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जनप्रतिनिधियों ने बढ़ा ली है जनता से अपनी दूरी

रामचंद्र सिंह पूर्व विधायक, रफीगंज रामचंद्र सिंह सीपीआइ के प्रदेश के प्रमुख नेताओं में से हैं. 1995 के विधानसभा चुनाव में वह औरंगाबाद जिले की रफीगंज सीट से पहली बार सीपीआइ के टिकट पर विधायक चुने गये थे. श्री सिंह कहते हैं, 1995 में सीपीआइ एवं आरजेडी के साथ गंठबंधन था और लालू प्रसाद मुख्यमंत्री […]

रामचंद्र सिंह
पूर्व विधायक, रफीगंज
रामचंद्र सिंह सीपीआइ के प्रदेश के प्रमुख नेताओं में से हैं. 1995 के विधानसभा चुनाव में वह औरंगाबाद जिले की रफीगंज सीट से पहली बार सीपीआइ के टिकट पर विधायक चुने गये थे.
श्री सिंह कहते हैं, 1995 में सीपीआइ एवं आरजेडी के साथ गंठबंधन था और लालू प्रसाद मुख्यमंत्री थे. तब चुनाव में करीब एक लाख रुपये खर्च हुए थे. 20 हजार रुपये पार्टी से मिले थे एवं बाकी पैसे जनता ने चंदे के रूप में दिया था. वह कहते हैं, पहले जनता से पार्टियों को काफी सहयोग मिल जाया करता था.
कोई पैसा देता, तो कोई बोरे भर कर चावल और दाल ही चंदा के रूप में दे देता था. आज की तरह कार्यकर्ताओं को जबरदस्ती नहीं जोड़ा जाता था. खुद-ब-खुद लोग जुड़ते जाते थे. बिना किसी लालच के चुनाव में तन, मन एवं धन से लगे रहते थे. 1995 में चुनाव प्रचार के शुरुआती दिनों में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था. रफीगंज के पोगर गांव में कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा दो प्रचार गाड़ियां जला दी गयी थीं. फिर भी कार्यकर्ताओं का जोश कम नहीं हुआ. कोई पैदल, तो कोई साइकिल से निकल पड़ा. सबने जी तोड़ कर मेहनत की और परिणाम जीत के रूप में सामने आया.
श्री सिंह कहते हैं, आज का चुनाव ईमानदार व्यक्तियों के लिए रहा ही नहीं है. केवल पैसों वालों के लिए है चुनाव. इस स्थिति के लिए जनता भी जिम्मेवार भी है. पहले जनता चंदा देती थी और आज जनता चंदा लेने लगी है. पैसे के बिना कोई बात तक करने को तैयार नहीं होता. नेता चाहे जैसा भी हो, जनता उम्मीद करती है कि वह उसे पैसे देगा. शराब बांटेगा. मुफ्तखोरी करायेगा.
जनता, जो मतदाता भी है, तात्कालिक लाभ पर ही ज्यादा ध्यान दे रही है. उसे इस बात से मतलब कम ही रह गया है कि जो पैसे देकर चुनाव जीत लेगा, वह आगे चल कर कुछ करेगा या नहीं. पहले जातिवाद का असर इतना गहरा नहीं था.
अब तो अलग-अलग जातियों के अलग-अलग नेता हैं और उस नेता के पीछे उनकी जाति के लोग खड़े हैं. अब तो विधायक भी जनता से मिलने की जरूरत नहीं मानते. जानते हैं कि वोट देनेवाले तो बस पैसे की बात करेंगे. कहा जा सकता है कि जनप्रतिनिधियों ने खुद भी अपनी दूरी जनता से बढ़ा ली है.’

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