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सुधार की इच्छाशक्ति है जरूरी

।। नॉलेज डेस्क।।पिछले दिनों देश के सर्वोच्च न्यायालय ने नौकरशाही को राजनीतिक आकाओं के हस्तक्षेप से मुक्त करने के लिए कुछ अहम दिशा-निर्देश दिये. कोर्ट द्वारा दिये गये दिशा-निर्देश स्वागतयोग्य हैं, लेकिन सवाल है कि क्या इन निर्देशों से हालात में कोई वास्तविक बदलाव होनेवाला है. पुलिस सुधार के संबंध में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी […]

।। नॉलेज डेस्क।।
पिछले दिनों देश के सर्वोच्च न्यायालय ने नौकरशाही को राजनीतिक आकाओं के हस्तक्षेप से मुक्त करने के लिए कुछ अहम दिशा-निर्देश दिये. कोर्ट द्वारा दिये गये दिशा-निर्देश स्वागतयोग्य हैं, लेकिन सवाल है कि क्या इन निर्देशों से हालात में कोई वास्तविक बदलाव होनेवाला है. पुलिस सुधार के संबंध में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी किये गये ऐसे ही दिशा-निर्देशों के सुस्त अनुपालन को अगर नजीर मानें तो कह सकते हैं कि सुधारों का रास्ता काफी मुश्किलों भरा है. यह उम्मीद करना कि विधायिका इन सुधारों को हंसते-हंसते गले लगा लेगी, अपने आप में बेमानी ही है. पुलिस और नौकरशाही में सुधार को लेकर सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों और इस पर जानकारों की राय बता रहा है नॉलेज..

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान कहा है कि प्रशासनिक अधिकारियों को नेताओं के जुबानी आदेशों पर काम नहीं करना चाहिए. सर्वोच्च न्यायालय ने अधिकारियों के स्थानांतरण संबंधी सुधार और पारदर्शिता बढ़ाने के सुझाव भी दिये हैं. अदालत का कहना है कि अधिकारियों के जब-तब होने वाले ट्रांसफर बंद होने चाहिए. नौकरशाही को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने की दिशा में महत्वपूर्ण दिशानिर्देश जारी करते हुए कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि उन्हें एक निश्चित अवधि के लिए एक जगह तैनात किया जाना चाहिए. केंद्र और राज्य सरकारों को सुझाव देते हुए जस्टिस केएस राधाकृष्णन की अगुवाई वाली बेंच ने कहा है कि किसी भी स्थान पर तैनात अधिकारियों का निश्चित कार्यकाल होना चाहिए. साथ ही, संसद को पोस्टिंग, ट्रांसफर और अनुशासन के तहत अफसरों पर कार्रवाई के लिए एक कानून बनाना चाहिए. अदालत ने केंद्र और राज्य स्तर पर सिविल सर्विस बोर्ड बनाने की भी बात कही है.

देश में अकसर राजनीतिक आकाओं पर राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल कर अफसरों पर दबाव बनाने के आरोप लगते हैं. कई बार तो बात न मानने वाले अधिकारियों का दुर्गम इलाकों में ट्रांसफर कर दिया जाता है. अनेक सरकारों पर केंद्रीय जांच एजेंसी सीबीआइ और पुलिस का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने के आरोप भी लगते रहे हैं. यहां तक कि हाल ही में सीबीआइ को सुप्रीम कोर्ट ने ‘सरकार का तोता’ तक करार दिया था.

पुलिस सुधार के संबंध में भी दिया था निर्देश

सितंबर, 2006 में प्रकाश सिंह बनाम भारत सरकार मामले में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को पुलिस सुधार करने का दिशा-निर्देश दिया था. इसमें पुलिस को स्वतंत्र संस्था बनाये जाने का भी निर्देश था. इस पर अभी तक कुछ खास नहीं हुआ है, क्योंकि सुधार के लिए कानून बनाना विधायिका का विशेषाधिकार है.

अफसरशाही-विधायिका का टकराव

अफसरशाही और विधायिका का टकराव कोई नया नहीं है. 1990 के दशक में चुनाव सुधारों के मामले में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन और केंद्र सरकार का टकराव जगजाहिर है. मौजूदा समय में भी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा की जमीन के मामले में आइएएस अधिकारी अशोक खेमका और हरियाणा सरकार के बीच काफी विवाद की स्थिति रही. इस दौरान हरियाणा सरकार पर खेमका को परेशान करने के आरोप लगे. उत्तर प्रदेश में भी चंद माह पहले आइएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को निलंबित कर दिया गया था. मालूम हो कि दुर्गा शक्ति ने अवैध खनन माफिया के खिलाफ कार्रवाई की थी.

इन सभी मामलों को ध्यान में रखते हुए ही सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया. पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम समेत 83 सेवानिवृत्त अधिकारियों ने इस संबंध में एक जनहित याचिका दायर की थी. याचिका के जरिये अफसरशाही को राजनीतिक दखल से निकालने के लिए निर्देश मांगे गये. अमेरिका में भारत के पूर्व राजदूत आबिद हुसैन, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालास्वामी, पूर्व चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णा मूर्ति, पूर्व आईपीएस अधिकारी वेद प्रकाश मारवाह, सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह और डीआर कार्तिकेयन याचिकाकर्ताओं में शामिल हैं.

सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप

इस मामले में उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप से पुलिस सुधारों का मुद्दा एक फिर चरचा का विषय बन गया है. सात वर्ष पहले सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस सुधारों के बारे में व्यापक दिशा-निर्देश जारी किये थे. लेकिन उसका क्या अंजाम हुआ यह इस मामले में न्यायमित्र (एमिकस क्यूरे) की भूमिका निभा रहे अटार्नी जनरल जीएम वाहनवती द्वारा कोर्ट को दी गयी इस सूचना से जाहिर है कि राज्य सरकारों ने पुलिस सुधारों पर मामूली या तकरीबन नहीं के बराबर अमल किया है. कोर्ट ने अब राज्यों से पूछा है कि आखिर इसमें क्या बाधा है? कोर्ट ने यह भी कहा है कि उसके निर्णय को पूरी तरह से अमल में लाया जाना चाहिए.

दरअसल, वर्ष 2006 में प्रकाश सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उपरोक्त दिशा-निर्देश जारी किये थे. उसके प्रमुख बिंदु इस प्रकार थे- पुलिस महानिदेशक का कार्यकाल कम से कम दो वर्ष तय करना, आपराधिक जांच और अभियोजन के कार्यो को कानून-व्यवस्था लागू करने के दायित्व से अलग करना, प्रत्येक राज्य में एक प्रदेश सुरक्षा परिषद और एक पुलिस शिकायत निवारण प्राधिकरण का गठन.उस समय कई राज्यों ने यह माना था कि दिशा-निर्देश के कई बिंदुओं पर अमल नामुमकिन है. महज चार छोटे राज्यों- अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, मेघालय और हिमाचल प्रदेश ने सभी दिशानिदेशों को लागू करने पर अपनी सहमति जतायी थी. अनेक राज्यों ने इसे व्यावहारिक और सैद्धांतिक तौर पर नामंजूर कर दिया था. दलील दी गयी कि संविधान में कानून-व्यवस्था राज्य सूची का विषय है और यह कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में आता है.

सत्ता और अफसरशाही के रिश्ते में बदलाव का वक्त

।।जोगिंदर सिंह।।

(पूर्व निदेशक सीबीआइ)

वर्ष 1961 में, जब मैंने मैसूर कैडर (बाद में कर्नाटक कैडर) के तहत भारतीय पुलिस सेवा ज्वाइन की थी, तो उस समय दिग्गज राजनेता शासन में थे. वे शासन को न्यास (ट्रस्ट) की तरह समझते थे. उन्होंने कभी इसे अधिकारियों के इर्द-गिर्द घूमनेवाले फुटबॉल के खेल की तरह नहीं समझा. बेशक, कुछ ऐसे मामले हुए, जिनमें सत्ता की ओर से जरूर कार्रवाई की गयी और अधिकारियों के तबादले हुए. लेकिन नौकरशाही में कोई भी विधायिका और मंत्रियों को देवता तुल्य नहीं समझता था.

30 अक्तूबर, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि नौकरशाहों की तैनाती का न्यूनतम कार्यकाल तय किया जाना चाहिए और राजनीतिज्ञों द्वारा मनमाना तरीके से ट्रांसफर और पोस्टिंग को रोकना होगा. उच्चतम न्यायालय ने कहा है, ‘हम नौकरशाहों की ईमानदारी और जवाबदेही में भ्रष्टाचार के पैमाने को समझते हैं, जो राजनीति से प्रभावित होती है. सत्ता में बैठे लोग इसे बढ़ावा देते हैं. मौजूदा राजनीतिक हालात में, नौकरशाहों का योगदान बेहद जटिल और दुष्कर हो गया है. उन्हें अकसर ऐसे फैसले लेने होते हैं, जिनका संदर्भ आर्थिक और तकनीकी क्षेत्रों से दूरगामी रूप से जुड़ा होता है. उनका फैसला निश्चित तौर पर पारदर्शी और जनहित में होना चाहिए. उन्हें पूरी तरह से उन मामलों के लिए जवाबदेह होना चाहिए, जिसकी उन्हें जिम्मेदारी सौंपी गयी है. मनमाने तरीके से किया जानेवाला तबादला भी अधिकारियों को डराता है, जिसका इस्तेमाल राजनेता किसी असहज महसूस हो रहे अधिकारी के खिलाफ हथियार के रूप में करते हैं.’ कमोबेश यह आदेश 22 सितंबर, 2006 को दिये गए आदेश की तरह ही है, जिसे अब तक लागू नहीं किया गया है.

दरअसल, इसकी शुरुआत उस समय हुई, जब सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर, 1997 में सीबीआइ के निदेशक का न्यूनतम कार्यकाल तय करने के बारे में कहा था. कानून में केवल यही एकमात्र पद है, जिसकी अवधि तय की गयी है. गृह सचिव, कैबिनेट सचिव, रक्षा सचिव, आइबी के निदेशक और रॉ समेत कई अन्य विभागों के प्रमुखों को किसी भी वक्त ट्रांसफर कर दिया जाता है.

एक अधिकारी किसी दूसरे की तरह ही अच्छा हो सकता है, लेकिन यदि सत्ता को वह असहज महसूस होता है, तो उसे अन्यत्र भेज दिया जाता है. देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश को ही लें, तो अप्रैल, 2012 में राज्य सरकार ने प्रशासनिक फेरदबल करते हुए 70 आइएएस अधिकारियों का तबादला कर दिया, जिसमें 32 जिलाधिकारी और पांच मंडलीय आयुक्त शामिल थे.15 मार्च, 2012 को मौजूदा सरकार के (समाजवादी पार्टी) सत्ता में आने के बाद से 221 आइएएस अधिकारियों के तबादले किये गये हैं. यूपी कैडर की कुल अधिकृत संख्या 537 है. पिछले दो वर्षो (2011-12) की अल्पावधि में मौजूदा यूपी सरकार ने प्रांतीय पुलिस सेवा (पीपीएस) के 1,828 अधिकारियों का ट्रांसफर किया है. इसमें अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक (एएसपी) रैंक के 478 और डिप्टी पुलिस अधीक्षक रैंक के 1,350 अधिकारी शामिल हैं. 307 एएसपी रैंक के अधिकारियों का 2012 में तबादला किया गया, वहीं 171 का तबादला 2011 में किया गया. डिप्टी पुलिस अधीक्षक रैंक के 892 अधिकारियों का 2012 में और 458 अधिकारियों का 2011 में तबादला किया गया.

ऐसा नहीं है कि मैं मौजूदा सरकार के स्याह पक्ष को उजागर कर रहा हूं, बल्कि मुझे यह कहने में भी बिलकुल हिचकिचाहट नहीं है कि पूर्व में सत्ता पर काबिज अन्य पार्टी की सरकार ने भी ऐसा ही किया था. 1995 में अपने पहले कार्यकाल के दौरान, तकरीबन साढ़े चार महीने के कार्यकाल में (बसपा की) राज्य सरकार ने 550 आइएएस अधिकारियों के तबादले किये थे. दूसरे कार्यकाल के दौरान 1997 में इस पार्टी ने महज छह माह में 777 अधिकारियों के ट्रांसफर किये. सत्ता में (बसपा) तीसरे कार्यकाल के दौरान ट्रांसफर के 970 मामले सामने आये, जबकि इस पार्टी के पांच वर्ष के पूरे कार्यकाल के दौरान इनकी संख्या 1,200 को पार कर चुकी थी. जबकि इन आंकड़ों में राज्य-स्तर के कर्मचारियों, यहां तक कि सचिवालय स्टाफ की संख्या शामिल नहीं है, और इस मामले में उन्हें भी बख्शा नहीं गया है. कुछ हद तक संख्या का फर्क भले ही हो, लेकिन इस मामले में अन्य राज्यों के हालात को भी उत्तर प्रदेश से खराब या बेहतर नहीं कहा जा सकता.

वर्ष 2011 में महाराष्ट्र सरकार को अपने उस आदेश को वापस लेने के लिए बाध्य होना पड़ा था, जिसमें पुलिस को अवैध सकरुलर जारी करते हुए निर्देश दिया गया था कि वे राजनेताओं के फोन को स्टेशन डायरी में दर्ज नहीं करेंगे. हाइ कोर्ट के एक रिकॉर्ड के मुताबिक, पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने 2006 में बुल्ढाना पुलिस को बुला कर कांग्रेस के एक विधायक के साहूकार पिता के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज नहीं करने को कहा था. विदर्भ के किसानों ने सूद पर रुपये देने के एक रैकेट के खिलाफ शिकायत करनी चाही थी, जो कर्ज में डूबे हुए किसानों को चूस रहे थे.

जांच अधिकारी ने पुलिस डायरी में कॉल रिकॉर्ड दर्ज की थी. बाद में देशमुख ने अवैध तौर पर कलक्टर से कहा था कि इस मामले में तब तक कार्रवाई नहीं होनी चाहिए, जब तक वे ‘व्यक्तिगत तौर पर मामले की छानबीन नहीं कर लेते.’ हाइ कोर्ट ने इस सकरुलर को निरस्त कर दिया, तो राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दी. सुप्रीम कोर्ट ने भी हाइ कोर्ट के आदेश को सही ठहराया. उपरोक्त उदाहरणों से मैं यह संदेश भी नहीं देना चाहता, जिससे ऐसी धारणा कायम हो कि भारतीय नौकरशाही में तमाम संत बैठे हुए हैं और सभी राजनेता बदमाश हैं. दोनों में ही अच्छे और बुरे लोगों की फीसदी तकरीबन समान है. वाकई में, इस तरह के ज्यादातर मामलों में नौकरशाही को दोष दिया जाना चाहिए.

हांगकांग की एक राजनीतिक और आर्थिक रिस्क कंसल्टेंसी (पीइआरसी) के एक सर्वेक्षण के मुताबिक, भारतीय नौकरशाही को एशिया में सबसे अक्षम पाया गया है. सर्वेक्षण में कहा गया है कि राजनेता अक्सर भारतीय नौकरशाही में सुधार करने का वादा तो करते हैं, लेकिन वे ऐसा कर पाने में मुख्य रूप से इसलिए निष्प्रभावी रहते हैं- क्योंकि सिविल सर्विस अपनेआप में एक सत्ता का केंद्र है. सर्वेक्षण में कहा गया है कि भारतीय नौकरशाही से डील करना आम भारतीय के लिए सबसे निराशाजनक अनुभवों में से हो सकता है.

हमारे देश में अनेक नियम, अधिनियम और कानून हैं. मोटे तौर पर करीब 1,030 केंद्रीय अधिनियम और 6,727 राज्य अधिनियम हैं, जिससे नौकरशाही को जनता से धैर्य से निबटने के ढेरों अवसर मिल जाते हैं. ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के आंकड़ों पर गौर करें, तो दिसंबर, 2012 में जारी इसकी रिपोर्ट में भ्रष्टाचार के मामले में भारत को 183 देशों की सूची में 94वें स्थान पर रखा गया है.

विश्व बैंक की देशों के प्रदर्शन और संस्थागत मूल्यांकन व ग्लोबल इनसाइट कंट्री रिस्क रेटिंग समेत विभिन्न दस अध्ययनों में भ्रष्टाचार के मामले में भारत को औसतन 100 में से 36 अंक दिये गये हैं. इसमें अत्यधिक भ्रष्ट को शून्य अंक और साफ-सुथरी छवि वाले देश को 100 अंक दिया जाता है. 2013 में, भारत की रैंकिंग इसके पड़ोसी देशों- श्रीलंका और चीन से भी नीचे है. आम लोगों का जीवन आसान बनाने के लिए नौकरशाही को आगे आना होगा. जाति, धर्म और वोट बैंक की राजनीति को नकारते हुए सभी भारतीयों को स्वच्छ प्रशासन मुहैया कराने की जिम्मेदारी राजनीतिज्ञों की भी है. भ्रष्टाचार देश की जड़ों को कमजोर कर रहा है और हम सभी उसका हिस्सा हैं.

जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा है कि राजनीति से अपराधियों को दूर कर देना चाहिए, तो अब वक्त आ गया है कि व्यवस्था के भीतर अक्षम नौकरशाहों समेत भ्रष्टाचार रूपी खर-पतवारों का सफाया कर देना चाहिए. लेकिन मौजूदा सरकार न केवल कार्यरत बल्कि रिटायर्ड अधिकारियों को अनेक स्तरों पर सुरक्षा कवच मुहैया करा रही है. सरकार में मौजूदा हालात कुछ इस तरह के हैं कि चाहे आप काम कर रहे हों या नहीं, चाहे आप भ्रष्ट हों या नहीं, आप सुरक्षित हैं, क्योंकि पूरी प्रक्रिया ही कुछ इस तरह से बना दी गयी है, कि इसमें सबकुछ चलता रहे. सुशासन इतनी आसानी से नहीं आता और इसमें कड़े फैसले लेने पड़ते हैं. वास्तविक सवाल सुधार की इच्छाशक्ति का है.

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