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सुते का ठौर नहीं, खोजते हैं लैट्रिन

शौचालय का मुद्दा लोक सभा चुनाव से ही बहस में, जब नरेंद्र मोदी ने कहा, पहले शौचालय-फिर देवालय. इस चुनाव में नीतीश कुमार ने अपने सात निश्चयों घर-घर शौचालय की बात को शामिल किया है. इस बीच में बिहार में यह कानून भी बन गया है कि जिसके घर शौचालय नहीं होगा, वह चुनाव नहीं […]

शौचालय का मुद्दा लोक सभा चुनाव से ही बहस में, जब नरेंद्र मोदी ने कहा, पहले शौचालय-फिर देवालय. इस चुनाव में नीतीश कुमार ने अपने सात निश्चयों घर-घर शौचालय की बात को शामिल किया है. इस बीच में बिहार में यह कानून भी बन गया है कि जिसके घर शौचालय नहीं होगा, वह चुनाव नहीं लड़ सकता. मगर हकीकत यह है कि बिहार की 65 फीसदी आबादी भूमिहीन हैं.
उनके पास सोने की जगह नहीं है तो शौचालय कहां बनायें. चुनावी शोर के बीच गुम हो गये इस मसले पर पुष्यमित्र की रिपोर्ट.
गांव-बरबट्टा, मखदूमपुर विधानसभा क्षेत्र, जहानाबाद
जहानाबाद शहर से सिर्फचार किमी दूर है बरबट्टा गांव. मुख्य सड़क के किनारे बसा यह गांव मखदूमपुर विधानसभा के अंतर्गत आता है. पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी यहां से एनडीए उम्मीदवार के रूप में चुनावी लड़ रहे हैं. उनके खिलाफ राजद ने सूबेदार दास को मैदान में उतारा है. जब हम वहां पहुंचे तो मंदिर के पास नवयुवकों की टोली खड़ी चुनावी बहस में मशगूल थी. उनमें से एक युवक राजीव यादव जो थोड़ा वोकल था, कहने लगा, वैसे तो हम आरजेडी के समर्थक हैं. पर अगर कोई पार्टी, कोई कैंडिडेट हमारे गांव का हनुमान मंदिर पक्का बनवा दे तो पूरे गांव का भोट उसी को दिला देंगे.
भाजपा समर्थक मंदिर की बात करे यह तो समझ आता है, मगर राजद समर्थक मंदिर के लिए इतना समिर्पत हो यह बात समझ से परे थी. हमने उनसे पूछा, आपके लिए मंदिर इतना महत्वपूर्ण क्यों है, लोग रोजी-रोजगार, सड़क और बिजली की बात करते हैं और आप गांव में मंदिर बनवाने के लिए कहते हैं. राजीव तो इस बात का ढंग से जवाब नहीं दे पाये, मगर वहीं हाथ में लोटा लिये खड़े एक अधेड़ सज्जन दास जी ने हमें इसका रहस्य बताया.
उन्होंने बताया कि दरअसल सड़क किनारे बना यह मंदिर उनके गांव का सामुदायिक भवन की तरह है. लोगों की आस्था तो इससे जुड़ी ही है, गांव के पुरु षों के लिए उठने बैठने की यही एक जगह है. यहां तक कि रात में पचासों लोग इसके इर्द-गिर्द सोते भी हैं. हम दास जी के साथ बरबट्टा गांव के अंदर चल पड़े.
300 घरों में बसे इस गांव को देख कर पहली नजर में ही समझ आता है कि यहां जगह की किल्लत है. 90 फीसदी घर आधा कट्ठा जमीन में बने हैं. एक-एक मकान में 15-20 लोगों का संयुक्त परिवार रहता है. रात किसी तरह घर में गुजरती है, सुबह होते ही लोग सड़कों पर आ जाते हैं. महिलाएं सड़क किनारे ही सभी घरेलु काम करती हैं. पुरु ष अगर मजदूरी के लिए बाहर नहीं निकले तो उनके पास बैठने का एक ही ठिकाना है, मुख्य सड़क के किनारे अधबना वह मंदिर.
गांव में महादलितों की भी ठीक-ठाक आबादी है, तकरीबन 120 घर. मगर उनकी हालत काफी गयी-गुजरी है. ऐसे ही एक घर में हम घुसे. यह रघु दास का घर था. उनकी पत्नी ने बताया कि उनके पास कुल तीन डिसमिल जमीन है, जिस पर उन्होंने खपरैल वाले तीन कमरे बनाये हैं.
इसके बाद एक हैंड पंप के लिए जगह बची है. इस घर में वे दोनों पति-पत्नी के अलावा, उनके तीन बेटों का परिवार भी रहता है. कुल मिला कर इस छोटी सी जगह में 13-14 लोगों का संयुक्त परिवार किसी तरह रह रहा है. .. और शौचालय? इस सवाल पर रघु दास की पत्नी चुप हो जाती है. पड़ोसी पिंटू चौधरी कहते हैं, कहां बनेगा लैट्रिन. आप ही बताइये, सुते (सोने) का जगह हैइये नै है और लैट्रिन खोजते हैं.
धीरे-धीरे लोगों की भीड़ जमा हो जाती है. पता चलता है कि बरबट्टा गांव में सिर्फतीन घरों में शौचालय है. जमीन की कमी और बढ़ती आबादी की वजह से लोगों के पास रात में सोने के लिए जगह नहीं है. ऐसे में वे शौचालय की बात कैसे करें?
यह सिर्फइस गांव की कहानी नहीं है. सामाजिक आर्थिक जनगणना, 2011 के आंकड़े बताते हैं कि बिहार में 65 फीसदी आबादी भूमिहीन है. इनमें महादलितों और पिछड़ों की बड़ी आबादी शामिल है. पूरे बिहार में तकरीबन हर गांव में ऐसे दलित-पिछड़े परिवार बड़ी संख्या में मिलते हैं, जिनके पास खेती की जमीन तो नहीं है, रहने के लिए भी बहुत कम जमीन है.
कलेंद्र चौधरी जो गांव के एक सम्मानित बुजुर्ग हैं, कहते हैं सरकार में बैठे लोगों को पता है कहां कि जमीन की क्या हालत है? कह देते हैं, घर-घर शौचालय बनायेंगे, मगर कहां बनायेंगे, कैसे बनायेंगे यह कोई नहीं सोचता.
रघु दास की घरवाली कहती हैं, कि ठीक है, हमारे पास जमीन नहीं है. मगर हम फिर भी शौचालय बनाने को तैयार हैं. मगर उसके लिए भी तो पैसा चाहिये. कितना पैसा चाहिये? इसके जवाब में वे कहती हैं, कम से कम 20 हजार. 20 हजार क्यों? इसका जवाब पास ही बैठे बिरजू दास फट से दे देते हैं. दस फीट गड्ढा खोदने में ही पांच हजार लग जाते हैं.
ईंट 7,500 रु पये का लगता है. सीमेंट भी 7500 का ही लगता है, फिर बालू, मिस्त्री और लेवर का चार दिन का मेहनताना, दरवाजा, शौचालय का पैन सब मिलाकर खर्च तो 25 हजार के पार चला जाता है. अब अगर घर के लोग मेहनत करने के लिए तैयार हो जायें तो 20 हजार में काम हो सकता है. जबकि सरकार सिर्फ12 हजार देती है. बिरजू दास कहते हैं, 12 हजार में तो वैसा ही शौचालय बनेगा जो खुले में शौच से भी बेकार होगा.
गांव के जिन तीन लोगों ने शौचालय बनवाया है, उनके आवेदन मुखिया जी के पास साल भर से पड़े हैं. लाछो देवी कहती हैं, बेटा-बहू दोनों विकलांग हैं. ऐसे में उन्हें पता चला कि सरकार शौचालय बनवाने का पैसा देती हैं तो कर्ज लेकर शौचालय बनवा लिया. सोचा विकलांग बेटे-बहू को परेशानी नहीं होगी. मगर प्रोत्साहन राशि कहां फंसी है, कोई बता नहीं पा रहा. उनके इस अनुभव ने दूसरे लोगों को हतोत्साहित किया है. लोग सोचते हैं, जैसे काम चल रहा है.
चल जाये. बरसों से बाहर शौच कर रहे हैं, क्या फर्क पड़ गया. वार्ड सदस्य मालती देवी ने भी शौचालय बनवा लिया है. इसकी वजह है, हाल ही में बिहार सरकार ने कानून बना दिया है कि जिनके घर में शौचालय नहीं है, वे पंचायत चुनाव नहीं लड़ पायेंगे. बांकी लोगों के सामने ऐसी बाध्यता नहीं है. उनकी प्राथमिकताओं में दूसरे मसले हैं.

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