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देश-दुनिया में कामयाबी की नयी इबारत गढ़ते आइआइटियन एंटरप्रेन्योर

तकनीकी क्रांति के दौर में देश में नये-नये स्टार्टअप सामने आ रहे हैं, लेकिन इनमें सबसे अधिक सफलता आइआइटी के इंजीनियरों को मिल रही है. नौकरी हासिल करने के दौर से आगे बढ़ते हुए ये आइआइटियंस जोखिम उठा रहे हैं और एंटरप्रेन्योर के क्षेत्र में देश-दुनिया में नये मुकाम हासिल कर रहे हैं. कैसे हो […]

तकनीकी क्रांति के दौर में देश में नये-नये स्टार्टअप सामने आ रहे हैं, लेकिन इनमें सबसे अधिक सफलता आइआइटी के इंजीनियरों को मिल रही है. नौकरी हासिल करने के दौर से आगे बढ़ते हुए ये आइआइटियंस जोखिम उठा रहे हैं और एंटरप्रेन्योर के क्षेत्र में देश-दुनिया में नये मुकाम हासिल कर रहे हैं. कैसे हो रहा है यह सब, जानिये आज के नॉलेज में..
दिल्ली : इंटरनेट के इजाद और पूरी दुनिया में उसके फैलाव के बाद कारोबार के तरीकों में व्यापक बदलाव आया है. इसने उद्योग और कारोबार को पहले के मुकाबले ज्यादा आसान बना दिया है.
शायद यह बड़ी वजह हो सकती है, जिससे उच्च स्तरीय तकनीकी शिक्षा हासिल प्रोफेशनल्स अब उद्योग व कारोबार में हाथ आजमा रहे हैं. देखा जा रहा है कि इंटरनेट और इससे जुड़ी अन्य तकनीकों की मदद से पिछले कुछ वर्षो में स्टार्टअप की रफ्तार एकदम से बढ़ गयी है.
देशभर के बड़े संस्थानों के आइआइटी एल्युमनाइ भी इस राह में आगे बढ़ चुके हैं. हाल ही में ‘यूनिकॉर्न क्लब’ द्वारा जारी की गयी सूची के अनुसार, एक बिलियन डॉलर (करीब 6,400 करोड़ रुपये) मूल्य की सात में से पांच भारतीय कंपनियों (तकनीक आधारित) के संस्थापक उद्यमी आइआइटियंस हैं.
क्या यह महज संयोग है कि इनका आइआइटियंस होना इनके उद्यम को सफल बनाने में मददगार साबित होता है? या आइआइटी से जुड़ा योगदान इन्हें सफल उद्यमिता की ओर ले जाता है, खासकर टेक्नोलॉजी सेक्टर में? हैदराबाद के स्टार्टअप ‘एप्प वाइरलिटी’ के सह-संस्थापक लक्ष्मण पपनई के हवाले से ‘क्वार्ज इंडिया’ की एक रिपोर्ट में इतिका शर्मा पुनीत ने लिखा है, ‘हां, यह सही है कि यदि किसी व्यक्ति पर आइआइटियंस होने का ठप्पा लगा है, तो उसे अनेक प्रकार की बाधाओं से निजात पाने में सहायता मिलती है.
खासकर यदि कोई आइआइटियंस अपने स्टार्टअप के आरंभिक चरण में हो, तो उसे इसका लाभ मिलता है.’ हालांकि, पपनई आइआइटियंस नहीं हैं और अपने अनुभव के आधार पर उनका कहना है, ‘हमारे यहां निवेश करनेवाले ज्यादातर लोग व्यक्ति को देखते हुए रकम दांव पर लगाते हैं.
वे आइडिया को ज्यादा तवज्जो नहीं देते हैं. ऐसे में आइआइटी ग्रेजुएट होना आपको एक निर्धारित वेलिडेशन दिलाता है. जबकि इसके उलट नॉन-आइआइटी उद्यमियों को निवेश या आत्मविश्वास हासिल करने के लिए पहले खुद को साबित करना होता है.’
आइआइटी-दिल्ली के एलुमनाइ और हेलियन वेंचर्स के पार्टनर रितेश बंगलानी का कहना है कि आइआइटी से आनेवाले उद्यमियों के लिए तीन चीजें उनके हित में होती हैं.
पहला, उनके साथ रोल मोडल होते हैं. दूसरा, उन्हें इस बात का कॉन्फिडेंस रहता है कि यदि उनका कारोबार असफल रहा तो उन्हें कहीं भी आसानी से कोई जिम्मेवारी मिल सकती है और तीसरा उनके साथ एलुमनाइ का एक मजबूत नेटवर्क है, जो उनकी सबसे बड़ी ताकत है.
उच्च स्तरीय फसल की क्रीम
देशभर में आइआइटी की प्रतिष्ठा सबसे ज्यादा है. इसकी एक बड़ी वजह यह है कि इन संस्थानों में देशभर के क्रीम स्टूडेंट ही चुन कर आते हैं. ‘इनसाइड हायर एड’ की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2014 में ज्वाइंट एंट्रेंस एग्जाम (जेइइ) में करीब 13 लाख छात्र शामिल हुए, जिनमें से अंतिम चरण तक महज 27,152 छात्रों को ही पहुंचने में सफलता हासिल हुई थी.
इससे यह समझा जा सकता है कि किस तरह से छात्र रूपी फसल की क्रीम चुन कर आती है आइआइटी में. पूरी चयन प्रक्रिया के दौरान इस बात का ख्याल रखा जाता है कि महज ऐसे छात्रों का ही चयन हो, जो आगे चल कर उच्च गुणवत्ता वाले इंजीनियर बन सकें और आइआइटीज की गरिमा कायम रहे.
व्यापक और मजबूत नेटवर्क
ओरियस वेंचर पार्टनर के संस्थापक रेहान यार खान का कहना है कि स्टार्टअप की सफलता के लिए उच्च कोटि के इंजीनियरिंग कार्यो की जरूरत होती है और आइआइटी इंजीनियरों के साथ उनका एक बड़ा नेटवर्क जुड़ा है, जिसे उनकी कामयाबी का बड़ा राज कहा जा सकता है.
इसमें केवल ज्ञान की बड़ी भूमिका नहीं होती, इसमें यह अहम भूमिका निभाती है कि आपकी पहुंच का दायरा कितना बड़ा है. चूंकि आप अच्छे संस्थान से उत्तीर्ण हैं, ऐसे में आपको बड़े संगठन भी मौका देते हैं. करीब दो वर्ष पहले अमित कुमार अग्रवाल जब ‘नोब्रोकर डॉट इन’ शुरू करना चाह रहे थे, उस समय उन्होंने आइआइटी कानपुर से जुड़े लोगों से संपर्क किया और उनसे सलाह मांगी. दरअसल, काम शुरू करते समय टेक्नोलॉजी के साथ ही मार्केटिंग और फाइनेंस जैसे अन्य कई मसलों पर विचार क रना होता है.
इसलिए उन्होंने ‘लिंक्डइन’ से जुड़े अपने मित्रों से यह पूछा कि किस प्रकार वे सही व्यक्ति तक पहुंच सकते हैं. इसके बाद उनके पास अनेक मित्रों और हितैषियों के फोन आने लगे, जो उन्हें बताते कि किस क्षेत्र से जुड़ा व्यक्ति किस तरह से उनकी क्या मदद कर सकता है.
इस प्रकार वे अपने साथ न केवल आइआइटी कानपुर, बल्कि आइआइटी बॉम्बे से भी लोगों को जोड़ने में सफल रहे. अग्रवाल का कहना है किकिसी आइआइटियंस से संपर्क करने पर अक्सर उसकी रैंकिंग जानने की कोशिश की जाती है. इससे उसकी प्रतिभा के बारे में जल्द पता लगाया जाता है. इस मामले में आइआइटी एलुमनाइ के पास ज्यादा विकल्प हैं.
अन्य समकक्ष संस्थानों से ज्यादा तवज्जो
हालांकि, बिड़ला इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड साइंस (बिट्स), नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी या दिल्ली टेक्नोलॉजीकल यूनिवर्सिटी जैसे देश के प्रमुख इंजीनियरिंग संस्थानों की डिग्री भी आइआइटी के समकक्ष ही मानी जाती है, लेकिन आइआइटी एलुमनाइ की संख्या ज्यादा होने के कारण इन्हें हर जगह ज्यादा तवज्जो मिलती है. और यह फैक्टर उस समय इनके हित में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जब ये लोग नया कारोबार शुरू करते हैं.
बिड़ला इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड साइंस के इंजीनियर और स्नेपडील के संस्थापकों द्वारा शुरू किये गये स्टार्टअप ‘गिगस्टार्ट’ के सह-संस्थापक अतीत जैन का मानना है कि अन्य प्रमुख संस्थानों के मुकाबले आइआइटी एलुमनाइ का नेटवर्क ज्यादा मजबूत है. आइआइटी की ब्रांड वैल्यू ज्यादा होने के साथ उनका जबरदस्त नेटवर्क उन्हें ज्यादा मौके मुहैया कराता है. इसके अलावा, इनके एलुमनाइ की संख्या भी अन्य प्रमुख संस्थानों के मुकाबले बहुत ज्यादा है.
अमेरिका में भी है इस तरह का ट्रेंड
भारत नहीं नहीं, बल्कि अमेरिका में भी यह ट्रेंड देखने में आ रहा है. सिलिकॉन वैली के मध्य में स्थित स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी का ही यदि हम उदाहरण देखें, तो उद्यमियों के लिए यह बेहद सफल साबित हुई है. वर्ष 2012 के एक अध्ययन के मुताबिक, स्टैनफोर्ड के उद्यमियों द्वारा स्थापित की गयी कंपनियां वैश्विक स्तर पर सालाना 2.7 खरब डॉलर का रेवेन्यू जेनरेट कर रही हैं.
इतना ही नहीं, वर्ष 1930 से अब तक इन्होंने 54 लाख नयी नौकरियों का भी सृजन किया है. इनमें कुछ बड़े नाम इस प्रकार हैं : गूगल के संस्थापक लैरी पेज और सरजेइ ब्रिन. सिस्को सिस्टम्स के सह-संस्थापक लियोनार्ड बोसेक और सैंडी लर्नर. पेयपल के सह-संस्थापकों में शामिल पीटर थिएल और केन हॉवेरी. ह्यूलेट पेकार्ड के बिल ह्यूलेट और डेव पेकार्ड.
दो आइआइटियंस, चार साल और ढाई अरब डॉलर का कारोबार
आइआइटी, बॉम्बे से इंजीनियरिंग ग्रेजुएट भवीश अग्रवाल और अंकित भाटी ने मिल कर ओला की स्थापना की, जिसे पूर्व में ओला कैब्स के तौर पर जाना जाता था. वर्ष 2011 में उन्होंने इस कंपनी की स्थापना की और अब तक ये देश के अनेक बड़े शहरों में छा गये हैं.
वर्ष 2015 तक इनकी योजना देश के 100 शहरों तक अपनी पहुंच कायम करने की है. महज चार साल पुरानी इस कंपनी ने अब तक बाजार से ढाई अरब डॉलर की उगाही की है. हालांकि, ओला कीशुरुआत करने से पहले अग्रवाल दो साल तक माइक्रोसोफ्ट रिसर्च में काम कर चुके हैं.
संस्थान का माहौल बनाता है कामयाब एंटरप्रेन्योर
समाज की बड़ी चुनौतियों को हल करने में टेक्नोलॉजी इंटरप्रेन्योर, इन्फॉरमेशन टेक्नोलॉजी का काफी उपयोग कर रहे हैं. हाल के वर्षो में कई युवा एंटरप्रेन्योर ने ऐसे मॉडल बनाये हैं, जो आम जिंदगी में लोगों के लिए काफी मददगार साबित हो रहे हैं.
जैसे-फ्लिपकार्ट, इ-कॉमर्स पोर्टल, हाउसिंगडॉटकॉम, ओला टैक्सी सर्विस आदि. इन कंपनियों के संस्थापक किसी न किसी अच्छे कॉलेज, ज्यादातर आइआइटी से पढ़े युवा हैं, जिनके आगे बढ़ने में उनके संस्थान का काफी योगदान है.
एंटरप्रेन्योरशिप के प्रति युवा छात्रों को बढ़ावा देने के लिए अच्छे संस्थान काफी मदद कर रहे हैं. इसके महत्व के बारे में पूर्व राष्ट्रपति डॉ कलाम ने भी अपने निबंधों और व्याख्यानों में बताया है. युवा पीढ़ी की सोच और अनुकूल माहौल मिल कर एक बड़ी कंपनी की नींव रखते हैं. उनकी सोच को प्रोत्साहित करने में कॉलेज की भूमिक महत्वपूर्ण होती है.
अच्छे कॉलेज में नामांकन राष्ट्रीय स्तर की प्रवेश परीक्षा द्वारा होता है. इन संस्थानों में कुशाग्र बुद्धिवालों को मौका दिया जाता है. यहां न केवल अच्छा शैक्षणिक माहौल मिलता है, बल्कि नयी परियोजनाओं पर भी काम करने के भरपूर मौके होते हैं.
इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान छात्र समस्याओं को समझने के साथ-साथ समाधान के लिए प्रोटोटाइप पर काम भी करते हैं. कैंपस छात्रों के समूह और विभिन्न संसाधनों के बीच सामंजस्य और सतत मूल्यांकन के लिए आदर्श मंच प्रदान करते हैं. यही कारण है ज्यादातर सफल कंपनियों के संस्थापक अपने काम की शुरुआत कॉलेज के दिनों में ही कर चुके होते हैं.
अच्छे संस्थानों के छात्रवासों में भी नये विचार पर काम करने के लिए अनुकूल माहौल होता है. यहां कई छात्र मिल कर चर्चा द्वारा अपने-अपने आइडियाज और नये विचारों को आयाम दे सकते हैं और एक व्यावहारिक समाधान के साथ उसका बिजनेस मॉडल भी सोच सकते हैं.
किसी भी स्टार्टअप का पहला दो-तीन वर्ष काफी अनिश्चित और जोखिम भरा होता है. उनके पास न तो कोई तैयार उत्पाद, न कोई बेहतरीन टीम, न ही कोई कार्यालय होता है. ऐसे में कैश फ्लो, प्रोडक्ट, मार्केट के बारे में समझ कम होती है. कॉलेज टाइम में स्टार्ट-अप के समय छात्रों का न तो कोई ज्यादा व्यक्तिगत खर्च होता है और न ही किसी प्रकार की देनदारियां होती हैं.
अब तो कुछ संस्थानों में एंटरप्रेन्योरशिप पर बकायदा कक्षाएं भी होती हैं. इसके साथ ही बिजनेस प्लान कंपीटिशन भी होते हैं और परिसर में समय-समय पर सेमिनार आदि द्वारा भी अच्छी नेटवर्किग का अवसर मिलता है. सफल उद्यमी हमेशा उतार-चढ़ाव में एक मार्गदर्शक के रूप में अच्छी सलाहें देता है.
भारत के तकनीकी संस्थानों से ज्यादा उद्यमी
इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी यानी आइआइटी में दाखिला पाना इतना मुश्किल क्यों समझा जाता है? इसका एक बड़ा कारण यह माना जा सकता है कि दुनिया की ज्यादातर एंटरप्रेन्योरियल अंडरग्रेजुएट यूनिवर्सिटीज में आइआइटी को सर्वाधिक बेहतर समझा जाता है. यहां तक कि प्रिंसटन, येल और कॉरनेल जैसी यूनिवर्सिटी से भी बेहतर.
पूंजी के उत्पादन के लिहाज से दुनिया की टॉप 50 यूनिवर्सिटी की नयी लिस्ट में आइआइटीज को चौथे स्थान पर रखा गया है. अमेरिका की एक प्राइवेट इक्विटी और वेंचर केपिटल रिसर्च फर्म ‘पिचबुक डाटा’ ने यह सूची तैयार की है, जिसमें वर्ष 2009 से जुलाई, 2014 के बीच दुनियाभर के उच्च शैक्षणिक पृष्ठभूमि वाले 13,000 से ज्यादा उन लोगों पर अध्ययन किया गया है, जिन्होंने डिग्री हासिल करने के बाद उद्यमशीलता को अपनाया.
‘टाइम्स हायर एजुकेशन वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैकिंग 2013-2014’ की रिपोर्ट के हवाले से ‘क्वार्ज इंडिया’ में नेल्सन विनोद मोसेज ने बताया है कि यूरोप, अमेरिका और चीन की यूनिवर्सिटी के सामने एकेडमिक मामले में भारतीय यूनिवर्सिटी कहीं नहीं ठहरते और भारत के आइआइटीज 351 से 400वीं रैंक के बीच आते हैं.
लेकिन जहां तक आइआइटीयंस के उद्यमी बनने का मसला है, तो इसमें वह काफी आगे हैं. इस अध्ययन के मुताबिक, 264 आइआइटीयंस में से 205 अपनी कंपनी स्थापित कर चुके हैं और उनकी कुल पूंजी 3.15 बिलियन डॉलर से भी ज्यादा है.

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