पिछले विधानसभा चुनाव में सहरसा की चार सीटों में से तीन पर तत्कालीन राजग के उम्मीदवार विजयी हुए थे. उनमें दो पर जदयू और एक पर भाजपा प्रत्याशी को जीत मिली थी. सिर्फ महिषी सीट ही राजद के पाले में गयी थी. इस बार के चुनाव में महागंठबंधन में राजद और जदयू ने दो- दो सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे हैं. राजग खेमें में दो सीट लोजपा, एक-एक सीट भाजपा और रालोसपा को मिली है. पप्पू यादव की पार्टी ने चारों सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे हैं. सहरसा की ताजा चुनावी परिदृश्य पर एक रिपोर्ट.
सहरसा कार्यालय
सहरसा जिले की चार विधानसभा सीटों के लिए नामांकन का खत्म हो चुका है. चारों विधानसभा के लिए नामांकन कर चुके प्रत्याशी चुनावी समर में दोगुने उत्साह से कूद चुके हैं. हालांकि नाम वापसी की तिथि 19 नवंबर है. इसके बाद ही सभी क्षेत्र में कितने प्रत्याशी मैदान में हैं, यह स्पष्ट होगा.
लेकिन, मतदाताओं ने प्रत्याशियों का लेखा-जोखा लेने का काम शुरू कर दिया है. पहले सीधी टक्कर होने की अवधारणा थोड़ी-थोड़ी दरकती दिख रही है. जातीय गोलबंदी भी शुरू हो चुकी है. विकास की बातें की जा रही हैं, लेकिन जातिय गणति साधने पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है. ऐसे में जिले की चारों सीटों पर कड़ी टक्कर की संभावना बनती दिख रही है.
गंठबंधन के बदलते रिश्तों के बीच कोसी के क्षेत्र से अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत करने की आस लगाये सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव की पार्टी सहित कई निर्दलीय पूरे जोशो खरोश के साथ मैदान में उतर पड़े हैं. जो अन्य दलों के लिए मुसीबत बन सकते हैं. बीते चुनाव में जदयू को दो व भाजपा एवं राजद के हिस्से में एक -एक विधानसभा की सीटें आयी थी. उस चुनाव में भाजपा-जदयू के बीच गठबंधन था. 2010 के विधानसभा चुनाव में राजद गठबंधन दूसरे स्थान पर था. लेकिन वर्तमान में स्थिति बदली हुई है. फिलवक्त जदयू और भाजपा का गंठबंधन टूट चुका है. अब भाजपा के साथ लोजपा व रालोसपा के कार्यकर्ता चुनावी गणति को बदलने में लगे हुए हैं. दूसरी तरफ महागंठबंधन में शामिल राजद, जदयू व कांग्रेस के कार्यकर्ता भी आपसी सामंजस्य से चुनावी फिजां को तैयार करने में लगे हुए हैं.
यहां के सामाजिक समीकरणों को साधने की कोशिश हर ओर से की जा रही है. 1990 के पहले तक यहां कांग्रेस की अच्छा प्रभाव था. कोसी अंचल की राजनीति में सहरसा की बड़ी भूमिका रही है. मंडल कमीशन के बाद नब्बे के दशक में यहां की राजनीति की धार तो बदली ही, उसकी दिशा भी परिवर्तित हुई. करीब डेढ़ दशक बाद सहरसा के संग्राम का परिदृश्य बदला हुआ है. बाढ़ से पीड़ित इस इलाके की राजनीति इस चुनाव में किस दिशा की ओर मुड़ती है, इसे देखा जाना है.
इनपुट : दीपांकर
प्रत्याशी पुराने, सहयोगी नये
पिछले चुनाव की तरह ही इस बार भी विजेता व उप विजेता के पार्टी व प्रत्याशी वहीं हैं. बस उनके पार्टियों के सहयोगी दल बदल चुके हैं. कोसी क्षेत्र में अपनी राजनीति जमीन को मजबूत करने में जुटे सांसद पप्पू यादव की जाप पार्टी से संजना तांती मैदान में हैं. इसके अलावा सीपीआइएम से विनोद कुमार सहित एक दर्जन निर्दलीय भी चुनाव मैदान में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं. विगत तीन चुनावों से यह सीट भाजपा के खाते में रही है. वर्तमान विधायक भाजपा के डॉ आलोक रंजन व राजद के अरु ण कुमार यादव सहित अन्य के भाग्य का फैसला तो पांच नवंबर को तय हो जायेगा. लेकिन विकास के साथ जातिय गणति साधने वाले प्रत्याशी को ही जीत मिलने की संभावना है.
जअपा बना रही तीसरा कोण
विगत चुनाव की तरह ही जदयू व लोजपा के उम्मीदवार इस बार भी आमने-सामने हैं. बदलते राजनीतिक व जातिय समीकरण का फायदा उठाने की बात सभी प्रत्याशी कह रहे हैं. पिछले चुनाव में जदयू के रत्नेश सादा ने जीत दर्ज की थी. लेकिन हार के बावजूद सरिता पासवान क्षेत्र में लगातार बनी रहीं, जिसका लाभ मिलने का वह दावा भी कर रही हैं. उस चुनाव में दोनों पार्टी के नये चेहरे थे. जदयू-भाजपा का गठजोड़ था. वहीं राजद भी लोजपा के साथ चुनाव लड़ रही थी. इस चुनाव में सोनवर्षा का समीकरण भी बदला-बदला सा है. जाप के मनोज पासवान भी सांसद पप्पू यादव के दम पर चुनावी वैतरणी पार करने का भरोसा संजाये हुए हैं.
माय समीकरण पर निर्भर है परिणाम
जिले का सिमरी बिख्तयारपुर विधानसभा क्षेत्र खगड़िया लोकसभा के अंतर्गत आता है. महागंठबंधन व एनडीए के लिए इस बार यह प्रतिष्ठा की सीट बन गयी है. यहां से निवर्तमान विधायक अरु ण यादव ने पूर्व सांसद दिनेश चंद्र यादव के लिए अपनी सीट छोड़ दी है तो उनके पुराने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी रहे सांसद चौधरी महबूब अली कैसर के पुत्र लोजपा प्रत्याशी युसुफ सलाउद्दीन ने भी दिन-रात एक कर दी है. इन सबके बीच दियारा के रामानंद यादव के पुत्र व जाप प्रत्याशी धर्मवीर भारती और निर्दलीय प्रत्याशी जिप उपाध्यक्ष रितेश रंजन भी इनके गढ़ों में सेंध लगाने की कोशिश में जुटे हुए हैं. यहां परिणाम बहुत हद तक माय समीकरण के बनने और बिखरने पर निर्भर है. महागठबंधन व एनडीए के बीच धर्मवीर व रितेश का चर्चा में आना कुछ कहने की कोशिश जरूर कर रहा है.
सीधे मुकाबले के आसार नहीं
चारों विधानसभा क्षेत्र में महिषी विधानसभा क्षेत्र की स्थिति सबसे दिलचस्प बनती जा रही है. महागंठबंधन व एनडीए के प्रत्याशी के अलावा कई ऐसे प्रत्याशी हैं, जो परिणाम को काफी हद तक प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. विधायक अब्दुल गफूर के गढ़ में रालोसपा अध्यक्ष ने अपने कार्यकर्ता चंदन बागची को टिकट देकर चुनौती दी है. इधर जाप प्रत्याशी पूर्व बीडीओ गौतम कृष्ण, निर्दलीय प्रत्याशी पूर्व विधायक सुरेंद्र यादव व पप्पू देव की पत्नी पूनम देव परिणाम को अपने पक्ष में करने की कोशिश में लगे हैं. जातीय गोलबंदी के समीकरण को तोड़ने की कोशिश में लगे ऐसे प्रत्याशी जीत का मंसूबा पाले उम्मीदवारों के खेल को बिगाड़ में काफी सक्षम माने जा रहे हैं.
बदहाल हो गया मत्स्यगंधा झील
सहरसा. सहरसा शहर या कहें तो जिले को पर्यटक स्थल के रूप में पहचान दिलाने का काम सबसे पहले मत्स्यगंधा ने किया था. यह ऐसा नाम बन गया, जिसे देखने दूर-दूर से लोग आने लगे. वर्ष 1997 में सरकार ने शहर के श्मसान स्थल को विकसित कर मंदिर व मत्स्यगंधा की परिकल्पना को साकार किया था. सहरसा आने वाले सभी लोगों को शहरवासी बड़ी शान से मत्स्यगंधा दिखाने ले जाते थे, लेकिन इस शान की चमक अब फीकी पड़ चुकी है. लोग इधर आने से भी परहेज करने लगे हैं. हर बार चुनाव में इसे विकसित करने का वादा किया गया. योजना भी बनी लेकिन जमीन पर यह मूर्तरूप नहीं ले पायी. मत्स्यगंधा झील अब एक गंदे तालाब के रूप में बदल चुकी है.
कभी थी चहल-पहल : कभी यहां दर्जनों रंग-बिरंगे पैडल, पतवार व मोटर वोट तैरते थे. रंग-बिरंगे फव्वारा चला करता था. ठंडे प्रदेशों से विदेशी चिड़िया मेहमान पंछी बन कर यहां आती थी. दूर-दराज से सैलानी आते थे और झील की नैसर्गिक खूबसूरती समेट कर अपने साथ ले जाते थे, लेकिन अब लोग यहां आने से परहेज करते हैं.