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एक-दूसरे को पटकनी के लिए नये दावं
औरंगाबाद जिले की ओबरा सीट का इतिहास उतार-चढ़ाव भरा रहा है. 1990 में यहां से समाजवादी पृष्ठभूमि वाले रामविलास सिंह ने जीत हासिल की थी तो उसके बाद के चुनाव में भाकपा (माले) के राजाराम सिंह लगातार दो टर्म यहां से जीते. पर 2005 के फरवरी और अक्तूबर में हुए चुनाव में राजद ने बाजी […]
औरंगाबाद जिले की ओबरा सीट का इतिहास उतार-चढ़ाव भरा रहा है. 1990 में यहां से समाजवादी पृष्ठभूमि वाले रामविलास सिंह ने जीत हासिल की थी तो उसके बाद के चुनाव में भाकपा (माले) के राजाराम सिंह लगातार दो टर्म यहां से जीते. पर 2005 के फरवरी और अक्तूबर में हुए चुनाव में राजद ने बाजी मार ली थी. उसके बाद, यानी 2010 के चुनाव में यहां के वोटरों ने अप्रत्याशित फैसला सुनाया. उस चुनाव में कभी दारोगा रहे सोमप्रकाश ने बतौर निर्दलीय चुनाव में जीत हासिल कर ली थी.
उनके चुनाव की वैधता का मामला अदालत में गया. इस लिहाज से भी ओबरा का नाम बार-बार आता रहा. इस बार क्या होगा? इस सवाल पर 16 अक्तूबर को यहां के वोटर मुहर लगा देंगे. लेकिन, उसके पहले लड़ाई के कई चरण बाकी हैं. उम्मीदवारों के चयन से लेकर सामाजिक समीकरणों को साधने की रणनीति बनायी जा रही है. आज पढ़िए ओबरा सीट के बारे में.
राज्य के अन्य विधानसभा क्षेत्रों की भांति औरंगाबाद के ओबरा विधानसभा क्षेत्र में भी चुनाव का शोर सुनाई पड़ने लगा है. हर पार्टी अपने-अपने हिसाब से अपने अभियान में लगी हुई हैं. चुनावी प्रतिस्पर्धा में सबसे आगे निकलने की कोशिश में बसपा ने काफी पहले ही अपने उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी थी.
ओबरा विधानसभा क्षेत्र के उम्मीदवार के रूप में पार्टी ने रामावतार चौधरी का नाम पक्का कर रखा है. उसी के नक्शे-कदम पर चलते हुए भाकपा-माले ने अपने दो बार विधायक रहे राजाराम सिंह को भी मैदान में उतार दिया है. हालांकि बाकी दल भी अपनी तैयारी में लगे हैं, पर भाकपा-माले और बसपा उम्मीदवारों ने इस बीच मैदान में राजनीतिक सरगर्मी बढ़ा दी है. वैसे, जो मैदान में दिख रहे हैं उनके अतिरिक्त जो अभी तक मैदान में कूदे नहीं हैं, वे भी अपने-अपने हिसाब से निशाने साध रहे हैं.
कांटे का होगा मुकाबला
माना जा रहा है कि आसन्न विधानसभा चुनाव में भी ओबरा में कांटे की टक्कर होगी. सत्तारूढ़ महागंठबंधन और विरोधी एनडीए, दोनों एक-दूसरे को चुनावी मैदान में धूल चटाने की प्रतिबद्धता के साथ अपने-अपने दावं चल रहे हैं. जद यू ने यह सीट राजद के लिए छोड़ी है, तो भाजपा ने अपने सहयोगी दल रालोसपा को यह सीट दी है. ओबरा का जो सामाजिक ताना-बाना है, वह पड़ोसी विधानसभा क्षेत्रों में भी वोटिंग ट्रेंड को प्रभावित करता है.
दारोगाजी बने विधायक
पिछली बार ओबरा में हुए विधानसभा चुनाव में सोमप्रकाश ने बाजी मारी थी. पर, राजनीतिक विवाद ने कानून का रास्ता अख्तियार किया और पिछले चुनाव में जीत-हार का मसला अदालत जा पहुंचा.
मामले की सुनवाई करते हुए पटना हाइकोर्ट ने ओबरा विधायक की विधायकी पिछले वर्ष समाप्त कर दी थी. पर, सोमप्रकाश ने इस फैसले को स्वीकार नहीं किया. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में मामले को चुनौती दी और अंतत: अपने लिए राहत पाने में सफल हो गये. चंद दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाइकोर्ट के फैसले को स्थगित करते हुए उनकी विधायकी बहाल कर दी है. याद रहे कि सोमप्रकाश पहले पुलिस की नौकरी कर रहे थे. दारोगा हुआ करते थे. अपनी नौकरी छोड़ कर उन्होंने चुनाव का रास्ता पकड़ा था और बतौर निर्दलीय उम्मीदवार उन्होंने सफलतापूर्वक 2010 में ओबरा विधानसभा क्षेत्र का चुनाव जीत लिया था. उन्होंने सत्तारूढ़ जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के प्रत्याशी प्रमोद सिंह चंद्रवंशी को हराया था.
अपने-अपने हैं दावे
ओबरा सीट पर जातिगत समीकरण के साथ-साथ अन्य कई फैक्टर भी काम करते है. वोटों की संख्या के हिसाब से इस क्षेत्र को यादव, कोइरी व भूमिहार बहुल माना जाता है. मुस्लिम ,वैश्य व अन्य मतदाता भी ठीक-ठाक संख्या में हैं. वैसे, अगर जातीय हिसाब से ओबरा के अतीत पर नजर डाली जाये, तो पता चलता है कि इस सीट के प्रतिनिधित्व का सर्वाधिक अवसर यादव समुदाय के लोगों को मिला है.
हालांकि 1995 व 2000 में भाकपा-माले के टिकट पर राजाराम सिंह ने इसका प्रतिनिधित्व किया था. वह कोइरी समुदाय से आते हैं. 2005 में यहां राजद को अवसर मिला था. उस वर्ष के दोनों ही चुनावों में. 2010 में एनडीए की लहर होने के बावजूद यहां के लोगों ने एक निर्दलीय उम्मीदवार को विधानसभा पहुंचाया. जदयू को हार का सामना करना पड़ा था.
चर्चित सीट है ओबरा
औरंगाबाद जिले में पड़नेवाली यह विधानसभा सीट महत्वपूर्ण जाती है. क्योंकि, राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से इस इलाके को अहम माना जाता है. नये सिरे से हुए परिसीमन के बाद रामविलास सिंह ने इस क्षेत्र का तीन बार प्रतिनिधित्व किया था. वह राज्य मंत्रिमंडल में भी जगह पाये. भाकपा-माले के टिकट पर चुनाव जीत कर राजाराम सिंह ने भी विधानसभा में दो बार ओबरा का प्रतिनिधित्व किया. पिछली बार यहां हुआ चुनाव भी काफी दिलचस्प वातावरण में हुआ और सबकी निगाहें यहां के चुनाव परिणाम पर टिकी थीं.
सिंचाई का संकट बरकरार
ओबरा विधानसभा क्षेत्र की बड़ी आबादी कृषि कार्य से जुड़ी है. मुख्य रूप से परंपरागत खेती होती है. इस बीच, प्रयोग हो रहे हैं, फिर भी धान, गेहूं, मकई और सब्जी आदि की खेती प्रमुख रूप से होती है. यहां के किसानों को अब तक सिंचाई की अच्छी सुविधा नहीं मिल सकी. इलाके से सोन नहर गुजरती है, लेकिन नहर की शाखाएं दुरुस्त नहीं हैं. इसे दुरूस्त किये जाने की मांग होती रहती है, पर उस पर कोई गौर नहीं फरमाता. इस वजह से किसानों को क्षति होती रहती है.
सोन नहर व उसकी शाखा नहरों के अंतिम छोर तक पानी नहीं पहुंच पाता. इससे बार-बार पानी की कमी सें फसलें बर्बाद होती हैं. नेता जी लोग जहां-तहां बयानबाजी कर अपनी जिम्मेवारियों से हाथ धो लेते हैं. इससे ज्यादा कुछ होता नहीं है. सोन नहर के किनारे की सड़क भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है. कभी इन पर गाड़ियां चली करती थीं. धान व गेहूं की सरकारी स्तर पर खरीदारी और वाजिब कीमत न मिलना भी एक प्रमुख समस्या है.
ओबरा विधानसभा क्षेत्र में दाउदनगर को रोहतास जिले के नासरीगंज से जोड़ने के लिए सोन नदी पर पुल बन रहा है. यह पुल बनते ही पूरे विधानसभा क्षेत्र की तसवीर तो बदलेगी ही, पड़ोसी जिलों को भी काफी फायदे होंगे.
माना जा रहा है कि इससे इलाके में व्यावसायिक गतिविधियों को बल मिलेगा. पर्यटन के लिहाज से भी फायदे हो सकेंगे. इस पुल के जरिये गया-बोधगया से बनारस की दूरी कम तो होगी ही, रास्ता भी सहज-सरल हो जायेगा. उधर, दाउदनगर में बना अनुमंडल अस्पताल चालू हो गया है. यह लंबे समय से लोगों की मांग में शामिल था. हालांकि अब तक इसका पूरा फायदा नहीं मिल रहा है. क्योंकि यहां दो ही डॉक्टरों से अभी तक काम चलाया जा रहा है.
जिले की मांग अब तक पूरी नहीं
दाउदनगर को जिला बनाने का मुद्दा आज भी अपनी जगह पर कायम है. ओबरा विधानसभा क्षेत्र के लोगों की यह मांग अत्यंत पुरानी है. इसे लेकर लंबे समय से आंदोलन चल रहा है.
बड़े पैमाने पर यहां के लोगों ने इसके लिए हस्ताक्षर अभियान चलाया. दाउदनगर, हसपुरा, गोह और ओबरा को मिला कर दाउदनगर को जिला बनाने की मांग तब और जोर पकड़ लेती है, जब यहां मुख्यमंत्री को आना होता है. इसी तरह मंत्री और मुख्यमंत्री के आगमन के साथ ही इस इलाके में खुदवां और डिहरा को ब्लॉक बनाने की मांग उभरने लगती है. हसपुरा के पास देवकुंड को भी ब्लॉक को बनाने का मुद्दा यहां गरमाता रहा है.
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