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सपने, संघर्ष और चुनौतियां

– हरिवंश- एक वर्ष और गुजरा. प्रभात खबर में इस वर्ष के अंत में मैं 23वें वर्ष में प्रवेश करूंगा. आप में से भी कोई एक साल पूरा किया होगा, कोई पांच, दस या पंद्रह या बीस या बाईस वर्ष. या बिलकुल नया या कुछ महीनों पुराना होगा. तात्पर्य यह है कि दुनिया की सबसे […]

– हरिवंश-
एक वर्ष और गुजरा. प्रभात खबर में इस वर्ष के अंत में मैं 23वें वर्ष में प्रवेश करूंगा. आप में से भी कोई एक साल पूरा किया होगा, कोई पांच, दस या पंद्रह या बीस या बाईस वर्ष. या बिलकुल नया या कुछ महीनों पुराना होगा. तात्पर्य यह है कि दुनिया की सबसे गतिशील चीज है समय. यह कभी नहीं ठहरता. बड़े संदर्भ में कहें, तो यही काल है. यह अजीब है. अगर आज हम यहां गुजरा अतीत लौटाना चाहें, तो क्या ये पिछले 22-23 वर्ष लौट सकते हैं?
एक पल भी या एक क्षण भी वापस मिल सकता है? यह सोचता हूं, तो पाता हूं कि जीवन के लिए इसमें एक संदेश है. जो गया, सो गया. नहीं लौटनेवाला. इसलिए क्यों नहीं सामूहिक रूप से सब संकल्प लें कि हम एक पल भी ऐसा नहीं गुजारेंगे, व्यर्थ नहीं गंवायेंगे कि अफसोस हो कि हमने अतीत में यह गंवाया. जब से चेतना या सुधि, तब से ही आयी यह सजगता. पीछे के व्यर्थ गुजरे क्षणों-वर्षों पर पश्चाताप से भी कुछ नहीं हासिल होनेवाला. भविष्य के लिए, बीते वर्ष 2010 के अवसर पर यह संदेश है हम सब के लिए. किसका? काल का. समय का.
बंदी के कगार पर पहुंच कर संभला
बचपन में ही सुना था समय होत बलवान. इस तरह समय परिस्थितियों को धार, मोड़ और पहचान देता है. इस चुनौती के मुकाबले इनसान को खड़ा होना पड़ता है. इस रूप में प्रभात खबर के जीवनकाल में (1984 में स्थापना के बाद से ही) लगातार चुनौतियां आयीं. कुछेक संघर्ष के यादगार वर्ष हमलोगों की स्मृति में टंके हैं . मसलन 1984 में इसका जनमना. 1987-88 आते-आते बंदी के कगार पर पहुंचना. चार/पांच सौ प्रतियों में सिमट जाना. कुल छह पेज का अखबार बन जाना. इसके बाद 1989 के अंत में नये प्रबंधन का पदार्पण.

1991 में अखबार उद्योग के एक शीर्ष एक्सपर्ट का लिखित सुझाव आना कि इसे जितना जल्द बंद कर दिया जाये, उतना ही अच्छा, क्योंकि इस समाचार पत्र का भविष्य नहीं है. यहां पहले से ही स्थापित कई धुरंधर और संपन्न अखबार हैं. देश का यह सबसे पिछड़ा इलाका है. विज्ञापन का कोई स्कोप नहीं है. विज्ञापन, आर्थिक विकास का बाइ प्रोडक्ट है, यहां आर्थिक विकास देश में सबसे कम है. देश के सबसे अधिक अशिक्षित यहां हैं . क्या ये गरीब और अशिक्षित लोग कई अखबार पढ़ेंगे?1991 में मीडिया के एक एक्सपर्ट ने प्रभात खबर की वायबिलिटी और भविष्य पर अध्ययन कर अपनी रपट में ये तर्क दिये थे. ये तर्क या कारण हमारी नजरों में भी सही थे. फिर भी इन तर्कों के विपरीत प्रबंधन चला कर देखना चाहता था.

कारपोरेट ताकत की पहली धमक
इसके कुछेक वर्ष बाद ही उन्हीं दिनों, आर्थिक उद्योग जगत में भारी मंदी आयी. बड़े अखबार घराने भी अछूते न रहे. अंबानी, थापर, डालमिया और सिंघानिया जैसे बड़े समूहों से निकले अखबार असमय काल के गाल में चले गये. उन्हीं दिनों आर्थिक संकट के दौर में हमें भी बताया गया कि आइदर सिंक आर स्विम ऑन योर ओन. अपने बूते या तो तैरिए या डूबिए. वे दिन, वे वर्ष भी प्रभात खबर की स्मृति में हैं. यह 1995-96 का दौर था. इसके बाद आये दिल्ली और बाहर के अखबार. उनके पास थे पैसे, साधन और नेटवर्क. हैव और हैव नाट्स की प्रतियोगिता शुरू हुई. संपन्न और सर्वहारा के बीच. पहली कोशिश हुई कि हर विभाग के की-पर्सन (सबसे महत्वपूर्ण और क्रिटिकल आदमी) को तोड़ लो, ताकि अगले दिन से अखबार निकले ही नहीं. जंगल और आदिवासी इलाके में यह कॉरपोरेट ताकत या वार की पहली धमक थी. प्रभात खबर से अचानक, सुनियोजित षडयंत्र के तहत जून, 2000 में 33 लोग गये, एक साथ. बिना नोटिस पीरियड सर्व किये या मोहलत दिये. तत्काल प्रभाव से. यह सब एक रणनीति के तहत था, ताकि पूंजीसंपन्न के आगे सर्वहारा टिके ही नहीं और अगली सुबह अखबार न निकले.
पत्रकारिता में आक्रामक पूंजीवाद
फिर आया 2002 का दौर. बाजार की भाषा में कहें, तो झारखंड में एक और बड़े प्लेयर का आगमन. एक ही साथ तीन संस्करणों की धमाकेदार शुरुआत. पाठकों के लिए अत्यंत आकर्षक और लुभावने स्कीम. हॉकरों को तरह-तरह के प्रलोभन. एजेंटों को अपने पक्ष में कर लेने की होड़. अखबार विक्रय केंदों पर अवांछित और असामाजिक तत्वों की स्पर्धा. यह आक्रामक पत्रकारिता नहीं, आक्रामक और आतंक के बल अखबार के वितरण पर कब्जा कर, पाठकों तक पहुंचने की शुरुआत थी. इसी दौर से पाठक बेबस होते गये. लोभ से उन्हें लुभाने की होड़ शुरू हुई. अखबारों की भीड़ से सर्वश्रेष्ठ या अपने बौद्धिक पसंद का अखबार पाठक खुद चुनें, यह खत्म हो गया. पाठकों को अखबार घरानों ने अपनी पूंजी के बल पर प्रभावित करना शुरू किया.
प्रचार से, स्कीम से, घर पहुंचा कर, अन्य लाभ देकर, पाठकों को अन्य वजहों से प्रभावित कर. मनोवैज्ञानिक ढंग से उन्हें अपने फंदे में फांस कर, पाठकों पर अखबार थोपने की शुरुआत. इसके साथ ही पूंजीविहीन, पर विचार संपन्न अखबारों के खत्म होने का सिलसिला भी शुरू हो गया. बहुदलीय लोकतंत्र में, विचारों की बहुलता भी जरूरी है, पर पूंजी के बल एकाधिकार बना कर छोटी पूंजीवालों को बंद कराने की शुरुआत हुई. पत्रकारिता में आक्रामक पूंजीवाद के प्रवेश की धमक. आवारापूंजी, क्रोनी कैपिटलिज्म और काले धन का मीडिया में पदार्पण.
विदेशी पूंजी, इक्विटी और शेयर बाजार से मीडिया में निवेश का दौर. इसका सकारात्मक पक्ष रहा कि अखबारों में नौकरियों की शर्तें बेहतर हुईं. पर समाज की सफाई के लिए निकले अखबार, बाजार और विज्ञापन पर एकाधिकार कायम करने के लिए हर वह काम करने में माहिर हुए, जुट गये, जिनके खिलाफ वे अपने पन्ने भरा करते हैं .
राष्ट्रीय महारथियों से घिरा प्रभात खबर
इसी बदलते दौर में प्रभात खबर ने वर्ष 2004 में 20 वर्ष पूरे किये. फिर 2006 में लगा कि प्रबंधन जेनुइनली इससे अलगाव चाहता है, पर प्रभात खबर के लोगों की भावनाओं को देख कर प्रबंधन ने निर्णय बदला. प्रभात खबर को पटरी पर लौटने में समय लगा. तरह-तरह की अफवाहें – चर्चा वर्षों तक पीछा करती रहीं. ये सब चीजें जब तक थिराएं, ठहरें या वहीं पर विराम लगे, तब तक नयी स्पर्धा आरंभ. देश के दूसरे बड़े प्रतियोगी का आगमन. हिंदी संसार में अपने को नंबर वन मानने वाले, हिंदी पाठकों के बीच नंबर दो का खिताब या शोहरत विज्ञापित करने वाले और हिंदी के नंबर तीन का दावा करनेवाले, सभी एक साथ, एक जगह और एक-दूसरे के सामने देश में कहीं खड़े हुए, तो सबसे पहले झारखंड में.
ये तीनों अखबार देश के बड़े अखबारों (पाठकों की दृष्टि में) की सूची में नंबर 1,2,3 हैं. हिंदी, अंगरेजी, समेत सभी क्षेत्रीय भाषाओं में. इस तरह एक क्षेत्रीय अखबार प्रभात खबर, तीन राष्ट्रीय महारथियों और दिग्गजों से घिरा. यह वर्ष 2010 में हुआ. इस अर्थ में 2010 भी प्रभात खबर के लिए यादगार वर्ष है.
प्राइसवार में पहल
हिंदी अखबारों में प्रतियोगिता के लिए मानक बन जानेवाले, अपनी आक्रामक मार्केटिंग से आतंक का पर्याय बन जानेवाले घरानों से भी 2010 में मुकाबला. प्रभात खबर के प्रतियोगी तीनों बड़े घराने स्टॉक मार्केट की लिस्टेड कंपनियों में हैं . कोई 5000 करोड़ का घराना है, तो कोई इससे भी अधिक का है. इन ताकतवर और धनी घरानों के मुकाबले प्रभात खबर को बाजार में उतरने का गौरव मिला, यह भी 2010 का बड़ा लैंडमार्क है, हमारे लिए. हमने प्रतियोगिता का हरसंभव चेहरा और सबसे बड़ी चुनौती देखी. प्राइस वार (अखबार की कीमत घटाना) में हम भी उतरे. सबसे पहले. यह स्पर्धियों को उम्मीद नहीं थी. सिर्फ झारखंड में आज प्रभात खबर की तीन लाख साठ हजार से अधिक प्रतियां रोज बिक रहीं हैं. अयोध्या निर्णय प्रसंग पर उस दिन सिर्फ झारखंड में पांच लाख से अधिक प्रतियां बिकीं.
ओछी प्रतिस्पर्धा से अलग
अपने जन्म के 3-4 माह बाद देश के दूसरे नंबर के सबसे बड़े अखबार ने रांची में एक सर्वे टीम से सर्वे करा कर छापा और पाया कि प्रभात खबर कैसे झारखंड का सर्वाधिक प्रसारित अखबार है? हालांकि अपने पैसे से कराये गये इस सर्वेक्षण के पीछे भी राजनीति है. कुछ ही दिन बाद ऐसे अखबार किसी और मार्केटिंग सर्वे टीम को भारी पैसे देकर खुद घोषित करा लेंगे कि हम सबसे बड़े अखबार हो गये हैं. इन अखबारों की निर्ल्लजता की पराकाष्ठा देखने को मिली, जब एक दिन रांची में अनेक होर्डिंग लगा कर कहा, आभार : हम रांची के सर्वाधिक पढ़े जानेवाले अखबार हैं. बिना कोई आधार, सर्वे या प्रमाण के. अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना. फिर एक मार्केटिंग एजेंसी को पैसे देकर सर्वे कराया, दावा किया कि समाज के एक वर्ग (पैसेवालों) में हम नंबर एक हो गये हैं, पर झारखंड का सबसे बड़ा अखबार.
प्रभात खबर है. इस अखबार के शुरू के दावे (होर्डिंग में आभार व्यक्त करने वाले) पर एडवरटाइजिंग काउंसिल ऑफ इंडिया में लोगों ने शिकायत की कि किस आधार पर यह अखबार नंबर एक होने की होर्डिंग लगा रहा है, विज्ञापन छाप रहा है, तो एडवरटाइजिंग काउंसिल ने सख्त टिप्पणी की और भविष्य में ऐसे विज्ञापन देने से मना किया. पर सच, समता और समाज की सफाई का ढोंग रचनेवाले अखबार खुद गोबल्स के सिद्धांत पर चलते हैं कि एक झूठ को सौ बार बोलो, ताकि सच लगे. प्रभात खबर शुरू से ही इस ओछी प्रतिस्पर्धा से बाहर रहा है. हम पाठकों के विवेक और समाज में स्थापित मापदंडों पर चलते रहे हैं. चलेंगे. इसी वर्ष प्रभात खबर हिंदी के सबसे बड़े दस अखबारों (देश के) में आइआरएस के अनुसार आठवें स्थान पर पहुंचा.
काम और दायित्व का विकेंद्रीकरण
वर्ष 2010 का सबसे महत्वपूर्ण बदलाव. सोची-समझी रणनीति के तहत. 2009 तक यह संस्था कुछेक लोगों (इंडिविजुअल) के नेतृत्व में चली. घर के माहौल में. वर्ष 2010 में पहली बार इसे इंस्टीट्यूशनल (संस्थागत) रूप देने की सायास कोशिश हुई. तब मैं, केके गोयनका और आरके दत्ता ड्राइविंग सीट पर थे. हमने महसूस किया कि बड़े सपने देखने के लिए बड़ी टीम होनी चाहिए. इस तरह संस्था को सही रूप देने के लिए इंस्टीट्यूशनल शक्ल देने के लिए काम और दायित्व का विकेंद्रीकरण जरूरी लगा. अगुआ मैं था. तय किया कि नयी शुरुआत ऊपर से हो. महीनों लगे, मुझे अपने वरिष्ठ साथियों को राजी करने और फिर कई महीने गुजरे प्रबंधन को सहमत कराने में, समझाने में. प्रभात खबर को नया इंस्टीट्यूशनल रूप देने के लिए शुरुआत हमने ऊपर से की. पहल कर मैं हटा. केके गोयनका एमडी बने. आरके दत्ता एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर. ये दोनों वे लोग हैं , जिन्होंने जीवन के सर्वश्रेष्ठ वर्ष चुपचाप प्रभात खबर को बनाने में दिये हैं . यह बदलाव यहीं नहीं रुका. पूरे झारखंड को संभालने के लिए दूसरी पंक्ति की एक निर्णायक टीम खड़ी की गयी, जो रोज-रोज के महत्वपूर्ण मसलों पर निर्णय ले. दीर्घकालीन रणनीति के तहत संपादकीय में हमने टॉप टीम के बीच स्पष्ट कार्य-विभाजन किया, ताकि कहीं किसी के कार्यक्षेत्र में अस्पष्टता न रहे. फिर हर प्रकाशन केंद्र में स्थानीय संपादकों ने अपनी-अपनी यूनिट का ऑरगेनाइजेशन चार्ट बनाया. ऊपर से नीचे तक एक-एक का काम साफ-साफ बांट कर. पहले भी ऐसा था, पर इसको और स्पष्ट व साफ किया गया, ताकि काम का बंटवारा ऊपर से नीचे तक साफ रहे. कोई कन्फ्यूजन न रहे. इसके पीछे जवाबदेही तय करने का मकसद है. अन्य विभागों में भी काम का विभाजन, बंटवारा और पावर डेलिगेट करने की यह प्रक्रिया चल रही है. संभव है कि इसमें और स्पष्टता आने में थोड़ा समय लगे. पर प्रभात खबर के संपादकीय क्षेत्र में यह एक बड़े परिवर्तन की कोशिश है. समझ-बूझ कर की गयी पहल है. नया परिवर्तन है.
संक्रमण का दौर
प्रभात खबर के लिए ट्रांजिशन (संक्रमण) का फेज (दौर). अचानक छोटे से बड़ा बनना है. साथ ही इस इंडस्ट्री के सबसे बड़े और स्थापित तीन घरानों से एक ही साथ मुकाबला है. दो-दो मोरचों पर एक साथ जूझना. इस बड़ी लड़ाई के लिए बदलाव-परिवर्तन जरूरी था. यह हमने किया. 2010 के आरंभ में इसकी योजना हम वरिष्ठ साथियों के दिमाग में आयी. हमने इसकी पहल की, क्योंकि हम पुराने स्वरूप और पांच-छह संस्करणों के बल कैसे उन महारथियों से लड़ सकते थे?
यह परिवर्तन क्या है ?
सत्ता का विकेंद्रीकरण. पदों के अनुसार काम का साफ-साफ बंटवारा, ताकि लगातार चौकस मानिटरिंग हो सके. कोई अपनी जवाबदेही से न बचे. वर्ष 2010 के पहले प्रभात खबर, अंगरेजी में कहें तो पर्सनालिटी बेस्ड ऑरगेनाइजेशन (व्यक्ति आधारित संस्था) था. इंडिविजुअल रन ऑरगेनाइजेशन. किसी एक व्यक्ति या दो या तीन लोगों पर आधारित संस्था का भविष्य उज्जवल नहीं होता. संस्थाएं हमेशा व्यक्तियों या व्यक्ति के समूहों से बड़ी होती हैं. टीम से ही लड़ाई जीती जाती है. इससे पहले तक प्रभात खबर में हर कामकाज या समारोह में, मंच पर, हम कुछेक चेहरे ही दिखते थे. कहें, तो जूता सिलाई से चंडी पाठ की भूमिका में कुछेक ही थे. संस्था के दीर्घजीवी होने के लिए यह मिथ तोड़ना जरूरी था.

इसलिए प्रभात खबर द्वारा आयोजित बड़े समारोहों, आयोजनों में वर्ष 2010 से जाना मैंने कम किया या बंद किया. गोयनका जी से कहा, शीर्ष मार्केटिंग बैठक में भी नहीं रहूंगा. क्योंकि अगर हर बैठक और हर मोरचे पर मैं या हम कुछेक चेहरे ही रहेंगे, तो फिर नये नेतृत्व नहीं पैदा होंगे. नया नेतृत्व पैदा करने के लिए पहली शर्त है – अधिकार या पद देकर काम करने की आजादी देना. नये लोगों से गलतियां होंगी, पर वे गलतियां ही विकास की सीढ़ी बनेंगी. नये नेतृत्व विकसित करने का यही स्थापित फार्मूला है दुनिया में. कामकाज के विकेंद्रीकरण या नये ढांचे को बनाने के ये काम अभी प्रभात खबर में बिहार और बंगाल संस्करणों में होने बाकी हैं .

एक अलग और मौलिक पहल
संभव है, पावर डिसेंट्रलाइजेशन या शीर्ष पर नयी टीम खड़ा करने के इस प्रयास को लोगों ने अलग-अलग समझा हो. उनके समझने के अपने तर्क या कारण हो सकते हैं. बुनियादी तौर पर आज के समाज के मौजूदा मानस में यह भूख और लस्ट है कि हम पद पायें, तो छोड़ें ही नहीं. शरीर छूटे, पर पद नहीं. कुरसी पकड़ या जकड़ कर बैठ जायें. भौतिक चीजों के प्रति यह वासना, मोह आज हमारे समाज में चरम पर है. जहां यह मानस है, वहां लोग इस पहल और प्रयास के पीछे की सही भावना समझें, यह संभव नहीं. जहां चीजों को पकड़ कर बैठ जाने का मानस या मनोवृत्ति हो, वहां स्वत: पहल कर अपना दायित्व अपने कनिष्ठ साथियों को सौंपना, एक अलग और मौलिक पहल है.
हमने यह पहल क्यों की?
प्रभात खबर को इंस्टीट्यूशन का रूप देने के लिए जरूरी था कि हर क्षेत्र में और युवा साथी सामने आएं. नयी भूमिकाओं और महत्वपूर्ण पदों पर नये लोग आयें, ताकि टीम का आधार या फलक बड़ा और विस्तृत हो. हमारे अंदर यह कोशिश रही है कि यह संस्था दीर्घजीवी बने. वरना यहां बैठे वरिष्ठ साथी जानते हैं कि वर्ष 2006 में यह संस्था बिकने के क्रम में थी, तब मैनेजमेंट ने ईमानदार दायित्व के तहत कहा था कि जिन लोगों ने इस संस्था को गढ़ने में-बनाने में शुरू से कोशिश की है, उन्हें इसमें हिस्सा मिलेगा. इस तरह मुझे जो हिस्सा मिलता, वह आप कल्पना नहीं कर सकते. मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था. आज मैं लाखों पाता हूं. इतने ही पैसों की नौकरी कई जन्मों तक करता, तब भी उतने पैसे एकमुश्त नहीं मिलते. ये पैसे हमारे श्रम के जायज अर्निंग (कमाई) थे. कहीं कोई गलत कमाई नहीं. मुझे याद है एमजे अकबर ने अपने प्रयास से एशियन एज खड़ा किया, जिस दिन उस अखबार में डेकन क्रॉनिकल ने स्टेक (हिस्सा) लिया, तो उनका जवाब था कि यह मेरे लिए प्रसन्नता की घड़ी है. कारण यह उनके श्रम से, ईमानदारी से अर्जित आय थी. उसी तरह प्रभात खबर में हम वरिष्ठ साथियों को यह मौका था.
पर हम सब ने प्रबंधन से अनुरोध किया कि नहीं, हम इसे चलाने की गंभीर कोशिश करना चाहते हैं . महज एक सुरक्षित जिंदगी नहीं चाहते. तब हमारे निजी जीवन के हित में था कि उक्त प्रस्ताव के तहत अपना हिस्सा लेकर हम निश्चिंत होकर बैंकों में यह राशि रख कर, सूद के बल सुखपूर्वक रहते. एक कमजोर मध्यवर्ग की पृष्ठभूमि से आये हम लोगों के लिए यह द्वंद्व का समय था. पर अंतत: हमने चुना कि नहीं संस्था की लांगिविटी (दीर्घ जीवन) के लिए हम सामूहिक पहल करें. टीम साथ हो. समूह में नयी कोशिश हो. उसी लांगिविटी के कांसेप्ट (विचार) को आगे बढ़ाने के क्रम में, वर्ष 2010 में, यह दूसरी बड़ी पहल थी कि संस्था को ‘पर्सनालिटी बेस्ड ऑरगेनाइजेशन’ से निकाल कर, उसे संस्थागत पहचान देना. टीम की पहचान. सामूहिकता की पहचान. जहां सारे काम करने वालों की पहचान मिल कर एकाकार हो जाये. इस मानस के पीछे दो लोगों की प्रेरणा रही है. गुजरे लोगों में डॉ लोहिया की. जीवित लोगों में इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति की.
बढ़ रही है भोग व लालसा
मेरा एक बड़ा प्रिय निबंध है, निराशा के कर्तव्य. डॉ. राममनोहर लोहिया द्वारा लिखित. ठीक 50 वर्ष पहले लिखा गया. अक्सर अपने लेखों या भाषणों में इसका उल्लेख भी करता हूं. यह प्रेरक निबंध है. इसके कुछ अंश तो अद्भुत हैं. हर भारतीय को इसे याद रखना चाहिए. जीवन के लिए संदेश से भरा. एक पंक्ति में कहूं, तो यह सीख देता है कि जीवन में निराशा रहे और काम करें. यह फलसफा है. जीवन दर्शन है. वह एक जगह इस निबंध में कहते हैं कि भारत में आदमी अपनी चीज के लिए, स्वतंत्रता भी जिसका एक अंग है, अपनेपन, अपने अस्तित्व के लिए मारने-मिटने के लिए ज्यादा तैयार नहीं रहता. वह झुक जाता है और उसमें स्थिरता के लिए भी बड़ी इच्छा पैदा हो जाती है. चाहे जितना गरीब हो. शरीर चाहे सड़ रहा हो, लेकिन फिर भी जान के लिए कितना जबरदस्त प्रेम, आप अपने देश में पाओगे. कोई भी काम करते हुए हमारे लोग घबराते हैं कि जान चली जायेगी. चाहे जितने गरीब हैं हमलोग. लेकिन फिर भी एक-एक, दो-दो कौड़ी से मोह है. मुझे कुछ ऐसा लगता है कि आदमी जितना ज्यादा गरीब होता है, उसका पैसे के प्रति मोह उतना ही ज्यादा हो जाया करता है. एक विचित्र-सी अव्यवस्था हो गयी है कि शरीर खराब, जेब खराब, लेकिन फिर भी पैसे और जान के लिए इतनी जबरदस्त ममता और अनुराग हो गया है कि आदमी कोई भी जोखिम उठाने को तैयार नहीं रहता. आज देश में यही हाल है. डॉ. लोहिया के इस निबंध को पढ़ कर देश के मानस को समझने में मदद मिलती है. हम ऐसे क्यों है? भ्रष्टाचार के अनेक गंभीर मामलों के विस्फोट के बाद हाल में एक विदेशी अखबार (वालस्ट्रीट..) में पढ़ा. एक विशेषज्ञ के अनुसार हमारे खून में ही दोष है.

हम स्वाभिमान-आत्मसम्मान रहित ऐसे ही लोग हैं. आजादी के 60 वर्षों के बाद यह भोग व लालसा और बढ़ गयी है. बढ़ता लोभ-बाजारवाद और उपभोक्तावाद इस आग में घी का काम कर रहे हैं. आज पद पा जाने के बाद, कोई छोड़ना नहीं चाहता. सत्ता से लेकर हर जगह कोई स्वत: पहल कर, अपने साथियों-सहकर्मियों के लिए जगह नहीं बनाता. रोज ही हम-आप देख रहे हैं कि राजनीतिज्ञों के पांव कब्र में हैं, पर सत्ता से चिपके हैं. लोग कुरसी से बांह पकड़ कर उठाते-बैठाते हैं, शरीर-इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं रहा, पर हमारा-आपका भाग्य तय कर रहे हैं. सार्वजनिक पदों पर बैठ कर देश की किस्मत लिख रहे हैं. पर राजनीतिज्ञ ही क्यों? रिटायर्ड ब्यूरोक्रेटों के भी यही हाल हैं. डॉक्टर, प्रोफेसर रोज ही रिटायरमेंट की उम्र बढ़ाने के लिए हड़ताल करते रहते हैं. कहीं 60 से 62, तो कहीं 62 से 65 की उम्र में रिटायरमेंट चाहते हैं. यह वासना है. वासना की यह आग कभी तृप्त होती नहीं दिखती. क्या यही जीवन है? यही हमारा सार्वजनिक-निजी एप्रोच होना चाहिए? क्या जीवन में एक वीतराग बोध या भाव नहीं होना चाहिए? अनासक्ति का अंश? हमारे यहां यह भी दर्शन चलता है कि आसपास किसी को पनपने न दो, ताकि अपनी गद्दी सुरक्षित रहे. कितना छोटापन या संकीर्ण सोच! क्या इस रास्ते कोई संस्था, समाज या मुल्क दीर्घजीवी या मजबूत होंगे? हम समाज की दृष्टि से बहुत छोटी इकाई हैं. नगण्य. अस्तित्वविहीन. कोई भ्रम नहीं है कि मेरा निजी वजूद क्या है? इस सृष्टि-ब्रह्मांड में तिनका से भी कमजोर. पर मेरे सोच-विचार और जीवन दर्शन में यह बात रही है कि अपने स्तर पर हम जैसा सोचते हैं, बनने की कोशिश करें. संभव सीमा तक. अपनी हजारों-लाखों कमियों के साथ. यह कहने-बताने में कोई अहंकार या प्रगल्भता नहीं है. यह बू आये, तो माफ करेंगे.

मानसिक शांति सबसे जरूरी
रांची में योगदा मठ है. ‘ऑटोबायोग्राफी अॅाफ योगी’ के लेखक और 20वीं सदी के महान योगी परमहंस योगानंद द्वारा स्थापित. वहां मेरा जाना होता है. वर्ष में एक बार वे शरद संगम का आयोजन करते हैं. भारत के कोने-कोने से और लगभग 40 देशों के साधक आते हैं. एक से एक लोग. वैज्ञानिक, विद्वान, फिल्म से जुड़े, साहित्य से जुड़े. श्रेष्ठ मस्तिष्क के लोग. वर्ष 1996 (नवंबर) में मैं पहली बार इसमें शरीक हुआ. यहां वैज्ञानिक सीवी रमण के परिवार से आये एक साधक हैं. पहुंचे हुए. उनके विचार (टॉक) सुन रहा था. वह जीवन की सफलता पर बोल रहे थे. कहा – सीवी रमण की आत्मकथा पढ़ें. रिटायर होने के बाद वह अशांत और परेशान रहने लगे. वैज्ञानिक मान्यताओं पर उनके मन में बुनियादी सवाल उठने लगे. जीवन के मौलिक सवाल बेचैन करने लगे. घर के आगे बोर्ड लगवा दिया ‘ विजिटर्स टू कीप ऑफ नाट टू डिस्टर्ब’ (अतिथि आकर परेशान न करें).

वह कहने लगे ‘माई लाइफ हैज बीन ए अटर फेलियर (मेरा जीवन नितांत विफल रहा है). यह भी माना कि मैंने जो काम किया, वह पश्चिमी वैज्ञानिक मान्यताओं के तहत था. हमारे देश के विज्ञान-परंपराओं के तहत मैं कुछ नहीं कर सका. फिर उन्होंने नोबेल पुरस्कार पाये वैज्ञानिक चंद्रशेखर के जीवन के प्रसंग सुनाये. चंद्रशेखर जब शीर्ष पर थे, तो पूछा गया-क्या आपका निजी जीवन सुखी है? उनका उत्तर था, किसी वैज्ञानिक का निजी जीवन नहीं होता. अब प्राय: मैं सोचता-परखता हूं कि जो किया, वह कितना उपयोगी था? जीवन के अंतिम पहर में उन्होंने अपने एक और इंटरव्यू में कहा कि जीवन पुन: मिला, तो वह हिमालय में जा बैठेंगे. ॠ षियों की राह पर चलेंगे. यह भी उन्होंने माना कि सब कुछ पा लेने के बाद भी ‘पीस अॅाफ माइंड’ (मानसिक शांति) नहीं है. एक और वैज्ञानिक (शायद लार्ड कैल्विन) का उन्होंने (साधक संत) उल्लेख किया. वह 55 वर्ष तक वैज्ञानिक रहे. महान वैज्ञानिकों में से एक. एक शब्द में उन्होंने अपने लंबे वैज्ञानिक जीवन का निचोड़ सुनाया ‘फेलियर’ (विफल).

जीवन में नवीनता जरूरी है
योगदा के उन साधक संत ने कहा – यह सब मैं क्यों सुना या कह रहा हूं, क्योंकि जीवन में संतुलन होना चाहिए. मैं अत्यंत मामूली इनसान हूं. मुझे अपने बारे में भ्रम नहीं है. मैं देश की 111 करोड़ की भीड़ का एक हिस्सा भर हूं. हम सबका परिचय इतना, इतिहास यहीं उमड़ी कल थी, मिट आज चली की तरह है. मैं ऐसा इसलिए हूं कि ऐसे ही तथ्यों से मुझे जीवन के बारे में निखरने-जानने की प्रेरणा मिलती रही है. समझ विकसित होती नहीं है. इस दृष्टि से ही एक निस्संगता का भाव पैदा होता रहा है. इसलिए जीवन के बड़े निर्णय करते समय ऐसे शाश्वत सच मेरे मन-मस्तिष्क में रहते हैं. यह बोध और भाव नहीं रहता, तो दो बड़े घरानों (टाइम्स ऑफ इंडिया और आनंद बाजार पत्रिका ), महानगरों की पत्रकारिता, ग्लैमर-सत्ता के सोहबत की पत्रकारिता छोड़ कर यहां आना नहीं होता. धर्मयुग, रविवार जैसी पत्रिकाओं में काम, हिंदी पत्रकारों के बीच से अकेले पीएमओ में रह लेने और उसके बाद लगातार बड़े ऑफरों को छोड़ कर मुसीबतों-संघर्षों का जीवन नहीं चुनता. पर एक ही रोल (भूमिका) में रहने से-अटकने से क्या जीवन में नवीनता रहेगी?
अनैतिक है प्रतिभाओं को बढ़ने से रोकना
डॉ. लोहिया के इस निबंध-विचार ने युवा दिनों से ही प्रेरित किया कि चीजों से चिपकना या लगातार बंध कर दूसरों को आगे आने की जगह न देना, नीचे के नेतृत्व को या साथ की प्रतिभाओं को फलने-फूलने या बढ़ने का मौका नहीं देना अनैतिक है. लगभग 22 वर्ष ड्राइविंग सीट पर रहना, सबसे कठिन दिनों में रहना, क्या यह कम है? क्या पद पुश्तैनी होने चाहिए? राजनीति में बढ़ते वंशवाद की तरह. लाभ और लस्ट (लालसा) के इस दौर में हमें भी वैसा ही होना चाहिए, जैसा दूसरे हैं? पांव कब्र में, पर पद किसी कीमत पर चाहिए. हिंदी के कवि श्रीकांत वर्मा ने काशी में अपने एक रिश्तेदार का संस्मरण लिखा है.
अत्यंत शिक्षाप्रद. उनके एक रिश्तेदार मृत्युशय्या पर थे. बोल नहीं पाते थे. रसगुल्ले के शौकीन थे. जब दिल्ली से श्रीकांतजी काशी आये. यह मिठाई लेकर गये, आवाज दी, तो गले से घरघराने की आवाज आने लगी. लगातार कोमा में थे. सुन्न पड़े थे. पर मनपसंद मिठाई का नाम सुन कर भाव उभरा. इंद्रियां हिली-डुलीं. संसार से इतना बंधना भी क्या सही है?
..जारी, अगली किस्त कल पढ़ें
10 फरवरी, 2011

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