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लालू बड़ी ऊंचाइयों को छू सकते थे, पर..

।।अजय सिंह।।(संपादक, गवर्नेस नाउ)घटनाओं के बाद उनके कारणों की तलाश में प्राय: अतीत को तोड़-मरोड़ दिया जाता है. ऐसा उन लोगों के मामले में भी देखा जा सकता है, जो चारा घोटाले में सजा होने के बाद बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के खलनायकीकरण में जुटे हैं. जनमत बनानेवाले लोग इस बात पर […]

।।अजय सिंह।।
(संपादक, गवर्नेस नाउ)
घटनाओं के बाद उनके कारणों की तलाश में प्राय: अतीत को तोड़-मरोड़ दिया जाता है. ऐसा उन लोगों के मामले में भी देखा जा सकता है, जो चारा घोटाले में सजा होने के बाद बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के खलनायकीकरण में जुटे हैं.

जनमत बनानेवाले लोग इस बात पर अक्सर तीखा क्षोभ जताते रहे हैं कि लालू सिस्टम को प्रभावित करने की क्षमता की वजह से 17 साल तक सजा से बचते रहे. अब जेल में बंद लालू जो हर मुसीबत में अपनी खास भाषाशैली का हथियार की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं, अपने बचाव के लिए उपलब्ध नहीं हैं. क्या लालू उतने बुरे हैं, जितना कि उन्हें बना दिया गया है? वास्तव में चारा घोटाले से जुड़े दस्तावेजों पर सरसरी निगाह डालने पर यह पता चलता है कि लालू ने बिहार के कुछ पूर्व मुख्यमंत्रियों की भ्रष्टाचार की विरासत को ही संभाला था. इस मामले में लालू के साथ सजा पाये जगन्नाथ मिश्र से सच्चई खुद साफ हो जाती है.

लालू की गलती यह है कि उन्होंने उस राजनीति और व्यवस्था के सामने घुटने टेक दिये जो बिहार में शोषणकारी सामाजिक पदानुक्रम स्थापित करने और उसे बनाये रखने के लिए जिम्मेदार है. जबकि, लालू उन सामाजिक ताकतों की उपज थे, जिन्होंने इस शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह किया था. उन्हें उस जहर की काट के रूप में देखा गया, जो बिहार के सामाजिक और राजनीतिक जीवन को सड़ा रहा था.

हमें 1980 और 1990 के दशकों में बिहार की हिंसक राजनीति को याद करना होगा, जब जाति या संप्रदाय के आधार पर जनसंहार महामारी की तरह फैले हुए थे. राज्य की आर्थिक प्रगति लगभग नगण्य थी. गरीब और कमजोर लोग आजीविका के लिए राज्य को छोड़ रहे थे. बिहार को ऐसा आशाविहीन राज्य माना जाता था, जहां सुधार की उम्मीद शून्य नहीं, तो बहुत दूर जरूर है. भय, निराशा और पस्तहिम्मती के माहौल के बीच लालू का उभार बिहार की मरघटी राजनीति में नयी जिंदगी के संकेत के रूप में देखा गया.

जब वीपी सिंह बोफोर्स मामले में राजीव गांधी के खिलाफ उठ खड़े हुए, तब लालू बिहार में सामाजिक हाशिये पर रह रहे लोगों के नायक बन कर उभरे. वह अपने विरोधी, पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ दलित नेता रामसुंदर दास को चित करते हुए अपने अंदाज में लोकप्रिय नेता के रूप में स्थापित हुए. क्या तब लालू विजनरी था? जो लोग राजनीति के दावं-पेच समझते हैं, उनका विश्लेषण यही होगा कि लालू में परिस्थितियों को अपने फायदे के हिसाब से मोड़ने का कौशल था. लालू को उनके करीबी विश्वस्त लोगों की तिकड़म और तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने गद्दी पर आसीन करवाया. मुलायम को लालू बिहार में दूसरों से ज्यादा भरोसे के काबिल और बात माननेवाले लगे. लालू ने अपने राजनीतिक कौशल को मंडल-दौर में मांजा, जिस समय राज्य में अभूतपूर्व सामाजिक वैमनष्य देखने को मिल रहा था.

उन दिनों, जनमत निर्माताओं ने उन्हें समाज के दबे-कुचले वर्गो के सच्चे रहनुमा के रूप में देखा. उन्होंने उनके देसी लहजे और मसखरेपन को पिछड़े वर्ग की अभिव्यक्ति माना. जब लालू ने हिंसा और सामाजिक विद्वेष को बढ़ावा दिया, तब उनका बचाव करनेवाले बुद्धिजीवियों ने यह तर्क दिया कि जिन सामाजिक ताकतों को सदियों तक दबा कर रखा गया, यह उनके द्वारा ऐतिहासिक सुधार है. दिलचस्प है कि बिहार की राजनीति की इन सभी बीमारियों की पहचान सही की गयी थी. समस्या तो जहर की काट को लेकर थी.

1990 में अप्रत्याशित लोकप्रियता और अपेक्षाओं पर सवार लालू का कद बिहार में इतना बड़ा हो गया, जिसे कम करना काफी मुश्किल था. यहां तक कि अयोध्या आंदोलन के दौरान भी उनका जनाधार (अधिकांशत: सामाजिक रूप से उपेक्षित) मजबूती से उनके साथ बना रहा. दलित, ओबीसी और मुसलमान उनके साथ मजबूती से इस आशा में खड़े रहे कि वह राज्य को उनकी भलाई के हिसाब से बदलेंगे. उन्होंने उन्हें इस उम्मीद में लगातार तीन कार्यकाल तक शासन चलाने का जिम्मा सौंपा कि वह शोषणकारी सामाजिक संरचना को पलटेंगे और इसे अधिक समतावादी और हमवार बनायेंगे.

त्रसदी यह रही कि लालू ने लोगों खास कर सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ों, के बिना शर्त समर्थन को अपना नैसर्गिक अधिकार समझ लिया. विडंबना है कि यह उसने किया, जिसे गरीबी से अपने उठ खड़े होने पर गर्व था. अपने निजी क्षणों में उन्होंने खुद को ‘बिहार का राजा’ बताना शुरू किया. यही कारण था कि वह अतीत की बातों से सबक नहीं ले सके और गवर्नेस के उन्हीं तौर-तरीकों पर चलते रहे, जिसके कारण बिहार पिछड़ेपन की गर्त में चला गया था.

परिणामत: उन्होंने चारा घोटाला के रूप में उसी अंधकारमय अतीत की विरासत को आगे बढ़ाया. कांग्रेस के नक्शे-कदम पर चलते हुए, उन्होंने बिकाऊ और भ्रष्ट राजनीति का सहारा लिया और भाई-भतीजावाद और अपराध की संस्कृति को संरक्षण दिया. उन्होंने तब भी परिस्थितियों को नहीं समझा, जब 1997 में चारा घोटाला में फंसने पर अपने काबिल सहयोगियों के बजाय उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया. इस सदी के अंत तक जिन सामाजिक ताकतों ने उन्हें केंद्रीय भूमिका निभाने के लिए भेजा था, वह उनसे दूर होने लगे.

लालू अपने पुराने दिनों की भव्यता में इस तरह कैद हो गये कि उन्हें इससे बाहर निकलना गवारा नहीं था. उन्होंने बिहार को अपनी जागीर समझ ली और अपने परिवार के सदस्यों को आगे बढ़ाया. दुखद यह था कि राजनीति में लालू को ऊपरी जातियों वाली सामंती ताकतों के विरोध के रूप में उभरते देखा गया था. पर अब जिसे 1990 के दशक में हाशिये पर खड़े लोगों के मसीहा के रूप में देखा गया था, उसने खुद को अपने परिवार के एक नेता के रूप में स्थापित किया. चारा घोटाले में लालू को मिली सजा को भारतीय राजनीति के दुखद त्रसदी के रूप में देखा जायेगा, जहां पिछड़े वर्गो की मौलिक समस्याओं को उठाने की कोशिश बेकार चली गयी. वह एक ऐसे नेता थे, जो बड़ी ऊंचाइयों को छू सकते थे, पर उन्होंने ऊंचाई से गिरने का रास्ता चुना.

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