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चुनाव बाद घर वापसी का माहौल बनेगा!
लालबहादुर ओझा नोएडा से देश के गरीब राज्यों में विकास दर के मामले में दूसरे पायदान पर, बेरोजगारी में सबसे आगे, गरीबी में तीसरे नंबर पर तो गंभीर अपराध दर में दूसरा नंबर. स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव, लेकिन शिशु मृत्यु दर में कमी. बिहार में चुनाव आ गये हैं. गोलबंदी हो रही है. […]
लालबहादुर ओझा
नोएडा से
देश के गरीब राज्यों में विकास दर के मामले में दूसरे पायदान पर, बेरोजगारी में सबसे आगे, गरीबी में तीसरे नंबर पर तो गंभीर अपराध दर में दूसरा नंबर. स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव, लेकिन शिशु मृत्यु दर में कमी.
बिहार में चुनाव आ गये हैं. गोलबंदी हो रही है. अलग अलग तरीके से आंकड़ों को परोसा और परखा जा रहा है. जुमले गढ़े जा रहे हैं. उम्मीद और आशाएं धरती पर पांव रख रही हैं. क्या इस बार बदलेगा बिहार? चुनाव उम्मीदों का मौसम है. बिहार से बाहर रह रहे लोग हर बार उम्मीद लगाते हैं.
इस बार भी लगा रहे हैं- किस दिशा में जायेगा बिहार?
आजादी के बाद की कुछ सरकारों को छोड़ दें तो पार्टियां भले लंबे समय तक सत्ता में रही हों, मुख्यमंत्री पद की स्थिति आयाराम -गयाराम वाली ही थी. बिहार की बदहाली की नींव यहीं पड़ी. आंकड़ों पर नजर डालें तो विनोदानंद झा (1961) के बाद से औसतन हर साल मुख्यमंत्री बदलते रहे हैं. ऐसे में राज्य का औंधे मुंह गिरना स्वाभाविक था. परंतु नवंबर, 2005 के बाद से नीतीश कुमार की सरकार ने यह भरोसा दिलाया कि बिहार की जमीन पर विकास की बात हो सकती है.
पूरा कायाकल्प न सही लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इस सरकार के स्थिर दौर में बिहार का मौसम बदला, सरकार जमीन पर दिखाई देने लगी. तो इस चुनाव से पहली उम्मीद यही है कि जो सरकार हो स्थिर सरकार हो. अस्थिरता और अराजकता के दौर से निकलकर बिहार एक उम्मीद के दौर में आया है. यह उम्मीद तभी बची रह सकती है जब स्थिर सरकार हो.
जिन आंकड़ों की चर्चा हो रही है, उस पर सवाल उठाए जा सकते हैं. बहुत आसानी से यह कह कर नकारा जा रहा है कि विकास दर आर्थिक वृद्धि का संकेतक है न कि विकास का. यह वृद्धि तो एकांगी है, अमीर-गरीब की खाई को और गहरा करने वाली है या कि यह विकास समावेशी नहीं है. यह तो रिसाव का सिद्धांत (ट्रिकल डाउन) है. आदि . परंतु दुनिया में विकास का यह एक मापदंड तो है न. अभी तो हर तरह इसी को हासिल करने और दिखाने की होड़ लगी है.
दूसरी उम्मीद यह है कि इस चुनाव का एजेंडा भी विकास ही रहे. हम आर्थिक वृद्धि के संकेतक को मानेंगे, मानव विकास संकेतक को मानेंगे या खुशहाली का संकेतक अपनायेंगे या विकास का कोई नया पैमाना बनायेंगे. सभी पक्षों से उनका रोडमैप जाना जाये. विकास के नये मॉडल पर
बहस हो.
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि प्रमुख मुद्दों पर चुनाव मैदान में उतरे दोनों-तीनों धड़ों की खुली बहस हो. आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक मुद्दों पर खुल कर बातचीत हो और तब लोग तय करें कि किस दिशा में जाना है.
विकास का एजेंडा ही बिहार को तंग घेरे (जातियता, सांप्रदायिकता, नकारात्मकता आदि) से निकालेगा. बिहार से बाहर रहने वाला हर शख्स बिहार विधानसभा चुनाव की तरफ बड़ी आशा के साथ देख रहा है- क्या इस चुनाव से उनके घर वापसी का माहौल बनेगा ? पलायन पूरी तरह रुकेगा?
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