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पहचान से हिस्सेदारी तक की लड़ाई

बिहार में दलित पहचान का सवाल 19 वीं सदी के अंतिम दशक में उभरने लगा था. सामाजिक जागृति के कई चरण होते हैं और दलित समुदाय बदलाव के इन पड़ावों से कभी दूर नहीं रहा. अछूत कही जाने वाली इन जातियों ने अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ाई लड़ी तो पहचान के सवाल को दबने नहीं दिया. […]

बिहार में दलित पहचान का सवाल 19 वीं सदी के अंतिम दशक में उभरने लगा था. सामाजिक जागृति के कई चरण होते हैं और दलित समुदाय बदलाव के इन पड़ावों से कभी दूर नहीं रहा.
अछूत कही जाने वाली इन जातियों ने अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ाई लड़ी तो पहचान के सवाल को दबने नहीं दिया. आबादी के मुताबिक सत्ता या सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी का प्रश्न तीस और चालीस के दशक में ही सामने आने लगा था. पहले आम चुनाव, 1937 में निर्वाचित दलित विधायकों ने कांग्रेस सरकार में दो मंत्री बनाये जाने का प्रस्ताव पास किया था. उसके बाद ही श्रीकृष्ण सिंह मंत्रिमंडल में जगलाल चौधरी को कैबिनेट मंत्री और जगजीवन राम को संसदीय सचिव बनाया गया था. पढ़िए बिहार में दलित राजनीति की एक झलक.
राज्य में 14 फीसदी से ज्यादा आबादी वाली दलित जातियों के भीतर भी पहचान की छटपटाहट रही है. सामाजिक व राजनीतिक मोरचे पर इन जातियों की हिस्सेदारी नयी पहचान के साथ सामने आ रही है. हालांकि आर्थिक मोरचे पर इन जातियों की स्थिति दुश्वारियों से भरी हुई है और आबादी का बड़ा भाग खेतिहर भूमिहीन है.
कांग्रेस, मध्यमार्गी पार्टियों के अलावा दलित समुदाय नक्सलबाड़ी आंदोलन के दर्शन के जरिये अपनी मुक्ति की राह खोजने की कोशिश करता रहा है. इस क्रम में पुलिस और सामंती शक्तियों के उस पर सबसे ज्यादा हमले भी हुए. बिहार में हुए नरसंहारों में सबसे अधिक दलित मारे गये हैं. सामाजिक भेदभाव के सबसे ज्यादा शिकार इन्हें ही होना पड़ा.
पहचान की चाहत
दलित जातियों में पहचान की चाहत 19 वीं सदी के अंतिम दशक में मुखर होकर उभरी. 1912 में दूसरी अन्य जातियों के तरह ही दलित जातियों के भी संगठन सक्रिय हो गये थे. 1913 में दुसाध जाति की ओर से पटना, दरभंगा और मुंगेर में सभाएं की गयीं. उसी साल चमार जाति की ओर से सभाएं की गयीं. खास बात यह थी कि इन सभाओं में शराब छोड़ने, बहुविवाह की प्रथा समाप्त करने तथा मवेशियों को जहर देकर नहीं मारने का संकल्प लिया गया.
इसी तरह की जातीय सभाएं राज्य के दूसरे इलाकों में भी होती रहीं. यह जागृति डोम और मेहतर जातियों के अंदर भी जगी और इन जातियों की सभाएं उसी दौर में शुरू हो गयी थीं. पटना में डोम जाति की 1915 में हुई सभा में सभी तरह के बुरे कर्म छोड़ने का संकल्प लिया गया तो मेहतरों की हुई सभा में बाल विवाह को हतोत्साहित करने का फैसला किया गया.
दलित जातियों की सभाओं का मकसद आत्मगौरव हासिल करना था और इसके लिए जातीय एकजुटता को जरूरी माना गया. याद रहे कि उसी दौर में पिछड़ी जातियों के बीच जनेऊ आंदोलन चल रहा था.
उस आंदोलन में दलित, जिन्हें अछूत माना गया था, उनकी कुछ जातियां जनेऊ आंदोलन में शामिल थीं. दुसाध खुद को क्षत्रिय बता रहे थे तो चमार राम-अवतार काल के एक बहिष्कृत ब्राह्मण से अपना नाता जोड़ रहे थे. भुईया जाति के लोग अपने आपको जंगलों में रहने वाले ऋषि-मुनियों की संतान बता रहे थे. इन सब उपक्रमों का मकसद खुद को श्रेष्ठता की कतार में शामिल करना था.
कांग्रेस का कोलकाता अधिवेशन और दलितों के सवाल
दलित सवालों को लेकर चलने वाली गतिविधियों पर पहली बार 1917 में कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पास किया. यह प्रस्ताव कांग्रेस के कोलकाता अधिवश्ेान में पेश किया गया जिसमें कहा गया कि दलित वर्गो पर जो रूढ़ीगत अयोग्यताएं लगायी हुई हैं, उन्हें हटाने की जरूरत है. प्रस्ताव में कहा गया कि ये अयोग्यताएं अत्यंत अमानवीय और दमनकारी हैं.
इसके चलते उन्हें भारी कठिनाई और असुविधाएं सहनी पड़ती हैं. उसी सम्मेलन में सामाजिक छुआछूत, भेदभाव वगैरह को समाप्त करने के लिए जनमानस में इन बातों को ले जाने की अपेक्षा की गयी. सम्मेलन में कहा गया कि सभी को स्कूलों व संस्थाओं में प्रवेश पाने का अधिकार है.
वक्ताओं का मानना था कि इससे हमारी परंपराओं पर गौरव होगा. इस प्रकार उसी साल अस्पृश्यता निवारण कांग्रेस की कार्यसूची में शामिल हो गया. हालांकि इसके पहले से ही आर्य समाज की ओर से अछूतोद्धार के काम चल रहे थे. राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के साथ अछूतोद्धार का मसला भी चलता रहा. इस संदर्भ में महात्मा गांधी के अनेक गतिविधियों को इससे जोड़कर देखा जा सकता है. उन्होंने न सिर्फ लेख लिखे, बल्कि मंदिर में अछूतों के प्रवेश को लेकर कई जगहों पर पहलकदमी भी की.
कांग्रेस सरकार में मंत्री बनाये गये दो दलित
22 जुलाई 1937 को श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में बनी सरकार में दलित समुदाय के दो लोगों को मंत्री बनाया गया. इनमें जगलाल चौधरी को कैबिनेट मंत्री और जगजीवन राम को संसदीय सचिव बनाया गया. मालूम हो कि पूना पैक्ट के तहत बिहार विधानसभा में दलितों के लिए 15 सीटें आरक्षित थीं.
इनमें 14 पर कांग्रेस उम्मीदवारों की जीत हुई थी. कांग्रेस ने इन दलित विधायकों ने 14 फरवरी 1937 को अलग बैठक की. बैठक में प्रस्ताव पास किया गया कि कांगेस अगर मंत्रिमंडल बनाती है तो उसमें एक मंत्री और संसदीय सचिव दलित विधायकों से बनाये जायें. उसी बैठक में दलित व आदिवासियों के हितों के लिए एक विशेष विभाग बनाने का भी प्रस्ताव पास किया गया.
जाहिर है कि कांग्रेस की पहली सरकार में दलित जाति के दो विधायकों को मंत्री बनाया जाना अनायास नहीं था. इसके ठीक दो साल बाद 1939 में दलितों की हिस्सेदारी को लेकर दलित नेतृत्व में असंतोष भी प्रकट हुआ. यह असंतोष स्थानीय निकायों तथा सरकारी नौकरियों में वाजिब हिस्सेदारी नहीं मिलने को लेकर था. जिला बोर्ड के चुनाव में दलितों की हिस्सेदारी नहीं मिलने से उनका यह विरोध सार्वजनिक रूप से सामने आ गया था. इस सिलसिले में पांच अप्रैल 1939 को दलित नेताओं ने बैठक की और कांग्रेस नेतृत्व के प्रति अपनी नाराजगी जाहिर की.
कैसे बदला प्रतिनिधित्व
हिस्सेदारी के सवाल पर दलित नेता बेहद मुखर थे और आबादी के मुताबिक अपने प्रतिनिधित्व की मांग कर रहे थे. पर हिस्सेदारी नहीं मिलने की स्पष्ट नाराजगी 1967 के विधानसभा चुनाव में देखने को मिली. उस चुनाव में विधानसभा की कुल आरक्षित 45 सीटों में से कांग्रेस के विधायकों की संख्या 23 रही जबकि 22 सीटों पर विपक्षी दलों ने कब्जा जमा लिया था.
13 सीटों पर सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार चुनाव जीतने में कामयाब हुए थे. इस नतीजे का अर्थ साफ है कि दलित समुदाय पर कांग्रेस का प्रभाव कम हो चला था और उसकी जगह दूसरी राजनीतिक पार्टियां अपना स्थान बना रही थीं. कांग्रेस के साथ जुड़े दलित आधार में उसके बाद से क्षरण लगातार होता रहा.

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