।। मणिशंकर अय्यर ।।
– भारत-पाक भले ही दो मुल्क हो, पर ‘इसपार’ के साथ ‘उसपार’ की अवाम चाहती है रिश्तों में मिठास आये. पाकिस्तान में नेशनल असेंबली चुनाव के दौरान जिस तरह से राजनीतिक दलों ने भारत या कश्मीर को भावनात्मक मुद्दा नहीं बनाया, यह वहां की जनता में बदलाव का ही परिचायक है. तो हम क्यों पुरानी बातों पर ही टिके हैं. पेश है पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर के साथ बीबीसी संवाददाता विनीत खरे की लंबी बातचीत के अंश. –
पाकिस्तान के चुनाव में हिस्सा लेनेवाले सभी राजनीतिक दलों का कहना है कि वे भारत के साथ बेहतर रिश्ता कायम करना चाहते हैं. हालांकि नेशनल असेंबली के ताजा चुनाव के दौरान न भारत और न कश्मीर के बारे में कोई बात की गयी. यह एक अनोखा चुनाव है जिससे यह संदेश मिला है कि जो भी पार्टी सत्ता में आयेगी वह भारत के साथ संबंध बेहतर करने की कोशिश करेगी. मेरे ख्याल से अब उनकी मानसिकता बदली है.
उन्हें यह महसूस हो रहा है कि भारत को दुश्मन समझने के बजाय अगर रिश्ते को बेहतर बनाया जाये, तो इसमें उनका ही फायदा है. हालांकि, वहां अमेरिका को लेकर आम जनता में गुस्सा है क्योंकि अमेरिकी ड्रोन का शिकार वहां की आम जनता बनी है. सबका कहना है कि भारत-पाकिस्तान के बीच कई मसले हैं, लेकिन इसका हल जंग से नहीं, बल्कि बातचीत से हल निकाला जा सकता है.
मुझे लगता है कि जिस तरह पाकिस्तान में लोगों की मंशा में बदलाव आया है वैसा बदलाव भारत में नहीं देखा जा रहा है. हम पुरानी बातों पर ही टिके हुए हैं. मैं मानता हूं कि पाकिस्तान में नवाज शरीफ की पार्टी पाकिस्तान मुसलिम लीग (एन), जो सत्ता पर काबिज होने जा रही है, हमें उसके साथ वार्तालाप करना चाहिए. इसे जारी रखने की कोशिश करनी चाहिए, तभी सभी मसलों का हल निकल पायेगा.
दूसरी तरफ इमरान खान पर चुनाव प्रचार के दौरान इस तरह के आरोप लगाये गये, जैसे कि पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान से उनके नजदीकी संबंध हों, लेकिन मुझे नहीं लगता है कि अगर वह सत्ता में आते तो कठपुतली की तरह काम करते. मेरे नजरिये में हमें (भारत) इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पाकिस्तान की सत्ता में पीएमएल (एन), पीटीआइ या पीपीपी आये.
नवाज शरीफ ने अपने भारतीय टेलीविजन के साक्षात्कार में यह संकेत दिया था कि वह भारत के साथ 1999 के बाद से बंद पड़े मामले की फिर से शुरु आत करना चाहते हैं. लेकिन जब वार्तालाप शुरू होता है, तो दोनों पक्षों को यह समझना चाहिए कि थोड़ा अंतर आनेवाला है और उसी के आधार पर हल निकल सकता है. मैं दोहराना चाहता हूं कि जिस तरह पाकिस्तान में लोगों की मंशा में बदलाव आया है वैसा बदलाव भारत में क्यों नहीं आया. यही भावना पाकिस्तान की दूसरी पार्टियों में भी है. मुझे लगता है कि यदि उनके संसद में भी भारत के साथ बातचीत से जुड़े मसले पर चर्चा शुरू होती है, तो सभी पार्टियों का समर्थन मिलेगा.
इस माहौल का फायदा उठाना भारत के हित में है. हालांकि, चुनाव प्रचार के वक्त कश्मीर पर कोई बात नहीं की गयी इसका मतलब यह नहीं है कि इसे लेकर हमारे बीच कोई मतभेद नहीं है. लेकिन अच्छी बात यह है कि उन्होंने इस मुद्दे को भावनात्मक लहजे में नहीं दोहराया है.
पाकिस्तान में हो रहे चुनाव को लेकर दिख रहे उत्साह की अगर भारतीय चुनाव से तुलना की बात हो तो मैं यह कहूंगा कि दो साल पहले कश्मीर के जो पंचायत चुनाव हुए थे, उस वक्त भी उम्मीदवारों और जनता को चरमपंथियों से जान से मारने की चुनौतियां मिली थीं. इसके बावजूद कुपवाड़ा और पुलवामा जैसे इलाकों में भी 70-80 फीसदी लोगों ने बड़े उत्साह से बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया.
कुछ ऐसा ही रुझान पाकिस्तान में देखने को मिला. पाकिस्तानी जनता ने दिखाया कि उसे फौज का शासन पसंद नहीं है और वे यह भी संकेत दे रहे हैं कि उनका तालिबान से भी कोई लेना-देना नहीं है. उनको लगता है कि पाकिस्तान के चुनाव में अगर कोई कप्तान है तो वह वहां की अवाम है.
लोकतांत्रिक देशों की बिरादरी को अब पाकिस्तान का इस्तबाल करना चाहिए. वहां पहली बार पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेतृत्व में गठित सरकार पूरे पांच साल चली, फिर चुनाव हुए तो 60-80 फीसदी मतदान करके वहां की अवाम ने नवाज शरीफ को 14 साल बाद सत्ता की बागडोर सौंप दी. पड़ोसी पाकिस्तान में लोकतंत्र की फैलती बेल का भारत में भी स्वागत किया जाना चाहिए. लोकतांत्रिक राह पर चलने वाला पाकिस्तान भविष्य में भारत के लिए मुफीद साबित हो सकता है.