।। अनुज कुमार सिन्हा ।।
1992 और उसके आसपास जब प्रभात खबर में पशुपालन विभाग में हो रही भारी गड़बड़ी (चारा घोटाले) की खबर छप रही थी, तो शायद ही किसी ने सोचा होगा कि इस केस में दो–दो पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद, डॉ जगन्नाथ मिश्र, सांसद जगदीश शर्मा समेत कई अफसरों (आइएएस भी), दलालों–ठेकेदारों को जेल की सजा होगी.
प्रभात खबर उन दिनों सिर्फ रांची से निकलता था. पटना संस्करण भी आरंभ नहीं हुआ था. झारखंड अलग राज्य नहीं बना था, बिहार का ही हिस्सा था. इसलिए चारा घोटाले में शामिल लोग यह मान बैठे थे कि रांची में छप रही खबरों का पटना (राजधानी) में असर नहीं पड़नेवाला. बात भी सही साबित हो रही थी.
प्रभात खबर ने 1992 से इस मामले को अभियान के तौर पर उठाना शुरू किया. इसके पहले 1985 या उसके बाद कभी–कभी गड़बड़ी की खबर छपती थी. प्रभात खबर को खबर मिली थी कि यह बड़ा घोटाला है, करोड़ों का है, इसलिए जनता के पैसे की इस लूट का परदाफाश करना उसका दायित्व/धर्म था. काम आसान
नहीं था.
कार्रवाई तभी होती, जब अभियान चलता, जनांदोलन होता, अफसर तैयार होते, सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग कार्रवाई के लिए आदेश देते. इसकी तैयारी आरंभ की गयी. प्रभात खबर में वरिष्ठ संवाददाताओं की टीम बनायी गयी. कल क्या छापना है, टीम के अलावा एक–दो ही लोगों को पता होता. दस्तावेज जमा होते, रिपोर्ट छपती.
खबर छपते ही प्रभात खबर की टीम को पशुपालन माफिया की ताकत का एहसास होने लगा. पहले उन्हें साथ लेने का प्रयास किया गया. जब प्रभात खबर के सहयोगी अपने काम में लगे रहे, तो धमकी मिली. बाहर से ताकतवर लोगों के जरिये दबाव बनाया गया. हद तब हो गयी जब चारा घोटाले में शामिल एक अधिकारी का बेटा प्रभात खबर के दफ्तर में घुस कर धमकी देने लगा.
इन धमकियों की परवाह किये बगैर प्रभात खबर रिपोर्ट छापता रहा. इसके बावजूद प्रशासन निष्क्रिय. नेता चुप. पटना में कुछ नेता (जैसे सरयू राय, ललन सिंह, शिवानंद तिवारी, रविशंकर प्रसाद आदि) इस मामले को आगे बढ़ाने के प्रयास में लगे हुए थे, पर झारखंड (उस समय का दक्षिण बिहार) में ऐसे प्रयास नहीं के बराबर हो रहे थे.
अभियान चलाने के पहले ही इस बात का अंदेशा था कि कार्रवाई आसान नहीं होगी. कार्रवाई करनेवाले भी मिले हुए हैं. घोटाले का पैसा नीचे से ऊपर तक जा रहा है. लगभग हर राजनीतिक दल के नेता पशुपालन विभाग के अधिकारियों के दरबार में हाजिरी लगाते थे. खाली हाथ लौटते भी नहीं थे.
गाय, बैल, सांड़ के चारे का पैसा ये अधिकारी खा रहे थे और इनका पैसा राजनीतिक दलों के नेता. उन दिनों हालात ऐसे बन गये थे कि जिस नेता को पैसे की जरूरत होती, धरने पर बैठ जाता. पशुपालन माफिया बुलाते, दस–बीस हजार दे देते, धरना खत्म हो जाता.
ये माफिया दानी भी थे. कोई भी पहुंच जाता कि बेटी की शादी है, कार्यक्रम करना है, पूजा का चंदा चाहिए, सभी को कुछ न कुछ मिलता ही था. शायद ही कोई दल/नेता हों, जिन्होंने बहती गंगा में डुबकी न लगायी हो. इसलिए जब खबर छपनी शुरू हुई, तो नेता व राजनीतिक दलों की ओर से भी विरोध हुआ. हां, इसी रांची शहर में कुछ ईमानदार, कर्मठ, जुझारू नेता थे जो प्रभात खबर के साथ थे, पर ये लोग जोखिम लेना नहीं चाहते थे.
समाज के कुछ सक्रिय कार्यकर्ता रात में दीवारों पर पशुपालन माफिया के खिलाफ या जांच की मांग को लेकर नारे लिखते थे. फिर भी कोई कार्रवाई नहीं हो रही थी. लगातार खबरें छपने का असर यह हुआ था कि घोटाले के दस्तावेज प्रभात खबर को मिलने लगे. आयकर विभाग के अधिकारी सक्रिय हो गये थे. एयरपोर्ट पर दो–दो करोड़ रुपये नकद, व सोना पकड़ा गया. प्रभात खबर के अभियान को पशुपालन विभाग के कुछ ईमानदार अफसरों का भी सहयोग मिला. अब तक यह बात सार्वजनिक हो चुकी थी कि करोड़ों का घोटाला हो रहा है, नेता–अफसर–दलाल मिले हुए हैं. पर, इन घोटालेबाजों की ताकत इतनी थी कि तीन साल तक इनके खिलाफ एफआइआर तक दर्ज नहीं की गयी. 1996 में चाईबासा में डीसी थे अमित खरे (बेहद ईमानदार) दबाव में नहीं आनेवाले अफसर.
उन्होंने चाईबासा में प्राथमिकी दर्ज करायी. उसके बाद ही मामला आगे बढ़ा. जांच के क्रम में एक के बाद एक अफसर–नेता गिरफ्तार होने लगे.
टाइम्स आफ इंडिया, ट्रिब्यून, जनसत्ता जैसे देश के प्रसिद्ध अखबारों ने लगातार यह लिखा कि कैसे प्रभात खबर ने चारा घोटाले का परदाफाश किया. सच भी यही है कि अगर प्रभात खबर ने इस मामले को अभियान के तौर पर नहीं लिया होता, तो पशुपालन विभाग में हुई गड़बड़ी का पता ही नहीं चल पाता.