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अब बूथ तक वंचितों की पहुंच आसान हुई

राजेंद्र प्रसाद सिंह,पूर्व विधायक,शेखपुरा शेखपुरा विधानसभा से सन 1985 में कांग्रेस पार्टी से चुनाव लड़ कर पूर्व सांसद स्व. राजो सिंह के हाथों पराजित हुए राजेंद्र प्रसाद सिंह वर्तमान चुनावी व्यवस्था में निष्पक्ष मतदान की व्यवस्था से राहत महसूस कर रहे हैं. पर जातीय ध्रुवीकरण, परिवारवाद और राजनीति के व्यवसायीकरण से काफी दुखी है. जब […]

राजेंद्र प्रसाद सिंह,पूर्व विधायक,शेखपुरा

शेखपुरा विधानसभा से सन 1985 में कांग्रेस पार्टी से चुनाव लड़ कर पूर्व सांसद स्व. राजो सिंह के हाथों पराजित हुए राजेंद्र प्रसाद सिंह वर्तमान चुनावी व्यवस्था में निष्पक्ष मतदान की व्यवस्था से राहत महसूस कर रहे हैं. पर जातीय ध्रुवीकरण, परिवारवाद और राजनीति के व्यवसायीकरण से काफी दुखी है. जब वह चुनाव लड़े थे, बाहुबल और पैसे के बल पर बूथ कब्जे का चलन चरम पर था. कुल मतदान केंद्रों में सौ पर लीड किये और 80 बूथों में मतदान से पहले रात्रि के समय ही बूथ कब्जा कर लिया गया था. आठ दिनों तक मतगणना रुका रहा और जब मतगणना हुई तब सीधे स्व. राजो सिंह के जीत का एलान कर दिया. आज वोट की परिस्थितियों में बदलाव निष्पक्ष मतदान को साकार कर रहा है. उन्होंने कहा कि राजनैतिक पार्टियों के अंदर आज कार्यकर्ताओं का आधार खत्म हो चुका है. बाहुबली और पूंजीपति उम्मीदवार उतारने की होड़ मची है. ऐसे में लोकतांत्रिक व्यवस्था आज लगातार कमजोर पड़ती जा रही है. राजनैतिक पार्टियों के अंदर चुनाव और प्रत्याशियों के चयन में

नीति नहीं देखी जाती है. कर्मठ और ईमानदार छवि के कार्यकर्ता राजनीति से दूर हो रहे हैं. अपराध और धन बल के दबदबे ने राजनीति को दिशाहीन और पंगु बना दिया है. इससे न तो राजनीति और न ही समाज का भला होने वाला है. पहले के चुनाव में टिकट पाना ही बड़ी चुनौती होती थी. 1985 के दौर में जब चुनावी माहौल था, तब नैतिक रूप से इतनी गिरावट नहीं आई थी. हालांकि कतिपय बाहुबली और दबंग लोग गरीबों को वोट डालने से रोकने के लिए तरह-तरह के उपाय करते थे. तब की तुलना में आज स्थिति इस रूप में बदली है कि गरीब लोग भी बूथों तक पहुंचते हैं. पहले जहां चुनाव में लाख रुपये खर्च होते थे, आज वह करोड़ों में पहुंच गया है. दुर्भाग्य से मौजूदा दौर के चुनाव में मुद्दों पर चरचा नहीं होती. चुनाव जीतने के लिए जातिवाद, धर्मवाद और अर्थवाद का सहारा लिया जाता है. इससे राजनीति की दिशा भटक गयी है. यही कारण है कि चुनाव जीतने के बाद जनप्रतिनिधियों की प्रतिबद्धता कहीं और हो जाती है.

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