्यादा बेहतर तरीके से बच्चों को ज्ञान दे सकते हैं. एक किसान, एक कलाकार या एक शिल्पकार कभी-कभार कक्षा में जाकर बच्चों को कई बेहतरीन चीजें सिखा सकता है. एक युवा को जो उच्च शिक्षा हासिल कर रहा है, छुट्टियों में गांव जाने पर अपना कुछ समय स्कूलों को देना चाहिये. वह अपने अनुभवों से जहां बच्चों को नयी जानकारी दे सकता है, वहीं बच्चे उससे मिलकर प्रेरित हो सकते हैं.

पहले स्कूल प्रबंधन और समाज में काफी दूरी थी. मगर विद्यालय प्रबंध समिति में समाज के लोगों की हिस्सेदारी बढ़ने के बाद समाज के लोगों के पास यह मौका है कि वह स्कूल की शैक्षणिक गतिविधियों में रोचक बदलाव ला सकते हैं. शिक्षकों की सहमति से ऐसे प्रयोग किये जाने से स्कूल बच्चों के लिए खुशगवार और रोचक बनेंगे.

बाल संसद और बाल पत्रकारिता
बाल संसद और बाल पत्रकारिता जैसी परियोजनाएं स्कूलों में बच्चों के सर्वागीण विकास के लिए महत्वपूर्ण साबित हो रही हैं. हमें इन परियोजनाओं का महत्व समझते हुए इन्हें आगे बढ़ाना चाहिये.

बाल विवाह पर रोक
झारखंड में बाल विवाह के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. इन पर तत्काल रोक लगाने की जरूरत है. बचपन जहां हंसी-खुशी जीवन गुजारने और बेहतर जीवन जीने के लिए अच्छी चीजें सीखने का समय है, ऐसे में उन पर ऐसी प्रथा लादने से उनका विकास प्रभावित होता है.

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