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विकल्पहीनता में मुसलिम समाज

इर्शादुल हक, मुसलिम मामलों के जानकार मुसलिम सियासत का मौजूदा दौर संकट से गुजर रहा है. सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि इस समुदाय के पास कोई लीडर नहीं है. ऐसा लीडर तो इस समाज को नेतृत्व दे सके. इसके अभाव के चलते ही राज्य में मुसलिम सांप्रदायिकता का खतरा बढ़ता हुआ दिख रहा है. […]

इर्शादुल हक, मुसलिम मामलों के जानकार

मुसलिम सियासत का मौजूदा दौर संकट से गुजर रहा है. सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि इस समुदाय के पास कोई लीडर नहीं है. ऐसा लीडर तो इस समाज को नेतृत्व दे सके. इसके अभाव के चलते ही राज्य में मुसलिम सांप्रदायिकता का खतरा बढ़ता हुआ दिख रहा है. पूर्वाचल में एमआइएम जैसे संगठन का जलसा होने जा रहा है. मेरी समझ है कि अगर मुसलिम जमात को उसकी समस्याओं को कोई सुनने वाला होता, तो ऐसी नौबत नहीं आती. इस समुदाय को लगता है कि हिन्दू सांप्रदायिकता से बचने के लिए यही रास्ता ठीक है. यह नौबत मुसलमानों के बीच राजनैतिक विकल्पहीनता के चलते पैदा हुई है. उसके पास कोई विकल्प नहीं है. यह अच्छी स्थिति नहीं है. इसका असर इस रूप में सामने आयेगा कि राजनीति में उसका प्रतिनिधित्व वाजिब तरीके से नहीं मिलेगा. राजनैतिक विकल्प अधिक होते तो इस समुदाय की भागीदारी भी ज्यादा होती.

हिंदू समाज की तरह इस समाज में भी राजनैतिक चेतना का विकास हुआ है. आजादी के पहले और बाद के दौर तक मुसलिम सियासत पर सामंती ताकतों का अधिकार सा रहा. लेकिन राजनैतिक चेतना आने के साथ ही हिस्सेदारी की चाहत बढ़ी है, मगर यह चाहत राजनैतिक विकल्पहीनता के चलते बढ़ नहीं पा रही है. किसी गंठबंधन या पार्टियों को लगता है कि मुसलमान समाज उसे वोट नहीं देगा तो जायेगा किधर? यह मानसिकता लोकतंत्रके लिए खतरा है.

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