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बजी रणभेरी, सत्ता का समर तेज

बिहार विधानसभा चुनाव की तिथियों के एलान के बाद राजनीति अब नये दौर में प्रवेश कर चुकी है. वैसे, राज्य की सियासी पार्टियां दो महीने से चुनाव के मोड में आ चुकी हैं. अब बिहार की किस्मत रेखाएं आम वोटरों को लिखनी-गढ़नी है. बहारहाल, 2010 में जब विधानसभा चुनाव हो रहे थे, तब राजनीति समीकरणों […]

बिहार विधानसभा चुनाव की तिथियों के एलान के बाद राजनीति अब नये दौर में प्रवेश कर चुकी है. वैसे, राज्य की सियासी पार्टियां दो महीने से चुनाव के मोड में आ चुकी हैं.
अब बिहार की किस्मत रेखाएं आम वोटरों को लिखनी-गढ़नी है. बहारहाल, 2010 में जब विधानसभा चुनाव हो रहे थे, तब राजनीति समीकरणों का आकार कुछ दूसरा था. पांच साल बाद बिहारी वोटरों के सामने सियासी पार्टियां नये गंठबंधनों के साथ सामने होंगी.
राजनीतिक समीकरणों में आया यह बदलाव सामाजिक समीकरणों को भी अभिव्यक्त कर पायेगा? वस्तुत: राजनीतिक पार्टियां सामाजिक समीकरणों को साधने में पीछे नहीं रहना चाहतीं. साथ में उनके पास विकास नामक अस्त्र भी है. इसमें दो राय नहीं कि बिहार का यह चुनाव कई वजहों से भिन्न किस्म का होने जा रहा है.आज पढ़िए, राज्य की मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य को सामने लाती यह रिपोर्ट .
अजय कुमार
बिहार में वोट की तारीखों का इंतजार खत्म होने के साथ ही चुनावी समर एक नये फेज में प्रवेश कर गया. अलग-अलग गंठबंधनों और पार्टियों की तैयारी संबंधी गतिविधियां भी अचानक तेज हो गयीं. कुछ गंठबंधनों ने अपनी सीटों का बंटवारा कर लिया है, तो कुछ को अभी यह टास्क पूरा करना बाकी है.
अब उम्मीदवारों के चयन पर सबका जोर होगा. सियासी पार्टियां उम्मीदवारों की लिस्ट को अंतिम आकार देने की ओर बढ़ चली हैं. इसके पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आरा, भागलपुर, मुजफ्फरपुर और गया में परिवर्तन रैली हुई तो पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में महागंठबंधन की ओर से स्वाभिमान रैली ने चुनावी फिजां में उबाल ला दिया. चुनाव तार ीखों की घोषणा के बाद सत्ता संघर्ष अब आर-पार की लड़ाई में तब्दील होने का इंतजार कररहा है.
सब कुछ बदला-बदला होगा : बिहार का यह चुनाव सामाजिक-राजनीतिक परतों के आयाम खोलने वाला साबित होगा. पिछले चुनाव में जो महारथी साथ थे, इस बार वे अलग-अलग शिविर में दिखायी देंगे. यह बड़ा बदलाव होगा. यह राजनीतिक बदलाव सामाजिक समीकरणों को किस हद तक प्रभावित करने में कारगर होता, इसकी परीक्षा भी इस चुनाव में होनी है.
जहां तक सवाल बीते चुनाव का है, तो 2010 में जदयू व भाजपा एक साथ थे तो राजद और कांग्रेस अलग-अलग दूसरी ओर. भाकपा, माकपा और भाकपा (माले) जैसी वाम पार्टियां भी अपनी स्वतंत्र हैसियत के साथ चुनाव मैदान में थीं. हालांकि कुछ सीटों पर उनके बीच तालमेल भी हुआ था. इस चुनाव में बड़ा और बुनियादी बदलाव यह होगा कि जदयू, राजद और कांग्रेस एक प्लेटफार्म पर होंगे तो भाजपा, लोजपा, रालोसपा और हम दूसरी ओर.
इन पार्टियों के गंठबंधनों के बीच सत्ता की लड़ाई तीखे रूप में वोटरों के सामने आ चुकी है, जबकि अभी चुनाव की पूरी लड़ाई बाकी है. बिहार पैकेज, बिहार को बीमारू बताने, डीएनए प्रकरण जैसे मुद्दे यह आभास दिलाने के लिए काफी है कि लड़ाई कितनी तीखेपन के साथ लड़ी जानी है.
दरअसल, इन दोनों गंठबंधनों की दावेदारी सामाजिक आधारों को अपने-अपने पक्ष में बताने के उनके तर्क पर टिकी है. महागंठबंधन को भरोसा है कि सामाजिक न्याय की ताकतें उसके साथ होंगी, तो एनडीए को अपने पारंपरिक आधारों के अलावा अन्य सामाजिक समूहों का साथ मिलने का विश्वास है.
समर में कौन होगा किधर : बिहार की राजनीति में पहली बार छह वामपंथी पार्टियां एक साथ होकर चुनाव लड़ेंगी. यह भी रेखांकित करने वाली घटना है. इन छह पार्टियों में भाकपा, माकपा, माले, फारवर्ड ब्लॉक, एसयूसीआइ और आरएसपी मिलकर संयुक्त वाम दलों का विकल्प देना चाहती हैं.
बीते चुनाव में वाम पार्टियों को गंभीर धक्के से गुजरना पड़ा था क्योंकि विधानसभा में उसकी मौजूदगी अब तक न्यूनतम स्तर तक पहुंच गयी थी. हालांकि यह भी तथ्य है कि वाम पार्टियों के वोट प्रतिशत में भी क्रमिक रूप से गिरावट दर्ज की जाती रही.
इस चुनाव में वाम दलों की एकता किस रूप में अपनी ताकत दिखायेगी, इसकी भी परीक्षा होगी. वाम दलों का आधार ग्रामीण अंचलों में भूमिहीन मजदूरों, छोटे किसानों, अत्यंत पिछड़ी जातियों व दलित समुदाय के बीच रहा है. बीते कुछ सालों में इन आधारों के बीच क्षरण हुआ है. वाम दल वोटों में हिस्सेदारी बढ़ाते हैं, तो उसका नुकसान उन मध्यमार्गी दलों को हो सकता है जो सामाजिक न्याय के वोटों पर नजर लगाये हुए है.
उधर, चुनावी सरगर्मी के ठीक पहले महागंठबंधन से समाजवादी पार्टी ने खुद को अलग कर लिया. अब वह सभी सीटों पर चुनाव लड़ेगी. महागंठबंधन के साथ रही एनसीपी ने भी अपना अलग रास्ता अख्तियार करने के संकेत दिये हंै. इस घटनाक्रम से महागंठबंधन को वोटों में बिखराव का भले बड़ा खतरा न हो, पर इससे गैर एनडीए-गैर महागंठबंधन का मोरचा तो खुल ही गया है.
लड़ाई में छोटी-छोटी शक्तियों की खास भूमिका नकारी नहीं जा सकती. इधर, बसपा ने सभी 243 उम्मीदवारों को उतारने का निश्चय किया है. उत्तरप्रदेश से सटे इलाकों में बसपा की पहचान एक हद तक रही है. समाजवादी पार्टी और बसपा के दो-चार विधायक विधानसभा में पहुंचते रहे हैं. हालांकि इन दोनों पार्टियों के विधायक टूटकर दूसरे दलों में शामिल भी होते रहे हैं.
इन पर भी रहेगी नजर : राजद से बाहर हुए सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने जन अधिकार पार्टी बनायी है तो पूर्व केंद्रीय मंत्री नागमणि ने समरस समाज पार्टी का गठन किया है.
पप्पू यादव कोसी के इलाके में अपनी शक्ति एकजुट करेंगे. भाजपा के साथ उनके बेहतर रिश्तों के खास मायने हैं. जाहिर है कि वह महागंठबंधन को परेशान करने का हर नुस्खा आजमायेंगे. लालू प्रसाद के साले साधु यादव भी चुनाव में अपनी भूमिका तलाश रहे हैं.
उन्होंने गरीब जनता दल सेक्यूलर नाम से नयी पार्टी लांच की है. वह भी छोटे दलों के साथ तीसरा मोरचा बनाने की संभावनाएं देख रहे हैं. हालांकि उसका कोई खाका अब तक सामने नहीं है. इसके अलावा भी अलग-अलग नारों के साथ करीब आधा दर्जन राजनीतिक पार्टियां बन चुकी हैं. सभी सरकार बनाने में अपनी भूमिका निभाने का दावा कर रहे हैं. पर उनके इन दावों की हकीकत चुनाव परिणाम के बाद सामने आयेगी.
पैकेज, पैसा और राजनीति : यों तो महागंठबंधन और एनडीए ने बिहार के विकास को अहम मुद्दा बनाया है.दोनों ही गंठबंधनों की नजर में विकास का सवाल उनके नजरिए के तहत बिहार को नयी ऊंचाई दे सकता है. इसके बरअक्स पैकेज की राजनीतिक शुरू हुई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जहां राज्य के लिए सवा लाख करोड़ के पैकेज का एलान किया तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का दावा है कि पहले से चली आ रही योजनाओं के पैसों को पैकेज का हिस्सा बताया जा रहा है. मार्के की बात है कि दोनों ही विकास के पहलू को ओझल नहीं होने देना चाहते हैं.
आम बिहारियों में विकास व प्रगति को लेकर भूख पैदा हुई है. चुनाव में हिस्सा निभाने वाले करीब 33 फीसदी वोटर युवा हैं और उनकी अपेक्षा बेहतर जीवन स्तर तथा रोजगार से जुड़ी हुई है. जानकार मानते हैं कि पैकेज विकास का मूल अवयव नहीं हो सकता. यह तात्कालिक उपाय जरूर है. ठोस और दीर्घकालिक विकास के लिए उसके अनुरूप ही कदम उठाये जाने की जरूरत होगी.
पहला हाइटेक प्रचार वाला चुनाव : यह चुनाव हाइटेक चुनाव प्रचार के लिहाज से पहला होने जा रहा है. प्रचार के नये तकनीक का इस्तेमाल हर गंठबंधन बढ़-चढ़कर कर कर रहा है. सूचना तकनीक के इस्तेमाल के मामले में यह चुनाव भिन्न प्रकार का है. राजनीतिक दलों ने वार रूम का नया कॉन्सेप्ट अपनाया है. जीपीएस सिस्टम वाले रथ वोटरों के बीच दौड़ाये जा रहे हैं तो एसएमएस, फेसबुक, ट्विटर वगैरह का इस्तेमाल आम वोटरों तक अपनी बात पहुंचाने में की जा रही है.
यह पहला ऐसा चुनाव होने जा रहा है, जो चुनाव तारीखों के एलान से करीब दो महीने पहले से ही लड़ा जा रहा है. बड़े पैमाने पर होर्डिग्स, बैनर, कटआउट, फ्लैक्स का इस्तेमाल किया जाने लगा. सच कहा जाये तो सियासी पार्टियां दो महीने पहले ही चुनाव के मोड में आ गयीं.
2010 में इस हिसाब-किताब पर बनी थी विधानसभा
पार्टी लड़े जीते वोट प्रतिशत
जनता दल 141 115 22.5
भाजपा 102 91 16.49
राजद 168 22 18.84
लोजपा 75 03 6.74
कांग्रेस 243 04 8.37
भाकपा 56 01 1.28
भाकपा माले 104 00 1.79
बसपा 239 00 3.21
एनसीपी 171 00 1.82
जेएमएम 41 01 0.61
सपा 146 00 0.55
माकपा 30 00 0.71
निर्दलीय 1342 06 13.22

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