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हाइकोर्ट लालू के आग्रह पर ही मॉनिटरिंग कर रहा

।। सरयू राय ।। सरकारी खजाने से एक हजार करोड़ की लूट हुई चारा घोटाले के नाम से चर्चित, बिहार का पशुपालन घोटाला अपने समय का सबसे बड़ा घोटाला है. बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद इसके प्रमुख अभियुक्त हैं. सीबीआइ की विशेष अदालत ने उन्हें दोषी करार दिया है. इस घोटाले में सत्ताधारी नेताओं […]

।। सरयू राय ।।

सरकारी खजाने से एक हजार करोड़ की लूट हुई

चारा घोटाले के नाम से चर्चित, बिहार का पशुपालन घोटाला अपने समय का सबसे बड़ा घोटाला है. बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद इसके प्रमुख अभियुक्त हैं. सीबीआइ की विशेष अदालत ने उन्हें दोषी करार दिया है.

इस घोटाले में सत्ताधारी नेताओं की मिलीभगत से सरकारी खजाने से करीब एक हजार करोड़ रुपये की लूट हुई थी. इसके बाद देश में इससे कई गुना बड़े घोटाले हुए, पर चारा घोटाला इस मामले में अलग है कि इसमें कमीशनखोरी या दलाली के माध्यम से परोक्ष लूट नहीं हुई, बल्कि सत्ताधारी राजनेताओं, अफसरों और सप्लायरों की मिलीभगत से सीधे खजाने से पैसा निकाला गया.

इसकी एक अन्य विशेषता यह है कि भारतीय लोकतंत्र के तीनों आधार स्तंभोंविधायिका, कार्यपालिका न्यायपालिका के साथ ही चौथे स्तंभ पत्रकारिता की भी प्रत्यक्षपरोक्ष भूमिका भी पायी गयी.

इस घोटाले की आधिकारिक पुष्टि 24 जनवरी 96 को हुई, जब सिंहभूम के तत्कालीन डीसी अमित खरे की चाईबासा कोषागार के क्रियाकलापों की जांच रिपोर्ट बिहार सरकार के सचिवालय पहुंची.

हालांकि, इसके पूर्व अनेक बार पशुपालन विभाग में भ्रष्टाचार की खबरें सार्वजनिक हुईं, पर सरकार इस पर परदा डालती रही, घोटालेबाजों को संरक्षण देती रही.

स्वयं मैंने 11 अक्तूबर, 1994 को जय प्रकाश नारायण के जन्मदिन पर बिहार भाजपा के महामंत्री के नाते लालू सरकार के खिलाफ एक 42 सूत्री आरोप पत्र जारी किया. इसमें सात बिंदु पशुपालन घोटाले और सरकारी खजाने से अवैध निकासी के बारे में थे. इसकी जानकारी मुझे मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार के नाते नवभारत टाइम्स पटना कुछ अन्य अखबारों के लिए आर्थिक विषयों पर स्तंभ लिखने के दौरान बिहार सरकार के विभिन्न वित्तीय वर्षो के बजट और वित्त आयोग को प्रेषित स्मारपत्रों के आंकड़ों के विश्‍लेषण के दौरान हुई थी.

इसके पहले 1992 में रांची में विमान रोक कर आयकर अफसरों ने पशुपालन माफिया द्वारा अवैध रूप से ले जाये जा रहे तीन करोड़ रु पये और आभूषण जब्त किये थे. मेरे मित्र सहपाठी तारकेश्वर सिंह तब रांची में आयकर अन्वेषण के उप निदेशक थे. मैंने उनसे इस बारे में जानना चाहा, तो उन्होंने कुछ बताने से मना कर दिया, पर रांची से प्रकाशित अखबार प्रभात खबर देख लेने का संकेत दिया. इसने कई दिनों तक इस बारे में जो खबरें छापी थीं, वे सत्य के समीप थीं. इसके पहले भी मुझे इस बारे में कुछ सूत्रों से सूचना मिली थी.

मार्च 1989 में, निगरानी ब्यूरो में तैनात उमेश सिंह ने एक दिन मुझे बताया कि पशुपालन माफिया जिस तरह से खजाना लूट रहे हैं, उसके सामने सहकारिता का भ्रष्टाचार कुछ नहीं है. उस समय मेरे कई वर्षो के संघर्ष के परिणामस्वरूप भागवत झा आजाद सरकार ने सहकारिता माफिया के खिलाफ कार्रवाई की थी और शीर्ष सहकारी संस्थाओं को सुपरसीड कर दिया था.

उमेश बाबू के अनुसार पशुपालन घोटाले का केंद्र बिहार विधानसभा थी. उस समय यह बात मेरी समझ में नहीं आयी. बाद में सरकार के बजट एवं अन्य आर्थिक दस्तावेजों के विश्‍लेषण से यह स्पष्ट हो गया.

इसके कुछ दिन बाद मैं अपने एक अन्य मित्र सहपाठी अशोक कुमार सिंह, जो बाद में झारखंड सरकार में मुख्य सचिव बने, से मिलने गया. वे तब पशुपालन विभाग में संयुक्त सचिव थे. वह बहुत उद्विग्‍न थे. पूछने पर बताया कि रांची और हजारीबाग जिले के विभागीय कार्यालयों के निरीक्षण के दौरान मुझे काफी अनियमितताएं मिली हैं. जिसका उल्लेख मैंने अपनी रिपोर्ट में किया है. इस पर सचिव को घोर आपत्ति है. मुझ पर रिपोर्ट बदलने का दबाव है.

तबादले की भी चेतावनी दी गयी है, पर मुझे इसकी चिंता नहीं है. उन्होंने बताया कि दूरदराज से पशु ढोकर लाने मे अनियमितताएं हैं. एक ओर पशुओं के लिए दवाचारा खरीदने पर भारी खर्च दिखाया गया है, तो दूसरी ओर बताया गया है कि दवाचारे के अभाव में पशु मर गये हैं.

मैंने उनसे जानना चाहा कि पशुपालन विभाग में अनियमितता के प्रमाण कैसे मिल सकते हैं, तो उन्होंने मुझे निदेशालय के एक अधिकारी डॉ आरएस शर्मा से मिलने का सुझाव दिया और बताया कि यह व्यक्ति अकेले पशुपालन माफिया से जूझ रहा है. अगले दिन मैं शर्मा से मिला. वे व्यथित और आक्रोशित थे. उन्होंने कहा कि आपको अशोक बाबू ने भेजा है, तो मैं आपको जरूर जानकारियां दूंगा.

लेकिन इसके पहले अनेक लोग मेरे यहां आकर कागजात ले गये, फिर लौटे नहीं और इस विषय को उठाया. मैंने उनसे कहा कि मैं आपसे कागजात नहीं लूंगा, क्योंकि यदि मैं भी इस विषय के साथ न्याय नहीं कर पाया, तो आपकी नजर में मैं भी इन्हीं लोगों की श्रेणी में जाऊंगा.

11 अक्तूबर, 1994 को पार्टी के लिए आरोप पत्र तैयार करते समय उपर्युक्त तमाम वाकये मेरे जेहन में थे. आरोप पत्र प्रसारित करने का दायित्व मुझे ही सौंपा गया. क्योंकि अवैध निकासी के बारे में मेरे आरोपों पर पार्टी के नेतागण भी भरोसा करने को तैयार नहीं थे. 1977 की मोरारजी सरकार में राज्य मंत्री रहे डॉ रामकृपाल सिन्हा जैसे प्रबुद्ध नेता भी यह सवाल करते थे कि वित्तीय नियंत्रण के तमाम नियमों और सीएजी की ऑडिट प्रणाली के बावजूद सरकारी खजाने से अवैध निकासी कैसे संभव है. मेरे तर्क किसी के गले नहीं उतर पा रहे थे.

सरकारी वित्त प्रबंधन में अनियमितता पर अपनी रिपोर्ट में सीएजी हर वर्ष सवाल उठाते थे. 1989 में ही बिहार के उप महालेखाकार ने सूचित किया था कि पशुपालन अधिकारियों ने जिन वाहनों से पशुओं को पंजाबहरियाणा से ढोकर लाया दिखाया है, वे नंबर दुपहिया वाहनों के पाये गये हैं. इस पर पशुपालन निदेशक, सचिव ने कारवाई नहीं की. लालू सरकार के मंत्री रामजीवन सिंह ने इसकी सीबीआइ जांच कराने के लिए लिखा, पर मुख्यमंत्री ने कोई कार्रवाई नहीं की.

इसके बाद तीन वर्षो तक सीएजी की रिपोर्ट ही नहीं आयी, क्योंकि राज्य सरकार ने अपना एकाउंट ही समय पर नहीं भेजा. दिसंबर, 1995 में एक साथ तीन सालों की सीएजी ऑडिट रिपोर्ट विधानसभा में रखी गयी.

इनका अध्ययन करने के बाद जनवरी 1996 के प्रथम सप्ताह में मेरी पत्रकारिता के दिनों के मित्र और वरीय पत्रकार सुकांत जी ने मुझे बताया कि विगत दोतीन वर्षो से पशुपालन घोटाले और सरकारी खजाने से अवैध निकासी की जो बातें आप कहते रहे हैं, वे सीएजी रिपोर्टो से सही साबित हो रही हैं. फिर मैंने कोशिश की कि इस बारे में पटना हाइकोर्ट में याचिका दाखिल की जाये. पर मेरे अधिवक्ता मित्रगण सहमत नहीं हुए.

तब मैंने इन रिपोर्टो के आधार पर एक पत्र तैयार कर छह जनवरी 1996 को वित्त आयुक्त को भेजा. पटना के कुछ अखबारों में इसकी खबर भी छपी.

इसका संज्ञान लेकर तत्कालीन वित्त आयुक्त वीएस दूबे ने सभी जिलाधिकारियों उपायुक्तों को अपने जिलों के कोषागारों का निरीक्षण करने का निर्देश दिया. इसी क्र में चाईबासा कोषागार में मिली अनियमितताओं के बारे में वहां के उपायुक्त अमित खरे ने सरकार को सूचित किया. इसी के साथ मेरे आरोपों की आधिकारिक पुष्टि हो गयी.

उस समय लालू जी दिल्ली मे थे.

वे वहां जनता दल का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने की जुगत भिड़ा रहे थे. उन्होंने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया. उन्हें लगा कि एक जिले की बात है, कोई फर्कनहीं पड़ेगा. पर घोटाले का क्षेत्र विस्तार हो जाने के बाद पूरा सरकारी अमला इसे दबाने में जुट गया. विकास आयुक्त फूलचंद के नेतृत्व में विशेष कार्य दल गठित किया गया. इस कार्य दल ने संबंधित जिलों में जाकर जांच के नाम पर सबूत नष्ट किया. रांची के डोरंडा कोषागार की सील तोड़ कर कागजात निकाले गये.

हजारीबाग में कर्मचारियों ने ही जिला पशुपालन कार्यालय में आग लगा दी. अन्य कई स्थानों पर भी कागजात नष्ट किये गये.

फरवरी, 2006 के प्रथम सप्ताह में, हमलोगों ने पटना हाइकोर्ट में जनहित याचिका दायर कर घोटाले की सीबीआइ जांच का अनुरोध किया. इसी दौरान लालू सरकार ने विशेष आदेश निकाला कि बिना सरकार से पूछे उसके अफसरों के खिलाफ सीबीआइ जांच का आदेश नहीं दिया जा सकता.

साथ ही, कोर्ट और केस दर्ज करनेवालों को पटाने के प्रयास भी हुए. 11 मार्च, 1996 को पटना हाइकोर्ट ने 1977-78 से 1995-96 तक की अवधि में हुए पशुपालन घोटाले की जांच सीबीआइ से कराने का ऐतिहासिक फैसला दिया. सरकार इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गयी, पर उसने पटना हाइकोर्ट का फैसला बरकरार रखा. इस पर बिहार सरकार के वकील एफएस नरीमन ने अनुरोध किया कि सीबीआइ जांच कोर्ट की देखरेख में हो.

कारण कि केंद्र में कांग्रेस की सरकार है और बिहार में उसके विरोधी जनता दल की सरकार है. अदालत ने यह अनुरोध मान कर पटना हाइकोर्ट को पशुपालन घोटाले की जांच की मॉनिटरिंग करने का आदेश दे दिया.

जांच शुरू हुई, तो इसमें हर कदम पर अड़ंगा डालने की कोशिशें सरकार की तरफ से हुईं. 1996 के आम चुनाव के बाद लालू की हिस्सेदारी वाली सरकार बन गयी. केंद्र में देवगौड़ा और गुजराल सरकारों के दौरान सीबीआइ पर अनुचित दबाव बनाने के प्रयास हुए. इस दौरान पटना हाइकोर्ट की मॉनिटरिंग नहीं होती, तो मामला कब का रफादफा हो गया होता.

अदालत के हस्तक्षेप से पटना और रांची में पदस्थापित डीआइजी रैंक के दो सीबीआइ अधिकारियों को बदला गया. एक के खिलाफ तो मॉनिटरिंग बेंच ने निंदावाली टिप्पणी लिखवायी. दूसरे की जगह शीघ्र नया अधिकारी भेजने का आदेश दिया.

मुकदमा संख्या आरसी 29/96, जिसमें लालू प्रसाद मुख्य षड्यंत्रकारी अभियुक्त हैं, में जांच पूरी करने और आरोप पत्र दाखिल करने के लिए सीबीआइ को जमीनआसमान एक करना पड़ा. इसके बाद लालू को गिरफ्तार करने में बिहार प्रशासन ने हाथ खड़े कर दिये. सेना बुलाने की नौबत आयी.

केंद्र और राज्य की सरकारों का मनमिजाज मिल जाये, तो लोकतंत्र और संविधान के प्रावधान कितने अशक्त हो जाते हैं, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण दिख रहा था. ऐसी स्थिति में डॉ यूएन विश्वास जैसा अधिकारी ही था, जिसने समस्त दबावों का सामना करते हुए अपना भविष्य दावं पर लगा कर कर्तव्य निभाया और लालू को जेल तक पहुंचा दिया. लालू जेल की जगह सरकारी विश्रमागार में रहे, पर इसकी कीमत तत्कालीन सीबीआइ निदेशक जोगिंदर सिंह को अपना पद गंवा कर चुकानी पड़ी.

इसके बाद जांच प्रक्रि या को शिथिल करने, मुकदमों की सुनवाई में विलंब कराने के लिए बातबात पर ऊपरी न्यायालयों का दरवाजा खटखटाने की कवायद चल पड़ी. सीबीआइ और आयकर अधिकारियों ने पर्याप्त परिश्रम कर सबूत जुटाये, पर इनके आला अधिकारी सत्ता के समक्ष शीर्षासन का शर्मनाक उदाहरण पेश कर इनकी मेहनत पर पानी फेरने में लगे रहे.

सीबीआइ की विशेष अदालतों में जजों की कमी, सीबीआइ को सुविधाएं देने में कोताही, अभियुक्तों गवाहों को सम्मन भेजने के लिए सिपाहियों की कमी, बचाव पक्ष के राजनीतिक अभियुक्तों द्वारा गवाहों की भारी संख्या खड़ी कर सुनवाई में विलंब कराने की कोशिश, संवेदनशील मुकदमों में बचाव के लिए जजों को एन मौके पर प्रोन्नति दिला कर मुकदमे की सुनवाई फिर से कराने की रणनीति, सीबीआइ की विशेष अदालत के आदेश के विरुद्ध एक से अधिक बार ऊपरी न्यायालयों तक अपील करने आदि हथकंडे अपना कर प्रभावशाली अभियुक्तों की सजा टलवायी जाती रही.

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