लखीसराय में उलटा-पुलटा भी कम नहीं है. यहां बालू ‘नकदी फसल‘ है और किसानों के घर पर धान सड़ रहा है. भगवान शिव को अपनी मुक्ति के लिए कोर्ट जाना पड़ता है. यह चुनाव उलटी चीजों को सीधा कर पायेगा? किसान सुभाष कहते हैं- ‘की होतौ सरकार, कोई फैयदा ना हौ.’
यहां से गुजरने वाली किउल नदी से बालू निकलता है. हर दिन तीन-साढ़े तीन सौ ट्रक-ट्रैक्टर से ढुलाई होती है. यहीं से बेगूसराय, खगड़िया, सहरसा, मानसी तक बालू जाता है. राजेंद्र पुल बंद होने से बालू की ढुलाई मुंगेर-बांका से भागलपुर तक होती है. ढुलाई पर खर्च बढ़ा, तो दाम बढ़ गये हैं. पर बाजार में मांग है, इसलिए उसकी ढुलाई पर कोई असर नहीं है. बालू में पैसा है. कमाई का बड़ा जरिया है. थोड़ा पैसा हुआ नहीं कि ट्रक या ट्रैक्टर निकल गया. पैसा से पैसा बनने लगा. इसे पैसा बनाने का कारखाना भी कह सकते हैं. चार महीने पहले बालू घाट पर हुई छापेमारी के दौरान एक करोड़ पकड़ा गया था. राजनीति और बालू के बीच एक मजबूत रिश्ता है. इस रिश्ते के बारे में लोग बात करना नहीं चाहते. कहते हैं: छोड़िए उसको. इसे आप एक तरह का डर भी मान सकते हैं.
लेकिन जैसे ही रजौन चौकी गांव में घुसते हैं, पता चलता है कि यह जो तंत्र है, वह कैसे काम करता है. इस गांव के लोग खेती-किसानी से जुड़े हैं. पिछले साल का धान नहीं बिक पाया. पैक्स, धान मिल और बिचौलियों का ऐसा जाल है जो किसानों को न मरने देता है, न जीने देता है. किसानों से सात-आठ रुपये किलो धान मांगा जाता है. सरकारी रेट बोनस सहित 17 रुपये किलो है. गांव के सुभाष कहते हैं: सिस्टम फेल कर गया है. पांच-पांच हजार रुपया देकर कुछ किसानों को अपना धान बेचना पड़ा. बातचीत के दरम्यान कई किसान हमें घेर लेते हैं. सूरज सिंह कहते हैं: ई बुङिाए कि लोग आत्महत्या नहीं कर रहे हैं. ईश्वर ही हमको बचाये हुए है. कई युवा किसान अपना हाल सुनाने लगते हैं. सबकी एक ही कहानी है. पिछला धान बिका नहीं और नया धान आने वाला है. पर सूखे की मार भी है. रोपनी तो हो गयी, पर धान की फसल सूख रही है.
बीपीएल चावल का खेल
यह भी खेल कम त्रसद नहीं है. तीन रुपये किलो वाला चावल घर में आता है और वहां से दोबारा बाजार में पहुंच जाता है. इस चक्र का जिक्र सब करते हैं. समृद्ध लोगों के पास बीपीएल का कार्ड है. चावल तीन रुपये वाला लेते हैं और खाते हैं 25 रुपया वाला.
अब चुनाव : चुनाव का शोर सड़क पर है.
बैजू कहते हैं- ‘चुनावै के दिन पता चलतौ कि कहवां भोट देब.’ कुछ इस पर बात करना नहीं चाहते. कहते हैं: ‘का फैदा हौ.’ बीए तक पढ़ने के बाद अपने गांव रजाैन में दवा की दुकान चलाने वाले राजीव रंजन कहते हैं: ‘बदलाव होना चाहिए.’ हमने पूछा, लखीसराय या पटना में? वह कहते हैं:‘ इतना तो समझना पड़ेगा आपको.’