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भारतीय ओज एवं तेज के अमर गायक
विनय कुमार सिंह लंबा कद, चौड़ा ललाट, दीर्घ-गोकर्ण, तेज बिखेरती आंखें! चेहरे पर प्रबल आत्मविश्वास, मनोहारी व्यक्तित्व और समुद्र-सी धीर-गंभीर आवाज! यही थी पहचान राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की. दिनकर राष्ट्रीय ओज एवं तेज के प्रखर उद्गाता हैं. काव्य गोष्ठियों में उनके काव्य-पाठ को सुनकर श्रोता भावावेश के चरम पर पहुंच जाते, लोगों की मुट्ठियां […]
विनय कुमार सिंह
लंबा कद, चौड़ा ललाट, दीर्घ-गोकर्ण, तेज बिखेरती आंखें! चेहरे पर प्रबल आत्मविश्वास, मनोहारी व्यक्तित्व और समुद्र-सी धीर-गंभीर आवाज! यही थी पहचान राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की.
दिनकर राष्ट्रीय ओज एवं तेज के प्रखर उद्गाता हैं. काव्य गोष्ठियों में उनके काव्य-पाठ को सुनकर श्रोता भावावेश के चरम पर पहुंच जाते, लोगों की मुट्ठियां भिंच जातीं. उनकी कविता से शोषण, दमन, अन्याय एवं उत्पीड़न से दो-दो हाथ करने की असीम ऊर्जा मिलती, तो देश के मान-सम्मान-स्वाभिमान के लिए मर मिटने की प्रबल प्रेरणा. दिनकर ने आत्म परिचय में कहा है- ‘कठिन निर्घोष हूं भीषण अशनि का/प्रलय गांडीव की टंकार हूं मैं/ सुनुं क्या सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा/ स्वयं युगधर्म की हुंकार हूं मैं’.
सचमुच दिनकर युगधर्म की हुंकार थे.
राष्ट्र के जन-मन की सुप्त चेतना को जागृत कर कर्तव्य बोध करानेवाली हुंकार! सन् 1962 के चीनी आक्रमण में देश की अस्मिता के रौंदे जाने के कारण जनमानस को झकझोरनेवाले कवि की हुंकार फूट पड़ती है- ‘छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये/ मत झुको अनय पर, भले व्योम कट जाये/ दो बार नहीं यमराज कंठ धरता है/ मरता है जो, एक ही बार मरता है/ तुम स्वयं मरण के मुख पर चरण धरो दे! जीना है तो मरने से नहीं डरो रे!! ‘(परशुराम की प्रतीक्षा : 1963)
दिनकर ने स्वयं को युग का चारण कहा है.
युग के किसी कालखंड में राष्ट्र की गौरवशाली उपलब्धियों को यह चारण संपूर्ण ओजस्विता के साथ स्वर देता है- ‘सदियों से ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी/ मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है/ दो राह, समय के रथ का धर्धर नाद सुनो/ सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ (जनतंत्र का जन्म : 26 जनवरी 1950) दुनिया गवाह है कि जब कभी संसार के इस सबसे बड़े जनतंत्र पर विपदा के बादल छाए, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है-दिनकर का उदघोष लोकतंत्र के पहरूओं के लिए जीवन मंत्र बना. आपातकाल से संघर्ष के दौरान लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने लोकशाही को तानाशाही के चंगुल से उबारने के लिए यही नारा दिया- ‘सिंहासन खाली करो…’ ऐसी है दिनकर की पंक्तियों की प्रेरणा और ताकत.
दिनकर यथास्थितिवादी नहीं हैं.
लोकहितों की उपेक्षा पर वे सत्ताधीशों को लताड़ते हैं. 26 जनवरी 1950 को जनतंत्र की विरूदावली गानेवाला युग चारण जब देखता है कि तंत्र जन की ओर से मुख मोड़ रहा है तो सन् 1953 आते-आते दिनकर का अक्रोश बरस पड़ता है- ‘सात वर्ष हो गये राह में अटका कहां स्वराज? अटका कहां स्वराज, बोल दिल्ली तू क्या कहती है? तू रानी बन गयी, वेदना जनता क्यों सहती है?”…. भारत धूलों से भरा/ भारत आंसुओं से गीला/भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में/ दिल्ली में तो खूब ज्योति की चहल-पहल/पर भटक रहा सारा देश घने अंधेरे में’.
यहां सामाजिक-आर्थिक विषमता है, वहां संघर्ष है. जहां संघर्ष है, वहां है अशांति! लेकिन शांति की प्राथमिक शर्त क्या? दिनकर कुरूक्षेत्र में लिखते हैं- ‘शांति नहीं तब तक/ जब तक सुख-भाग न नर का सम हो/ नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो…’ कुछ समझ न पाता रहस्य यह क्या है/ जाने भारत में बहती कौन हवा है/ गमले में उगे सुरम्य सुघड़ है/ धरती के पेड़ दीन-दुर्बल हैं/ कब तक यह वैषम्य समाज सहेगा/ किस तरह होकर यह देश रहेगा?’
दिनकर समय से आगे सोचनेवाले मनीषी हैं. सन् 1967 में बंगाल के सुदूर उत्तरी छोर पर नक्सली हिंसा का विस्फोट हुआ नक्सलबाड़ी में, लेकिन दिनकर ने 1963 में ही इसकी पूर्व चेतावनी दे दी थी. जिसके संदेश आज अधिक प्रासंगिक हैं-‘पूछो कुबेर से कब स्वर्ण वे देंगे? यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे? तूफान उठेगा, प्रलय वाण छूटेगा/ है जहां स्वर्ण, बम ख्यात वहीं फूटेगा!’ (परशुराम की प्रतीक्षा)
सार्वजनिक जीवन में आज सर्वाधिक गिरावट है. ठकुरसुहाती के वशीकरण मंत्र का अवलंबन कर चील-कौए भी शिखर पर चढ़ जा रहे हैं. कोई दल अपवाद नहीं, लेकिन पतन की शुरुआत तो नेहरू युग में ही हो चुकी थी. इस भ्रष्ट प्रवृत्ति को लताड़ने में दिनकर का विद्रोही तेवर कैसे चूक सकता था? देखिए- ‘चोरों के हैं हितू, ठगों के बल हैं/ जिनके प्रपंच से पलते पाप सकल हैं/ जो छल-प्रपंच सबको प्रश्रय देते हैं/ या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं/…
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है’. (परशुराम की प्रतीक्षा)
विश्मय होता है कि हुंकार, कुरूक्षेत्र, रश्मिरथी, या परशुराम का प्रतीक्षा का कठोर कवि उर्वशी में इतना कोमल! ‘इंद्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है/ सिंह से बांहें मिलाकर खेल सकता है/ फूल के आगे वही असहाय हो जाता/ शक्ति के रहते हुए भी निरूपाय हो जाता’. उर्वशी पर दिनकर को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला, लेकिन दिनकर का महत्व पुरस्कारों से आगे है.
काव्य जगत में धूम मचानेवाले राष्ट्र कवि ने गद्य के क्षेत्र में भी लोहा मनवाया. संस्कृति के चार अध्याय की भूमिका स्वयं पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लिखी. इसकी प्रशस्ती में प्रसिद्ध क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त ने कहा कि अगर दिनकर ने कविता की एक पंक्ति भी नहीं लिखी होती, तो भी यह कृति उनको अमर बनाने के लिए पर्याप्त है.
राष्ट्र के मन की आवाज को दिनकर-सा बुलंद स्वर देनेवाला कवि कभी-कभी ही जन्म लेता है. इसलिए दिनकर राष्ट्रकवि हैं.
(लेखक भाजपा प्रदेश कार्यसमिति के सदस्य हैं)
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