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चुनाव में धनबल रोकना हकीकत या फसाना

राजीव कुमार विधानसभा चुनाव की सरगर्मी तेज होने के साथ ही इसमें इस्तेमाल होने वाले धनबल को लेकर भी चिंता जाहिर की जाने लगी है. चुनाव की घोषणा के पहले ही प्रचार पर होने वाले खर्च को सार्वजनिक करने की मांग की जा रही है. पर खर्च के बारे में कोई भी दल आरोप-प्रत्यारोप के […]

राजीव कुमार
विधानसभा चुनाव की सरगर्मी तेज होने के साथ ही इसमें इस्तेमाल होने वाले धनबल को लेकर भी चिंता जाहिर की जाने लगी है. चुनाव की घोषणा के पहले ही प्रचार पर होने वाले खर्च को सार्वजनिक करने की मांग की जा रही है. पर खर्च के बारे में कोई भी दल आरोप-प्रत्यारोप के दायरे से नहीं निकल रहा है.
पार्टियां खर्च का ब्योरा नहीं दे रही हैं. बिहार ही नहीं, देश का कोई ऐसा हिस्सा नहीं है जहां चुनाव को प्रभावित करने के लिए धनबल का इस्तेमाल नही हो रहा हो. अधिकतर प्रत्याशी अपने व्यय खर्च के हलफनामें में धोषणा करते हैं कि चुनाव आयोगकी ओर से निर्धारित अधिकतम खर्च सीमा का उन्होंने आधा ही खर्च किया, पर खर्च कई गुना अधिक होता है. जाहिर है कि हलफनामे के बाहर खर्च किया हुआ धन वस्तुत: अवैध खर्च होता है.
एडीआर के विश्लेषण के अनुसार 80 प्रतिशत उम्मीदवारों द्वारा महज पचास प्रतिशत वैध खर्च के ब्योरे दिये जाते हैं, लेकिन अवैध खर्चे का कोई हिसाब ही नहीं होता है, जो मुख्यत: शराब, ड्रग्स, हेरोईन, पेड न्यूज इत्यादि के रूप में मतदाताओं को प्रभावित करने के तौर पर इस्तेमाल में लाये जाते हैं.
आयोग ने संसदीय क्षेत्र के लिए 70 लाख रुपये और विधानसभा के लिए 40 लाख रुपये खर्च की सीमा तय की है. यह सब जानते हैं पैसे वाले उम्मीदवार निर्धारित सीमा से अधिक खर्च करते हैं. वहीं राजनीतिक दलों के खचोर्ं पर अंकुश नहीं है. जानकारी मांगे जाने पर राजनैतिक दलों द्वारा कूपन की बिक्री, स्वैच्छिक चंदों को आय का मुख्य स्त्रोत बताया जाता है.
प्रथम दृष्टया चुनाव में चंदे के पैये से इतना बड़ा खेल संभव ही नहीं है. राजनीतिक दलों के पास पैसों का केवल बीस फीसदी हिस्सा चंदे से आता है. बाकी कहां से आता है ? यह रहस्य बना रहता है. पार्टी भी उसी उम्मीदवार को टिकट देती है जिसके पास पैसा हो. पार्टियां उम्मीदवारों पर दबाव डालती हैं कि कहीं से भी पैसा लाओ, जिससे चुनाव जीता जा सके. धनबल आज सबसे जिताऊ हथियार बन चुका है.
एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले पांच सालों में होने वाले सभी तरह के चुनावों में 1,50,000 करोड़ से अधिक खर्च होने का अनुमान है. हर पांच वर्ष पर यह राशि दोगुनी हो जाती है. इसमें आधे पैसे अज्ञात स्त्रोतों से खर्च होते हैं. इसमें 20 प्रतिशत यानी 30 हजार करोड़ 16 वें लोकसभा चुनाव में खर्च होने का अनुमान लगाया गया है.
वक्त आ गया है कि चुनावी खर्च की सीमा को सख्ती से लागू किया जाये. चुनाव सुधार के लिए बनी विभिन्न सामितियों ने अपनी सिफारिश में स्टेट फंडिग की वकालत की है.
लेकिन यह तभी संभव होगा, जब प्रत्याशी और राजनीतिक दलों के खातों को पारदर्शी बनाया जायेगा.उन खातों की जांच की मुकम्मल व्यवस्था भी करनी होगी. इद्रजीत गुप्ता समिति तथा विधि आयोग ने खचरें को लेकर कई महत्वपूर्ण सुझाव दिये हैं. पिछली सरकारें जिस प्रकार चुनाव फंडिंग को लेकर निर्वाचन आयोग के प्रस्तावों को ठंढे बस्ते में डालती रही है, इससे सरकार की लोकतांत्रिक प्रतिबद्वता पर भी सवाल खड़े होते हैं.
इस संदर्भ में आयोग ने पार्टियों से कहा है कि जनता से जो भी वायदे किये जायें, उसके खर्च व संसाधनों के बारे में भी बतायें. सुप्रीम कोर्ट की एक व्यवस्था के बाद आयोग ने यह दिशा-निर्देश जारी किया है.
इसके पीछे राजनीतिक दलों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने की मंशा छुपी है, ताकि सियासी पार्टियां बगैर किसी तार्किक आधार के जनता से वायदा न करें. लेखक नेशनल इलेक्शन वाच, बिहार के समन्वयक हैं.

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