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गया : लालच दे दे के सब बहुते बेकुफ बनाया, अबरी न बनेंगे

सुबह के साढ़े छह बज रहे थे. गया जंकशन पर रोज की तुलना में काफी कम पैसेंजर दिखे. कारण-गांधी जयंती के अवसर पर छुट्टी थी. जब स्टेशन पहुंचा, तो गया-पटना पैसेंजर भी खाली ही थी. जितनी सीटें लगभग उतने ही लोग भी. दस से पंद्रह मिनट में ट्रेन खुली. पहले तो ट्रेन के अंदर शांति […]

सुबह के साढ़े छह बज रहे थे. गया जंकशन पर रोज की तुलना में काफी कम पैसेंजर दिखे. कारण-गांधी जयंती के अवसर पर छुट्टी थी. जब स्टेशन पहुंचा, तो गया-पटना पैसेंजर भी खाली ही थी. जितनी सीटें लगभग उतने ही लोग भी. दस से पंद्रह मिनट में ट्रेन खुली.

पहले तो ट्रेन के अंदर शांति थी. कोई मोबाइल में इयरफोन लगा कर गाना सुनने में मशगूल था, तो कोई ठंडी हवा में झपकी ले रहा था. इसी बीच पास की सीट पर अखबार पढ़ रहा एक युवक बोल उठा, खाली इ (नेता) सब लालचे देगा, करेगा कुछ नहीं. शायद युवक का यह कथन चुनावी चर्चा को शुरू करने के लिए काफी था.

युवक के कथन पर सामने वाली सीट पर बैठा एक व्यक्ति, जो मखदुमपुर का रहनेवाला था, ने फौरन कहा, लालच में फंसते हो तब ना इ सब फंसाता है. दोनों की बातें सुन कर खिड़की के पास आमने-सामने की सीटों पर झपकी ले रहे दो व्यक्तियों की नींद खुल गयी. पहले तो लालच वाली बात अखबार के किस खबर से उठी, सब यह देखने में व्यस्त हो गये.

इसके बाद प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू हो गया. इस बार का चुनाव तो युवाओं पर है. हम लोग कोई लालच में नहीं आयेंगे. कोई पार्टी, कोई नेता रहे. लालच दे दे के सब बहुते बेकुफ (बेवकुफ) बनाया है. बरबाद कर के धर (रख) दिया है बिहार के सब. अबरी न होवे देना है. युवक जोश में अपनी बात कहे जा रहा था. इसी बीच ट्रेन चाकंद स्टेशन पर रुकती है.

डिब्बे में एक और सवारी आ गये. युवक की बातें सुन कर वह भी बोल पड़े, कोई फायदा है बाबू, का बदल दोगे. नेतवा सब तो उहे है. चुनाव आता है, तो सब टिकट के फेरा में कूद-फांद कर परटिया (पार्टी) बदल लेता है. इस नये सवारी का समर्थन डिब्बे में पहले से सवार लोगों ने भी किया. लोगों ने कई नेताओं के नाम उदाहरण के तौर पर गिना दिये. ट्रेन की रफ्तार के साथ बहस भी तेज होती रही. बहस की गंभीरता इतनी बढ़ गयी कि कई यात्रियों ने फोन भी काट दिया.

चरचा अब जाति-धर्म तक पहुंच गयी थी. पहले गया और जहानाबाद में पार्टियों व उम्मीदवारों के जातीय समीकरण पर बहस हुई. गाड़ी बेलागंज से खुल चुकी थी. यह टॉपिक शायद उस युवक (बाद में बातचीत के दौरान पता चला कि वह गया कॉलेज में पढ़ता है, अपने घर मखदुमपुर जा रहा था) को पसंद नहीं आया और वह फिर से अखबार पढ़ने में मशगूल हो गया. बाकी लोग अपने-अपने स्तर पर जातीय समीकरण को आधार बना कर प्रत्याशियों की जीत सुनिश्चित कराने में लगे थे. एही सबसे तो बरबाद हो गया बिहार, आप लोग सब चुनावे को जाति में लपेट देते हैं-यह वोलते हुए युवक ने आक्रमक अंदाज में बहस में वापसी की. उसने कहा, जब चुनाव आता है तब सब बैठ जाते हंै चरचा करने. फलना (फलां) जाति के नेता को टिकट मिला की नहीं, कौन जाति का केतना वोट है.

युवक के आक्रामक अंदाज को देख कर खिड़की के पास बैठे एक व्यक्ति ने हंसते हुए कहा, अच्छा तुम नेता बनना, तो इ सब खत्म कर देना. इस बात पर आसपास के लोग हंसने लगे. युवक भी मुस्कुराया. तभी किसी ने बोला-बाबू कह तो ठीके रहे हैं, बिहार की राजनीति शुरू से ही जाति आधारित रही है. एतना जल्दी बदलाव लाना मुश्किल है. मेरी ओर इशारा कर

युवक ने कहा- इहे सब तो गलत सोच है ना, का भाई जी. नेता कोई जाति का होता है, की सबका होता है? फिर उसने कहा – अच्छा हमनी के पीढ़ी तैयार हो रहा है, ब्यबस्था (व्यवस्था ) बदल जायेगा आनेवाले समय में. ट्रेन मखदुमपुर स्टेशन में प्रवेश कर रही थी. युवक और साथ में दो अन्य व्यक्ति भी ट्रेन से उतरने को तैयार थे. तब तक चुनावी बहस भी समाप्त हो चुकी है.

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