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व्यापार बन गयी है राजनीति

बिहार विधानसभा में पांच बार काराकाट का प्रतिनिधित्व कर चुके वयोवृद्ध समाजवादी नेता तुलसी सिंह 1967 में पहली बार विधायक बने थे. यानी करीब पांच दशक पहले. सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में तब चुने गये थे. बेशक तब से अब तक गंगा में काफी पानी बह चुका है. चुनावी परिदृश्य में जमीन-आसमान के […]

बिहार विधानसभा में पांच बार काराकाट का प्रतिनिधित्व कर चुके वयोवृद्ध समाजवादी नेता तुलसी सिंह 1967 में पहली बार विधायक बने थे. यानी करीब पांच दशक पहले. सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में तब चुने गये थे. बेशक तब से अब तक गंगा में काफी पानी बह चुका है.
चुनावी परिदृश्य में जमीन-आसमान के बीच की दूरी जैसा फर्क आ गया है. पुराने दिनों को याद करते हुए तुलसी सिंह जी कहते हैं पहले चुनाव प्रजातंत्र के लिए होता था. चुनाव एक व्यक्ति के लिए उसके एक अत्यंत पवित्र व पुनीत नागरिक कर्त्तव्य के निर्वहन का साधन हुआ करता था.
तब, सही मायने में जनता अपना प्रतिनिधि चुनने के अवसर के रूप में चुनाव का उपयोग करती थी. जब वह चुनाव मैदान में जाया करते थे, उन्हें कभी पैसे की चिंता नहीं सताती थी. क्योंकि, पैसे को प्राथमिकता मिलती ही नहीं थी. तब चुनाव के मैदान में पैसे के दुरुपयोग का चलन नहीं था. लोग ऐसा करने की सोचते तक नहीं थे. हां, खर्च जरूर थे. पैसे खर्च होते ही थे.
लेकिन वह किसी भी तरह आज जैसे राजनीतिक निवेश के रूप में खर्च नहीं होते थे. सामान्य खर्च था. जनता ही चंदा देकर जुटा देती थी. क्योंकि, तब चंदा देनेवाले को अपने उम्मीदवार और नेता पर भरोसा होता था. वे अपने उम्मीदवार के प्रति सम्मान की भावना रखते थे. तब धन और ऐश्वर्य कहीं से भी लोकप्रियता के मानदंड को तय करने की स्थिति में नहीं थे.
लोग बहुत सामान्य तरीके से चुनाव प्रचार करते. तुलसी बाबू के मुताबिक, वह स्वयं भी साइकिल से प्रचार में निकलते थे. बहुत सहज तरीके से लोगों से मिलना होता था. फिजुल की बातें नहीं होती थीं. किसी को कोई लोभ-लालच नहीं होता था. कार्यकर्ता पैदल भी चलते थे और बैलगाड़ी से भी. कुछ कार्यकर्ता और समर्थक साइकिल का भी उपयोग कर लिया करते थे.
तब वही बहुत होता था. आज की तो स्थिति ही मत पूछिये. सवालिया लहजे में तुलसी बाबू कहते हैं कि आज नेता पर जनता का भरोसा है भी क्या? कोई नेता नीति-सिद्धांत की बातें करता भी है? अपने चुनाव की बातें याद करते हुए तुलसी बाबू कहते हैं कि जब वह मैदान में थे, तब डॉ राम मनोहर लोहिया ने उन्हें चुनाव खर्च के बाबत पांच हजार रुपये दिये थे. बाकी कुछ पैसे लोगों ने ही जुटा दिये थे.
बस, उन्हीं पैसे से चुनाव लड़े और जीते भी. राजनीति में निरंतर आ रही तेज गिरावट को देख उन्होंने समय से पहले ही राजनीति से तौबा करने का निर्णय किया. संन्यास ले लिया. कहते हैं, ‘पूरे मैदान में ध्यान से देखिये. अब न समाजवादी बचे हैं और न जनसंघी. कांग्रेसी भी बचे नहीं हैं. जो मैदान में दिख रहे हैं, वे सब के सब व्यापारी हैं. बस व्यापारी.’

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