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अल्पसंख्यक वोटों को अप्रासंगिक बनाने का दौर

मोहम्मद सज्जाद, आधुनिक इतिहास के प्रध्यापक, अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सटिी मौजूदा दौर की राजनीति में कोशिश की जा रही है कि अल्पसंख्यकों को ही अप्रांसगिक बना दिया जाये. एक ऐसा माहौल खड़ा किया गया है कि बगैर अल्पसंख्यक वोटों के भी राजनीतिक दल सरकार में जा सकते हैं. हाल में महाराष्ट्र चुनाव के दौरान यह बात […]

मोहम्मद सज्जाद, आधुनिक इतिहास के प्रध्यापक, अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सटिी

मौजूदा दौर की राजनीति में कोशिश की जा रही है कि अल्पसंख्यकों को ही अप्रांसगिक बना दिया जाये. एक ऐसा माहौल खड़ा किया गया है कि बगैर अल्पसंख्यक वोटों के भी राजनीतिक दल सरकार में जा सकते हैं. हाल में महाराष्ट्र चुनाव के दौरान यह बात दिखी जब न तो कांग्रेस और न ही भाजपा ने अल्पसंख्यक वोटों के लिए कोई खास कोशिश की. गैर भाजपा दल भी अल्पसंख्यकों की बात करने से परहेज कर रहे हैं, तो इसका सीधा अर्थ है कि उन्हें बहुसंख्यक वोटों के बिगड़ने का खतरा महसूस हो रहा है. ऐसे में अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व का मसला कौन उठायेगा?

अगर आप इस मामले को उठाते भी हैं तो मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य ऐसा नहीं है जिसमें आपकी बात सुनी जायेगी. यह लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खतरनाक है. मगर सवाल यह है कि इसके बारे में सोचेगा कौन? धर्मनिरपेक्षता की बात ऐसे माहौल में कौन करेगा? इससे धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को भी खतरा महसूस हो रहा है. मुङो लगता है कि मौजूदा हिन्दुस्तान का समाज, राजनीति और संस्थाएं सांप्रदायिक आधार पर दबाव में काम कर रही हैं. यह दबाव इन पर कितने वक्त तक कायम रहेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता.

हां, अगर इन सबके बीच आर्थिक मुद्दों को उठाया जाये, तो संभव है कि सांप्रदायिक राजनीति का असर कम हो. लेकिन हम देख रहे हैं कि जैसे ही रोजगार, शिक्षा, आवास जैसी बुनियादी परेशानियों पर बात उठायी जा रही है, सांप्रदायिकता से जुड़े मुद्दों को सामने लाया जा रहा है. चाहे वह लव जेहाद हो अथवा घर वापसी का मामला. इसी से जुड़ी एक चीज जो दिख रही है कि मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के लिए जब अल्पसंख्यक वोट अप्रासंगिक हो रहे हैं, तो एमआइएम जैसी ताकतों को जगह मिल रही है. यह भी अच्छी स्थिति नहीं है.

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