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बाबा आमटे की स्मृति-4 : मन के कवि और काम में कलाकार

– हरिवंश – एक बार वरोडा स्टेशन पर एक नवजात परित्यक्त बालिका मिली. लोग उसे उठा कर आश्रम में ले आये. बाबा ने तत्काल ‘गोकुल’ की स्थापना की, जिसमें ऐसे अनेक परित्यक्त बच्चे रहते हैं. बूढ़े लोगों के प्रति समाज में बढ़ती उपेक्षा-संवेदनहीनता को देख कर बाबा ने ‘उत्तरायण’ आरंभ किया. कोढ़ से प्रभावित बच्चों […]

– हरिवंश –
एक बार वरोडा स्टेशन पर एक नवजात परित्यक्त बालिका मिली. लोग उसे उठा कर आश्रम में ले आये. बाबा ने तत्काल ‘गोकुल’ की स्थापना की, जिसमें ऐसे अनेक परित्यक्त बच्चे रहते हैं. बूढ़े लोगों के प्रति समाज में बढ़ती उपेक्षा-संवेदनहीनता को देख कर बाबा ने ‘उत्तरायण’ आरंभ किया. कोढ़ से प्रभावित बच्चों के लिए भी यहां स्कूल है.
पोस्ट ऑफिस, बैंक, मुक्तांगन (थियेटर) सब कुछ ‘आनंदवन’ में हैं. सब में काम करनेवाले यहीं के रोगी हैं. पिछले वर्ष महज सब्जी बेच कर आश्रमवासियों ने 60 हजार रुपये अर्जित किये. दूध से प्रतिवर्ष तकरीबन दो लाख रुपये की आय होती है. इस पूरी व्यवस्था में पग-पग पर आत्मनियंत्रण और स्वअनुशासन है.
देश-समाज में बाबा को आज जो बात खटकती है, वह है ‘संपन्न लोगों का दरिद्र मन’. ‘दरिद्र लोगों का संपन्न हृदय’, उन्हें आह्लादित करता है. आश्रम के बीमार लोगों के मस्तिष्क स्वस्थ हैं, लेकिन बाहर स्वस्थ शरीर में बीमार मन बसा हआ है. बाबा मूलत: मन के कवि हैं और काम में कलाकार. विज्ञान से बाबा को परहेज नहीं है. कृषि उत्पादन में आधुनिक यंत्रों का खूब इस्तेमाल होता है.
‘आनंदवन’ में आज अनेक केंद्र हैं. उच्च शिक्षा के लिए नागपुर विश्वविद्यालय से संबद्ध ‘आनंद निकेतन कॉलेज ऑफ आर्ट्स. साइंस, कामर्स, है. यहां 1500 छात्र पढ़ते हैं. बाबा कहते हैं : अस्वस्थ लोगों ने अपने श्रम के बल इस कॉलेज का निर्माण कर स्वस्थ समाज को उपहार दिया है. ‘आनंद निकेतन कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर’ में बीएससी (कृषि) तक पढ़ाई होती है. आनंद बुनियादी विद्यालय, आनंद अंधा विद्यालय, अंधों, अपंगों और बहरों के लिए एक अलग विद्यालय और संधि निकेतन भी आश्रम में है.
300 एकड़ जमीन में आधुनिक ढंग से खेती होती है. एग्रो इंडस्ट्रीज के तहत नाना प्रकार के सफल प्रयोग-काम हो रहे हैं.
आइआरडीपी और बीस सूत्री के बदले आश्रम की आर्थिक प्रणाली पूरे देश में फैल जाये, तो अर्थव्यवस्था की कायापलट हो सकती है. फिलहाल प्रतिदिन ‘आनंदवन’ में सात टन अनाज की खपत है.
‘उत्तरायण’ और ‘स्नेह सांवली’ में काफी तादाद में बुजुर्ग और बूढ़े निवास करते हैं. आश्रम की प्रमुख गतिविधियों में आनंद मित्र मेला और वन महोत्सव कार्यक्रम हैं. सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए प्रसिद्ध मराठी लेखक व्यंग्यकार पीएल देशपांडे की पहल पर ‘मुक्तांगन’ बना हआ है.
1962 में चीन के साथ लड़ाई के दौरान कोढ़ियों ने आसपास के गरीबों में नाटक का आयोजन किया और राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में 2000 रुपये दान दिये.
योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष एमएस स्वामीनाथन ने आश्रम की विकास नीति की मुक्त कंठ से सराहना की है और देश के विकास के लिए इसे श्रेष्ठ माना है.
बाबा का पौरुष-व्यक्तित्व अद्भुत है. उनका व्यक्तित्व ‘रेडियेट’ करता है. समाज से लांछित और फेंके गये कूड़े-करकट से बाबा ने भारत के आधुनिक तीर्थ ‘आनंदवन’ को सजाया-संवारा है. वह बार-बार कहते हैं कि देश में करोड़ों लोग बेरोजगार और स्वस्थ हैं. अगर स्वस्थ लोग इतनी बेहतर दुनिया का सृजन कर सकते हैं, तो इन बेकार लोगों को राष्ट्र निर्माण में क्यों नहीं लगाया जा सकता!
विदेशों में छपी चार पुस्तकों में बाबा के अद्भुत कामों की चर्चा है. ‘द अनबीटेन ट्रैक’ (आर्थर ट्रानवसकी), फ्रेंच में ‘लि दियाकनि, लिसेमई’, (ज्यां बुले), इको सोसाइटी (राबर्ट जीजे हर्ट) और ग्राम टर्नर की ‘मोर दैन कानकरर्स’.
लेकिन इस मुल्क का प्रशासन आश्रम की गतिविधियों पर निगाह रखता है. मामूली ट्रांसपोर्ट अधिकारी, आयकर अधिकारी, स्थानीय अधिकारी आश्रम के कामों में अड़ंगे डालते हैं. देश के विभिन्न कोनों से जो भूले-भटके पत्रकार यहां पहंचते हैं, वे आग्रह करते हैं कि बाबा के 38 वषा के काया का हमें घंटे भर में मूल्यांकन करना है.
हर क्षण कुछ नया करने की प्रवृत्ति के कारण ही आज ‘आनंदवन’ के तत्वावधान में 13 प्रकल्प चल रहे हैं. आनंदवन, अशोकवन, नागेपल्ली, हेमलकसा, सोमनाथ आदि जगहों पर अनगिनत कोढ़ी आदिवासी, अपंग, परित्यक्त, लूले-लंगड़े और अंधे रह रहे हैं. इनमें से कई जगहें ऐसी हैं, जो वर्ष में छह महीने तक आवागमन से कटी रहती हैं.
आरंभ से ही बाबा को मांडिया जाति के आदिवासियों ने आकर्षित किया है. वह उनकी निश्छलता, श्रम और साहस से अभिभूत हैं. उनकी संस्कृति पर जब शहरी सभ्यता ने हमला किया, तो बाबा मूकदर्शक नहीं रह सके. वह पहंच गये उनके बीच काम करने. उन आदिवासियों को विस्थापित करने के लिए वहां अनेक सरकारी योजनाएं चल रही हैं. बाबा के नेतृत्व में इन आदिवासियों ने ऐसी योजनाओं के खिलाफ संघर्ष किया.
दुर्गम पहाड़ों, आवागमन से कटे गांवों में जा कर काम करने की प्रेरणा आपको कहां से मिली? इसके जवाब में बाबा कहते हैं, ‘महात्मा गांधी कहा करते थे, भारत की आत्मा गांवों में बसती है. भारतीय गांव पूरे राष्ट्र को नारी की तरह गर्भ में ढो रहे हैं. अगर इस नारी की अच्छी तरह देखभाल नहीं होगी, तो राष्ट्र जिंदा नहीं रह सकता’.
वस्तुत: बाबा कवि-कलाकार हैं. उनके हर काम में एक सांस्कृतिक या काव्यात्मक झलक मिलती है. आश्रम की विभिन्न संस्थाओं के सांस्कृतिक और आकर्षक नामकरण के पीछे बाबा की अनूठी कल्पनाएं हैं. आश्रम में ही ‘अनाम वृक्षाची स्मरणशिला’ है.
श्रीमती गांधी जब अस्वस्थ बाबा को देखने यहां आयी थीं, तो बाबा से पूछा, ‘आप इस बरामदे में लेट कर क्या देखते हैं? बाबा का उत्तर था, ‘सामने हजारों-लाखों गुमनाम सूखने-कटनेवाले वृक्षों की याद में एक स्मारक है, उसे निहारता हं! वह स्मारक मुझसे कह रहा है कि मैंने तो शरीर की सुस्ती झेली और वसंत के आनंद का लुत्फ उठाया है, फिर भी मैं परेशान नहीं हं. तुम बीमारी से क्यों परेशान हो.’
बाबा का उत्तर सुन श्रीमती गाधी की आंखें भर आयीं. बाबा का कहना है कि हमारे कार्य ही हमारे’साइलेंट पोएम’ (मूक कविता) हैं, इसलिए बाहरी स्तुति का भरोसा क्यों? पद्मश्री (1971), राष्ट्र रत्न (1978), जमानलाल बजाज पुरस्कार (1979), देमिन दत्ता अवार्ड (1983), मैगसेसॉय पुरस्कार और न जाने कितने पुरस्कार बाबा को मिले हैं. लेकिन बाबा को उन पुरस्कारों से परहेज है.
पुरस्कारों से मिली चीजें आश्रम के किसी कोने में बिखरी पड़ी हैं. न बाबा को उनकी सुध है और न उससे कोई अपेक्षा. न ही वह किसी को इन पुरस्कारों का हवाला देते हैं. मशहर अर्थशास्त्री बारबरा वार्ड ने अपने नेहरू पुरस्कार की राशि भी आश्रम को ही दे दी थी और नोबुल पुरस्कार के लिए बाबा का नाम अनुमोदित किया था.
बाबा बैठ नहीं सकते. वह या तो लेटे रह सकते हैं या खड़े. कई ऑपरेशन हो चुके हैं. जिंदगी भर रीढ़ की हड्डी की बीमारी है. लेकिन उनके उत्साह और उन्मुक्तता में रत्ती भर फर्क नहीं.
अपने इस कार्य के दौरान उन्हें बहत कुछ बिन कहे सहना पड़ा है. 15 जनवरी 1981 की सुबह तड़के बाबा घूमने निकले थे.उन पर एक ट्रक की ओट से सरिये से जानेवाला प्रहार किया गया. वह बुरी तरह घायल हो गये. कई जगह फ्रैक्‍चर हआ. बाबा को मरा समझ कर आक्रमणकारी भाग गये. काफी दिनों तक अस्पताल में रहे. लेकिन कभी भी आक्रमणकारियों के बारे में जबान नहीं खोली.
रचनात्मक काम के बिना राजनीति को बाबा बांझ मानते हैं. देश को जलता देख बाबा बेचैन हैं! इस उम्र में उन्होंने कन्याकुमारी से कश्मीर तक ‘भारत जोड़ो’ का अभिनव यात्रा की. इस यात्रा की यादें और राष्ट्रीय एका का सपना ‘भारत जोड़ो फिल्म’ में बंद है. वस्तुत: प्राचीन भारत साहित्य में सेवा के लिए जैसे साधक की कल्पना की गयी है, बाबा उसके जीते-जागते प्रतिरूप हैं.
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्ग न पुनर्भवम्।
कामये दु:ख तप्तानां प्राणिनाम आर्त नाशनम्।।
(न राज्य चाहता हं, न स्वर्ग, न पुनर्जन्म के चक्कर से मुक्ति, मैं केवल दुखितों की पीड़ा निवारण का अवसर चाहता हं) श्रम और सेवा को ही पूजा माननेवाले बाबा के चरित्र के बखान के लिए भला इससे उपयुक्त श्लोक क्या होगा?
‘आनंदवन’ का उदघाटन करते हए 1951 में विनोबा जी ने कहा था, ‘आनंदवन के जंगल में दूसरी रामायण का सृजन हो रहा है, मुझे ऐसा लगता है कि एक दिन सीता और राम की कहानी (जिसे हम श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं) से यह कम मशहर नहीं होगा.’
आनंदवन में सचमुच मानवीय प्रेम-करुणा का एक नया अध्याय लिखा गया है. बाबा बार-बार कहते हैं, ‘दुख, धर्म-जाति और संप्रदाय की बाड़ों को नहीं पहचानता.’ वे कहते हैं कि यह अद्भुत है कि मानव पुराने मंदिरों-खंडहरों और चचा में जाकर शांति तलाशता है, लेकिन जो मनुष्य खंडहरनुमा बन चुके हैं, उन्हें दरकिनार करता है.
1952 में जब सामुदायिक विकास योजनाओं की घोषणा हई थी, प्रो अर्नाल्ड टॉयनबी ने कहा था, भारत में एक नयी सभ्यता का अवतरण हो रहा है. मानवीय प्रेम, सद्भावना और स्थानीय हितों के अनुकूल नयी आर्थिक विकास की नीति बन रही है. इस आर्थिक विकास से मानव, मानव से अलग नहीं होगा, शोषण बंद होगा. मानवीय रिश्तों और भावनाओं पर बाजार हावी नहीं होगा.
भौतिक आकांक्षाओं की भूख नहीं बढ़ेगी, परिवार नहीं टूटेंगे, बूढ़े उपेक्षित नहीं होंगे. वस्तुत: जिस सामुदायिक विकास योजना को टॉयनबी ने नयी सभ्यता की सुबह माना था, देश की नौकरशाही और राजनेताओं ने उसका गला घोंट दिया. काश! टॉयनबी जीवित होते और ‘आनंदवन’ देखा होता, तो उन्हें लगता कि सचमुच पूर्व में ही नयी सभ्यता का जन्म हो सकता है. बाबा आमटे की एक कविता से ही खत्म करना चाहंगा
‘मैंने अपनी आत्मा की तलाश की, मैं उसे नहीं देख पाया।
मैंने अपने ईश्वर को ढ़ूंढ़ा, वह भी मुझसे दूर ही रहा।।
मैंने अपने ‘पड़ोसी’ को देखा, और मुझे तीनों मिल गये।
अंतिम पंक्ति में ‘पड़ोसी’ शब्द की जगह अगर ‘बाबा आमटे’ का उल्लेख करने की इजाजत दें, और पुन: कविता पर गौर करें, तो शायद बाबा की वास्तविक छवि उजागर हो सके!
(समाप्त)
दिनांक : 05-03-08

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