संजय झा
मुंबई
सोचता हूँ अपने स्वाभिमान में परिवर्तन कैसे लाऊं ? या ऐसा परिवर्तन कैसे लाऊं कि मेरा स्वाभिमान कायम रहे. बिहारी होने की वजह से रैली, रैला, महारैली, महारैला सबसे उब चूका हूं! रैली सिर्फ भीड़ की राजनीति है. गुलामी से निकलने के लिए आजादी की लड़ाई में हमने जिन हथियारों का इस्तेमाल किया था, रैली उन्ही में से एक है. आज हम आज़ाद हैं और प्रतिरोध की यह भाषा अब आउट – डेटेड है.
मीडिया और सोशल नेटवर्किग के महाजाल में आज जागरूकता नये आयाम में है. शर्म की बात है कि आज भी हमें अपने अधिकारों के लिए भीड़ जमा कर प्रतिरोध के स्वर में एक होना पड़ता है. ऐसी रैलियों में जनता की हालत क्या होती है? उन्हें राजनीतिक दल देश भर में सामूहिक कल्याण के नाम पर अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करते हैं. हम विकास के नाम पर कब तक अपनी इज्जत की रैली निकालते रहेंगे ?
चेतना से घर बैठे जो निर्णय ले सकते हैं, उसके लिए अपनी सुरक्षा, सम्मान और मानवीय अधिकारों को दावं पर लगा कर स्वार्थी नेताओं के महत्वकांक्षा की आग को कब तक बुझाने के काम आयेंगे ? इस सवाल पर सोचने की जरूरत है कि हम कब तक भीड़ बने रहेंगे ? मैदान भरने की राजनीति सिर्फ कुरसी भरने की राजनीति होती है. ऐसी राजनीति से बिहार में विकास और विजन अब तक नहीं आया. इससे कुछ लोगों की राजनीति जरूर चमकती है. इस सवाल पर शिद्दत से सोचने का वक्त आया है. बिहार विधानसभा के चुनाव के पहले बिहार के लोगों खास कर युवाओं को इस मुद्दे पर सोचना होगा.
बिहार के युवा बिहार में क्यों नहीं हैं? बिहार को ओल्ड एज होम किसने बनाया ? बिहार में जो बचे हुए युवा हैं, वे दिशाहीन क्यों हो गये? किसी गांव में दवा की दुकान उतनी पास नहीं मिलेगी, जितनी अब शराब की दुकान मिल जायेगी. गांवों के दसों द्वार पर शराब की दुकान को बंद करने की सख्त जरु रत है.
अन्यथा भावी पीढ़ी बर्बाद होती जायेगी. इसे हर हाल में चुनाव का मुद्दा बनाना चाहिए. अगर राजनीतिक दल पहल नहीं करते हैं, जो जनता को इस मुद्दे को उठाना चाहिए. बिहार का सांस्कृतिक इतिहास गौरवपूर्ण रहा है, लेकिन इस क्षेत्र के विकास की दिशा में भी समय के साथ बदलाव की जरूरत है. मैं महसूस करता हूं कि सरकार की देखरेख में बिहार के सभी 38 जिलों में एक सांस्कृतिक आंदोलन की सख्त जरूरत है. एक ऐसा सांस्कृतिक आंदोलन, जो लोगों की सोच में बदलाव लाये. उन्हें अपनी माटी के प्रति समझ बढ़ाए.
बिहार में रह रहे और प्रवासी बिहारियों को बिहार का भगदड़ देखने के लिए पटना जाने की जरूरत नहीं है. अपने दिल में झांकें, भगदड़ दिख जायेगा. और इन समस्याओं के भगदड़ से निकलने के लिए भी हमें अपने दिल में ही झांकना होगा. नये रास्ते बनाने होंगे.
बिहार को आप किस रूप में देखना चाहते हैं और इस चुनाव से आपकी क्या उम्मीदें हैं ? इस सवाल से अब हर बिहारी उब चुका है. भले एक तरह कूआं और दूसरी तरफ खाई है, मगर विधानसभा चुनाव बहुत कुछ तय करने का अवसर है. इसे न गंवाएं.