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सजर्री ही एकमात्र इलाज

आंकड़ों पर गौर करें, तो देश में 2020 तक करीब डेढ़ करोड़ लोग ब्लाइंडनेस (अंधापन) के शिकार होंगे. इस ब्लाइंडनेस की सबसे बड़ी वजह मोतियाबिंद (कैटरैक्ट) है. इस साल 10 अक्तूबर को वर्ल्ड साइट डे मनाया जा रहा है. इसका उद्देश्य लोगों को ब्लाइंडनेस व आंखों की बीमारियों के प्रति जागरूक करना है. वर्ल्ड साइट […]

आंकड़ों पर गौर करें, तो देश में 2020 तक करीब डेढ़ करोड़ लोग ब्लाइंडनेस (अंधापन) के शिकार होंगे. इस ब्लाइंडनेस की सबसे बड़ी वजह मोतियाबिंद (कैटरैक्ट) है. इस साल 10 अक्तूबर को वर्ल्ड साइट डे मनाया जा रहा है. इसका उद्देश्य लोगों को ब्लाइंडनेस व आंखों की बीमारियों के प्रति जागरूक करना है. वर्ल्ड साइट डे के बहाने हम ब्लाइंडनेस की बड़ी वजह मोतियाबिंद के विभिन्न पहलुओें पर प्रकाश डाल रहे हैं, ताकि आप भी जागरूक रहें.

डॉ सुनील कुमार सिंह
नेत्र रोग विशेषज्ञ, पटना

आंखें अनमोल हैं, लेकिन बढ़ती उम्र का शरीर के अन्य अंगों की तरह आंखों पर भी असर होता है. ‘मोतियाबिंद’, जिसे हम अंगरेजी में ‘कैटरैक्ट’ कहते हैं. यह बढ़ती उम्र के साथ होनेवाली आंखों की आम समस्या है. 40 साल से ऊपर के लोगों में दृष्टिनाश का सामान्य कारण है.

समझें मोतियाबिंद को
हमारी आंखों के अंदर लेंस होते हैं, जो एक कैमरे के लेंस की तरह काम करते हैं. ये लेंस किसी वस्तु से आनेवाली प्रकाश की किरणों को परावर्तित कर ‘रेटिना’ तक पहुंचाते हैं. और वस्तु का ‘रेटिना’ पर चित्र बनता है. फिर वह चित्र ऑप्टिक नर्व के जरिये हमारे मस्तिष्क तक इलेक्ट्रिकल सिग्नल के रूप में पहुंचते हैं और हम देख पाते हैं. सामान्यत: आंखों के अंदर के लेंस पारदर्शी होते हैं, जिसके कारण प्रकाश की किरणों, उससे आसानी से पार हो कर रेटिना तक पहुंच जाती हैं. अगर किसी भी कारण से लेंस की पारदर्शिता प्रभावित होती हैं, तो लेंस प्रकाश की किरणों को पूरी तरह पार नहीं होने देते और व्यक्ति को धुंधला दिखायी देने लगता है, लेंस की इस अपारदर्शिता को मोतियाबिंद (कैटरैक्ट) कहते हैं.

मो तियाबिंद अधिकांशत: वृद्धावस्थाजन्य (सेनाइल कैटरैक्ट) होता है. यह एक सामान्य प्रक्रिया है, पर मोतियाबिंद अन्य कारणों से भी हो सकता है. जैसे-आंखों में चोट लगने से ( ट्रॉमेटिक कैटरैक्ट) स्टेरॉयड दवा के अधिक दिनों के सेवन से, पराबैंगनी किरणों के ज्यादा संपर्क में आने से (रेडिएशन कैटरैक्ट), धूम्रपान करने से, अधिक मात्र में अल्कोहल का सेवन करने से, डायबिटीज, हाइ ब्लडप्रेशर, मोटापा व मायोपिया आदि के उपद्रव स्वरूप भी मोतियाबिंद हो सकता है. कई आनुवंशिक बीमारियों में मोतियाबिंद भी साथ में पाया है. आंख में किसी अन्य बीमारी की वजह से हुई सजर्री भी ‘मोतियाबिंद’ का कारण हो सकती है. कभी-कभी बच्चों में जन्म से मोतियाबिंद होता है, जिसे ‘कॉनजेनाइटल कैटरैक्ट’ कहते हैं.

उम्र के साथ लेंस हो जाता है धुंधला
आंखों के लेंस के अधिकांश भाग जल व प्रोटीन का बने होते हैं. लेंस में प्रोटीन इस तरह से सुव्यवस्थित रूप में स्थित होते हैं कि इस कारण से लेंस बिल्कुल साफ व पारदर्शी होते हैं. प्रकाश की किरणों को खुद से हो कर गुजरने देते हैं. पर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, उसमें से कुछ प्रोटीन एक साथ जुड़ जाते हैं, जिसमें लेंस का वह हिस्सा धुंधला हो जाता है. समय के साथ धुंधलेपन में वृद्धि होते जाती है. धीरे-धीरे लेंस अपारदर्शी होते जाते हैं, जिसके कारण प्रकाश की किरणों उससे हो कर रेटिना तक नहीं पहुंच पाती. व्यक्ति को देखने में कठिनाई होने लगती है.

वृद्धावस्था में न्यूक्लियर कैटरैक्ट ज्यादा
लेंस के सामने के भाग को ‘एंटीरियर’ व पीछे के भाग को ‘पोस्टीरियर’ कहते हैं. लेंस के बीच का भाग ‘न्यूक्लियस’ कहलाता है. लेंस के बाहरी भाग को ‘लेंस कैप्सूल’ कहते हैं. न्यूक्लियस व कैप्सूल के बीच का भाग कॉर्टेक्स होता. अगर लेंस के बीच का भाग अपारदर्शी या धुंधला हो जाता है, तो उसे ‘न्यूक्लियर कैटरेक्ट’ कहते हैं. अगर धुंधलापन केवल कॉर्टेक्स भाग में होता है, तो ‘कॉर्टिकल कैटरैक्ट’ कहते हैं. लैंस से कैप्सूल से प्रभावित होने से एंटीरियर या पोस्टीरियर सबकैप्सुलर कैटरैक्ट होता है, पर अधिकांशत: लेंस में धुंधलापन एक साथ कई हिस्सों में होने लगता है. वृद्धावस्था में ज्यादातर ‘न्यूक्लियर कैटरैक्ट’ होते हैं. युवा सामान्यत: ‘पोस्टीरियर सबकैप्सुलर कैटरैक्ट’ से प्रभावित होते हैं. जब लेंस बिल्कुल अपारदर्शी हो जाता है, तो उसे ‘मैच्योर कैटरैक्ट’ (मोतियाबिंद का पकना) कहते हैं. ज्यादातर ‘मैच्योर कैटरैक्ट’ में दृष्टि का वर्ण सफेद हो जाता है.

देखने में होती है कठिनाई
मोतियाबिंद होने की शुरुआती दिनों में या तो व्यक्ति को लक्षण महसूस नहीं होता था, फिर देखने में थोड़ा-सा धुंधला दिखाई देने लगता है. जैसे-जैसे मोतियाबिंद में वृद्धि होते जाती है, देखने में कठिनाई बढ़ती जाती है. मोतियाबिंद एक साथ दोनों आंखों में या फिर पहले एक आंख में तत्पश्चात दूसरे आंख में हो सकता है.

मोतिया¨बद में होनेवाली कठिनाई व्यक्ति विशेष पर निर्भर करती है. कुछ लोग मोतियाबिंद के शुरुआती दिनों में काफी असहजता महसूस करने लगते हैं, जबकि कुछ लोग मोतिया¨बद की वृद्धि हो जाने पर भी अपेक्षाकृत कम कठिनाई महसूस करते हैं. मोतियाबिंद हो जाने पर सूर्य या लैंप का प्रकाश बहुत चमकता हुआ दिखायी दे सकता है. रंगीन वस्तुओं को देखने पर उनमें पहले जैसी चमक नहीं लग सकती है. रात में कम दिखाई देने लगता है.

कुछ व्यक्तियों को अपने चश्मे का नंबर बार-बार बदलने की जरूरत होने लगती है. मोतियाबिंद के लक्षण मोतियाबिंद के प्रकार पर भी निर्भर करते हैं. ‘न्यूक्लियर कैटरैक्ट’ से प्रभावित लोगों में अस्थायी तौर पर नजदीक देखने की क्षमता में वृद्धि हो जाती है, जिसे ‘सेकेंड साइट’ कहते हैं, पर नजदीक देखने की क्षमता में यह वृद्धि थोड़े समय की होती है और जैसे-जैसे मोतियाबिंद में वृद्धि होती है, नजदीक दिखना भी कम हो जाता है. किसी-किसी मोतियाबिंद में व्यक्ति को एक वस्तु दो दिखाई देने लगती है. ‘सबकैप्सुलर कैटरैक्ट’ जब तक बहुत विकसित नहीं हो जाता, तब तक उसके लक्षण स्पष्ट नहीं होते.

उपलब्ध है आधुनिक सजर्री तकनीक
मोतियाबिंद की सजर्री आजकल मॉडर्न तकनीक फेकोइमल्सीफिकेशन के जरिये की जाती है, जिसमें अत्यंत छोटा चीरा लगाया जाता है. यह सजर्री टॉपिकल एनस्थेटिक आइ ड्रॉप का इस्तेमाल कर की जाती है. इसमें सूई लगाने की भी जरूरत नहीं होती है. इस ‘फेको विधि’ में कोई टांका नहीं लगता है. ऑरपेशन के बाद रोगी उसी दिन घर भी जा सकता है. कुछ दिनों में अपनी दिनचर्या पहले की तरह शुरू कर सकता है. मोतियाबिंद की सजर्री अत्यंत सुरक्षित व प्रभावी है, पर अगर रोगी को दृष्टिनाश मोतियाबिंद के अलावा किसी अन्य बीमारी से भी हो जैसे-ग्लूकोमा मैकुलर डिजनरेशन, डायबिटीक रेटिनोपैथी या ऑप्टिक न्यूरोपैथी आदि से तब मोतियाबिंद की सजर्री के बाद भी देखने की क्षमता में वृद्धि नहीं होती है.

मोतियाबिंद की सजर्री में लेंस कैप्सूल को आंख के अंदर रहने दिया जाता है, जिसके सहारे कृत्रिम लेंस डाला जाता है. बाद में लेंस कैप्सूल धुंधला हो सकता है. देखने में थोड़ी कठिनाई हो सकती है. इसे ऑफ्टर कैटरैक्ट या झिल्ली आना कहते हैं. इस समस्या को मात्र लेजर कैप्सूलोटोमी द्वारा दूर कर दिया जाता है.

वैसे तो मोतियाबिंद उम्र बढ़ने के साथ होनेवाली एक सामान्य प्रक्रिया है और इसे रोका नहीं जा सकता. पर उचित खान-पान एवं स्वस्थ जीवनशैली को अपना कर समय पूर्व होनेवाले मोतियाबिंद से बचा जा सकता है.

40 के बाद जांच जरूरी
40साल की उम्र के बाद हर व्यक्ति को मोतियाबिंद की जांच के लिए नेत्र चिकित्सक से मिलना चाहिए. मोतियाबिंद का पता चल जाने के बाद हर तीन महीने पर नेत्र चिकित्सक से अपने आंखों की जांच करानी चाहिए. मोतियाबिंद के शुरुआती दौर में नये चश्मे का नंबर देने से, अधिक प्रकाश का उपयोग करने से, एंटीग्लेयर धूप का चश्मा लगाने से और मैगAीफाइड लेंस का उपयोग करने से देखने की समस्या काफी हद तक हल हो जाती है, पर मोतियाबिंद के ज्यादा बढ़ जाने पर ये उपाय कारगर नहीं होते. उस समय इसका एकमात्र इलाज सजर्री है. सजर्री के द्वारा अपारदर्शी लेंस को निकाल कर बाहर से कृत्रिम लेंस लगाया जाता है. इसके बाद रोगी के देखने की क्षमता में काफी वृद्धि हो जाती है.

मोतियाबिंद न करें इग्‍नोर
जब मोतियाबिंद से प्रभावित व्यक्ति अपने आवश्यक कार्यो को संपादित करने में असमर्थ हो जाता है या कठिनाई महसूस करने लगता है, तब डॉक्टर सजर्री का परामर्श देते हैं. अगर रोगी को मोतियाबिंद के अलावा आंख की अन्य बीमारी भी होती है जैसे-मैकुलर डिजनरेशन या डायबिटीक रेटिनोपैथी व मोतियाबिंद के कारण इन बीमारियों की पहचान तथा चिकित्सा में रुकावट पैदा होती है, तब भी डॉक्टर मोतियाबिंद की सजर्री का परामर्श देते हैं. मोतियाबिंद जब मैच्योर हो जाता है, उसके बाद भी अगर रोगी सजर्री नहीं कराता है. उसकी अपेक्षा करता है, तब मोतियाबिंद पक कर फट जाता है तथा आंख की अन्य बीमारियां जैसे ग्लूकोमा, आंखों में सूजन पैदा करता है.

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