मुश्किल : रित्विक पात्र
सर्वेक्षण के बारे में टुमारो फाउंडेशन के सीइओ रित्विक पात्र कहते हैं. झारखंड से अधिकांश मजदूर पश्चिम बंगाल के ईंट-भट्ठों में काम करते हैं. और ईंट-भट्ठे किले की तरह होते हैं. इनके अंदर क्या होता है यह किसी को नहीं पता. मजदूर किन हालात में काम करते हैं और गुजर-बसर करते हैं, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है.
वहां न बच्चों के लिए पढ़ाई की व्यवस्था होती है, न ही माताओं और गर्भवती महिलाओं के लिए स्वास्थ्य की सुविधा. झारखंड के मजदूर उन भट्ठों में अमूमन सात से आठ महीने का वक्त गुजारते हैं. लिहाजा इस दौरान बच्चे पढ़ाई से मरहूम रह जाते हैं जो शिक्षा का अधिकार का सीधा-सीधा हनन है. इसके अलावा सरकार द्वारा इनके पोषण के लिए जो योजना संचालित होती है, वे उससे भी महरूम रहते हैं. इसके अलावा संताल परगना का इलाका जो इस सर्वे से छूट गया है के लोग साल में दो दफा खेती मजदूरी के लिए बंगाल पलायन करते हैं. एक बार आलू की खेती के समय और दूसरी दफा धान की खेती के वक्त.
पात्र बताते हैं कि गांवों में सरदारों (स्थानीय मजदूर सप्लायर) की पकड़ इतनी मजबूत है कि गांव के लोग उससे बाहर हो ही नहीं पाते. वे बड़ी आसानी से लोगों को उधार दे देते हैं और उस उधार को चुकाने के चक्कर में गांव के लोग बार-बार पलायन को मजबूर होते हैं. उनके सूद की दर इतनी उंची(आम तौर पर दस रुपये सैकड़ा प्रति माह) होती है कि इसे चुका पाना लगभग नामुमकिन होता है.
इसके अलावा पलायन के कारण इनके घर की देखरेख नहीं हो पाती. भट्ठों से लौटकर जब वे वापस आते हैं तो इनका घर टूटा-फूटा होता है. कमाकर जो ये 15-20 हजार रुपये लाते हैं, उसका बड़ा हिस्सा उधार चुकाने और घर की मरम्मत में खर्च हो जाता है. जब तक मजदूर गांव में रहते हैं, गांवों में उत्सवों का दौर चलता रहता है, मेहमान आते-जाते रहते हैं. इस चक्कर में महज चार महीने में इन पर फिर से सरदार का उधार चढ़ जाता है और जैसे बारिश का मौसम बीतता है, सरदार उन पर चढ़ाई कर देता है. लिहाजा कर्ज में दबे मजदूर किसी सूरत में न नहीं कर सकते.