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1952 में निर्दलीय प्रत्याशी ने आसमान से गिरवाया था परचा

दिघवारा: राज्य में दो चरणों के मतदान संपन्न हो जाने के बाद अब तीसरे चरण के लिए चुनाव प्रचार जोरों पर है. तीसरे चरण के तहत 28 अक्तूबर को सारण जिले के दस विधानसभा क्षेत्रों में भी मतदान होना है. चुनाव प्रचार के दौरान आसमान में उड़ते हेलीकॉप्टर को देख कर बुजुर्ग लोगों को अतीत […]

दिघवारा: राज्य में दो चरणों के मतदान संपन्न हो जाने के बाद अब तीसरे चरण के लिए चुनाव प्रचार जोरों पर है. तीसरे चरण के तहत 28 अक्तूबर को सारण जिले के दस विधानसभा क्षेत्रों में भी मतदान होना है. चुनाव प्रचार के दौरान आसमान में उड़ते हेलीकॉप्टर को देख कर बुजुर्ग लोगों को अतीत की बातें याद आती हैं. उनसे बातचीत करिए, तो यादों की खिड़की से एक-एक कर दास्तां निकलते जाते हैं. मसलन, नेताओं के जनसंपर्क का तरीका कैसा होता था? वोटरों व प्रत्याशियों के बीच कैसा समन्वय था? तब हेलीकॉप्टर से प्रचार होता था या नहीं?

एक बुजुर्ग 1952 के पहले आम चुनाव का किस्सा सुनाते हैं. तब लोकसभा और विधानसभा के लिए एक साथ चुनाव होते थे. आमी के जमुना प्रसाद साह ने पहले विधानसभा चुनाव में बतौर निर्दलीय प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमायी थी. उन्हें हवाई जहाज चुनाव चिह्न् मिला था. वोटरों के बीच धाक बने, इसलिए उन्होंने चुनाव के पूर्व अपने प्रचार के लिए तैयार चुनावी परचे को आसमान से गिरवाया था. तब से आज तक फिर दोबारा आसमान से परचा नहीं गिरा. इस चुनाव में कांग्रेस के रामविनोद सिंह जीते थे. तीसरे नंबर पर रहे साह को 3038 वोट मिले थे. श्री साह भले ही चुनाव हार गये, लेकिन हेलीकॉप्टर से उन्होंने जो परचा गिरवाया, उसकी चर्चा काफी दिनों तक होती रही. अब तो एक-एक दिन में एक जिले में सात-आठ हेलीकॉप्टर उतरते हैं. बड़े नेता शायद ही सड़क मार्ग से प्रचार करते हैं.

सारण जिले में तांगा पर लाउडस्पीकर को बांध कर चुनाव प्रचार करने की याद अब भी लोगों के जेहन में है. जिस तांगे से प्रचार होता था, उसी पर प्रत्याशी भी बैठते थे. तांगा जहां पहुंचता, लोगों की भीड़ लग जाती. बच्चे काफी दूर तक उसके पीछे-पीछे दौड़ते रहते थे. फिर तांगे की जगह पेट्रोलवाली जीप ने ली ली. अब तो गांव-गांव में महंगे चारपहिया वाहन घूमते हैं. इस बार लालू प्रसाद ने राजद प्रत्याशियों से कहा था कि वे चुनाव प्रचार के लिए टमटम की व्यवस्था करें. हालांकि यह सफल नहीं हो पाया. चुनाव आयोग ने इस पर आपत्ति जतायी.

1952 के चुनाव के बाद के कई चुनावों में प्रत्याशियों के प्रचार के लिए दीवारों पर परचा साटने का काम शुरू हुआ था. यह जिम्मेवारी पार्टी या प्रत्याशी के समर्पित कार्यकर्ता निभाते थे. इस कार्य के बदले में परचा साटनेवाले कार्यकर्ताओं को लाई और बताशा मिलता था. अब वह दौर भी खत्म हो गया. नयी पीढ़ी के सामने इसकी चर्चा कीजिए, तो वे भरोसा भी नहीं करेंगे कि कभी ऐसा भी होता होगा. अब तो पोस्टर कहीं दिखता नहीं. चुनाव आयोग की दबिश का यह असर है. बैनर वगैरह टांगने के लिए भाड़े के लोग मिल जाते हैं. जो बड़ी पार्टियां हैं, वे इवेंट मैनेजमेंट कंपनी को ठेका देती हैं.

आज भले ही नेताओं के साथ उनकी सुरक्षा के लिए स्कॉट पार्टी रहती है, लेकिन पहले के जमाने में ऐसा नहीं था. जनसंपर्क में स्कॉट पार्टी कोई नहीं रखता था. जिन नेताओं को सुरक्षा के दृष्टिकोण से पुलिस बल दिया जाता था, वैसे नेता भी जनसंपर्क के क्रम में स्कॉट पार्टी व पुलिस को लौटा देते थे एवं बिना किसी भय के क्षेत्र के लोगों से मिलते जुलते थे.

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