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जात ही पूछो साधु की

हेमंत चुनाव के दौरान जाति की राजनीति और राजनीति में जातिवाद पर बहस गरम है. इस विषय को व्यापक संदर्भ में देखता और इससे जुड़े आयाम को समेटता यह आलेख. आज इसकी पहली कड़ी. यह आज भी बहस का विषय है कि भारतीय समाज में ‘जात न पूछो साधु की’ कहावत कब से प्रचलित हुई. […]

हेमंत
चुनाव के दौरान जाति की राजनीति और राजनीति में जातिवाद पर बहस गरम है. इस विषय को व्यापक संदर्भ में देखता और इससे जुड़े आयाम को समेटता यह आलेख. आज इसकी पहली कड़ी.
यह आज भी बहस का विषय है कि भारतीय समाज में ‘जात न पूछो साधु की’ कहावत कब से प्रचलित हुई. इसके लिए इतिहास-पुराण से शायद यह खोज निकालना संभव है कि भारत, खासकर बिहार, की सत्ता-राजनीति में किसी साधु ने जनप्रतिनिधि की भूमिका निभायी अथवा नहीं. ऐसे उदाहरण अवश्य मिल जायेंगे कि राजतंत्र के जमाने में कुछ राजा और गणतंत्र के गणाधीश (जन प्रतिनिधि) साधु प्रकृति के होते थे.
समाज और सत्ता के संचालन से लेकर नियंत्रण तक में उनकी भूमिका स्वीकृत-प्रतिष्ठित होती थी, क्योंकि उनका चरित्र और सत्ता-संचालन की शैली साधु की परिभाषा पर खरी उतरती थी. साधु यानी समाज के हित में अपनी सुख-सुविधाओं का त्याग करनेवाला. समष्टि के उत्थान में अपनी निजी पहचान-नाम-धाम तक की बलि देने वाला. शायद इसी से उस वक्त समाज में ‘जात न पूछो साधु की’ कहावत प्रचलित भी हुई.
हालांकि यह खोज निकालना सचमुच श्रमसाध्य और कठिन है कि ऐसा समाज कब था और कब तक था जब ‘साधु’ और ‘जनप्रतिनिधि’ एक-दूसरे के पर्याय थे. हालांकि यह रेखांकित करना अपेक्षाकृत आसान है कि कालांतर में कब से जात ही ‘साधु’ की पहचान का असली पैमाना बनी.
उस काल विशेष, जब राजनीतिक सत्ता-व्यवस्था का नियामक सूत्र ‘जात ही पूछो साधु की’ था, के विश्लेषण से यह जाना जा सकता है कि तब वैसे ‘साधु’ कैसे जनप्रतिनिधि के रूप में प्रतिष्ठित हुए, और जनप्रतिनिधि भी साधु बनकर सत्ता-सुख पर काबिज रहने में कैसे सफल हुए? इससे यह भी समझा जा सकता है कि कैसे ‘जात’ किसी साधु के जनप्रतिनिधि हो सकने की गारंटी बनी और किसी जनप्रतिनिधि के साधु होने का प्रमाण भी.
बिहार में ‘जात न पूछने’ का काल रहा हो अथवा ‘जात पूछने का’, आम जनमानस के लिए जनप्रतिनिधि का साधु स्वरूप ही आदर्श रहा है. हमारे वर्तमान चुनावी विशेषज्ञ एवं आधुनिक इतिहासवेत्ता इस तथ्य को रेखांकित करने में भले कोताही करें, लेकिन यह अनुभव सिद्ध तथ्य है कि आज भी बिहार सहित पूरे भारत का जनमानस इस आदर्श से प्रभावित और प्रेरित है.
सिर्फ गांधी और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले आंदोलन नहीं, बल्कि लोहिया-कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में हुए समाजवादी आंदोलन से लेकर विनोबा भावे व चंद्रशेखर की ‘पैदल भारत यात्र’ तक में जनता की भागीदारी इसका गवाह है. यहां तक कि जब वीपी सिंह ने वर्षों सत्ता का सुख भोगते हुए अचानक ऊबकर विद्रोही तेवर अपनाया, तो उसे भी जनता ने साधु की सादगी का प्रमाण (राजा नहीं फकीर है!) माना और उन्हें पुन: सत्ता की कुरसी पर, पहले की अपेक्षा ज्यादा अधिकार देकर, बिठा दिया.
अक्सर बिहार की जनता ‘गरीबी हटाओ’, ‘मंडल’ और ‘कमंडल’ जैसी लहरों और आंधियों में बहकर भी अपनी अपेक्षाओं के अनुरूप आदर्श जनप्रतिनिधि चुनना चाहती रही – साधु वेश में उतरनेवाले किसी भी जनप्रतिनिधि को स्वीकार कर फिर-फिर ठगे जाने को तैयार होती रही! बार-बार ठगाने के बावजूद अपने आदर्श को धूमिल नहीं होने दिया. हालांकि बदले में वह जाति में बंटे होने की तोहमत के दंश ङोलती रही. अपने जनप्रतिनिधियों के करतूतों की सजा खुद भोगती रही.
विधानसभा चुनाव-2015 में ‘विकास’ के नाम पर चुनावी राजनीति की जो बिसात बिछाई गयी है, उसे भी सदियों से जात के जंजाल में उलझा बिहारी वोटर ‘सबका साथ, सबका विकास’ और ‘सामाजिक न्याय के साथ विकास’ के बीच की टक्कर के रूप में पहचानने की कोशिश कर रहा है, लेकिन यह तय कर नहीं पा रहा कि ‘विकासवाद’ की ये दो अवधारणाएं पिछड़े, लेकिन जुझारू बिहार की सत्ता-राजनीति के संघर्ष की किस ऐतिहासिक धारा से जुड़ी हैं – ‘अगड़ावाद बनाम पिछड़ावाद’ की धारा से या कि ‘पिछड़ावाद बनाम पिछड़वाद’ की धारा से?
यह इतिहास में दर्ज निर्विवाद तथ्य है कि आजादी के पूर्व बिहार (और कमोबेश पूरे भारत) की सत्ता-राजनीति में अगड़ों का प्रभुत्व था. उनमें वर्चस्व की लड़ाई भी होती थी. इसी आधार पर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के अंदर भी द्वंद्व उठते थे. ऐसे समय में विभिन्न अगड़ी जातियों के अलग-अलग नेतृत्व अपने वर्चस्व के लिए अगड़ी जातियों के साथ-साथ पिछड़ी जातियों के समुदायों का इस्तेमाल करते थे. कालांतर में यह समीकरण बदला और 1935-36 में यादव, कुर्मी और कोइरी जाति के बीच राजनीतिक एकता कायम करने के प्रयास हुए. प्रांतीय त्रिवेणी संघ बना और वह चुनाव मैदान में उतरा.
1937 में प्रांतीय असेंबली के साथ-साथ उसने 1938 में जिला परिषद के चुनाव में भाग लिया. यह पिछड़ों के द्वारा अपनी सामूहिक शक्ति को पहचानने का प्रथम प्रयास था. पिछड़ों की राजनीति की यह सुगबुगाहट धीरे-धीरे सत्ता में भागीदारी की छटपटाहट का आकार लेने लगी.
उस समय कांग्रेस पिछड़ों की इस चेतना का अपनी सत्ता-राजनीति के ढांचे की मजबूती के लिए इस्तेमाल करती थी. पिछड़ावाद के अभ्युदय के साथ आजादी के संघर्ष में शामिल कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने आजादी के बाद सोशलिस्ट पार्टी का नाम ग्रहण कर ‘पिछड़ों को सत्ता में भागीदारी’ की मांग की बजाय सत्ता हासिल करने की उनकी स्वतंत्र हैसियत की पहचान पुख्ता की.
सामाजिक संदर्भ में जहां अगड़ों के अत्याचारों से मुक्त करने के लिए पिछड़े समुदायों में आत्मविश्वास और अधिकार-बोध जगाने की कोशिश करने वाले गांधी, लोहिया, कर्पूरी ठाकुर, अब्दुल कयूम अंसारी जैसे नेताओं की लंबी परंपरा और उनका प्रभाव आज भी नजर आता है, वहीं राजनीतिक संदर्भ में यह भी स्पष्ट दिखता है कि बिहार में सत्ता पर कब्जा के लिए ‘पिछड़ों’ को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किये जाने की भी लंबी परम्परा रही है.
(क्रमश:)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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