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रूमा पाल : न्यायप्रियता का संकल्प

न्यायमूर्ति रूमा पाल सुप्रीम कोर्ट के पूरे इतिहास में जज बनने वाली तीसरी महिला हैं. न्यायमूर्ति रूमा पाल उच्च न्यायपालिका में एक बहुत ईमानदार, विनम्र व विवेकशील जज मानी गयी हैं. अपने कार्यकाल के दौरान वे किसी भी सामाजिक या व्यक्तिगत जलसे में शामिल होने से बचती रहीं, यहां तक कि अमेरिकी विश्वविद्यालय के बुलावे […]

न्यायमूर्ति रूमा पाल सुप्रीम कोर्ट के पूरे इतिहास में जज बनने वाली तीसरी महिला हैं. न्यायमूर्ति रूमा पाल उच्च न्यायपालिका में एक बहुत ईमानदार, विनम्र व विवेकशील जज मानी गयी हैं. अपने कार्यकाल के दौरान वे किसी भी सामाजिक या व्यक्तिगत जलसे में शामिल होने से बचती रहीं, यहां तक कि अमेरिकी विश्वविद्यालय के बुलावे पर एक सम्मेलन में भाग लेने से भी इनकार कर दिया, एक जज के रूप में उन्हें किसी अन्य संस्था से अपनी यात्र का टिकट लेना स्वीकार्य नहीं था.

न्यायपालिका की गरिमा के प्रति बेहद संजीदा थीं

।।रवि दत्त बाजपेयी।।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय में आज तक कुल 210 जज हुए हैं, इस कुल संख्या में 30 सेवारत, 141 सेवानिवृत्त व 39 सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश शामिल हैं. 210 विशिष्ट व्यक्तियों की इस सूची में केवल पांच महिलाएं हैं, सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति फातिमा बीवी, सुजाता मनोहर और रूमा पाल तथा अभी सेवारत न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्र एवं रचना देसाई. सुप्रीम कोर्ट के जजों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व मात्र 2.4 प्रतिशत है. अभी तक सुप्रीम कोर्ट में किसी महिला को मुख्य न्यायाधीश का पद नहीं मिला है और इस पद के सबसे नजदीक पहुंचने वाली महिला, न्यायमूर्ति रूमा पाल ही थीं.

आज के दौर में सर्वोच्च न्यायपालिका में न सिर्फ जजों की चयन प्रक्रि या, बल्किचयनित व्यक्तियों की ईमानदारी, सच्चई और योग्यता भी बहस के घेरे में है. भारत की सर्वोच्च न्यायपालिका में रूमा पाल एक दुर्लभ व्यक्तित्व हैं, केवल इसलिए नहीं कि वे एक महिला जज थीं, बल्किइसलिए भी कि उनकी न्यायप्रियता और सत्य निष्ठा ने इस संस्था को बहुत समृद्ध किया.

तीन जून, 1941 को जन्मी रूमा पाल ने विश्व-भारती विश्वविद्यालय से स्नातक, नागपुर विवि से एलएलबी तथा ऑक्सफोर्ड से बैचलर ऑफसिविल लॉ की उपाधि लेने के बाद, वर्ष 1948 में कोलकाता हाइकोर्ट में वकालत आरंभ किया. अगस्त 1990 में रूमा पाल कोलकाता हाइकोर्ट में जज बनी और जनवरी 2000 में उन्हें सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत किया गया. वर्ष 2000 में सुप्रीम कोर्ट में नये जजों की नियुक्ति को लेकर न्यायपालिका और तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन के बीच ठन गयी. राष्ट्रपति नारायणन इस सूची के साथ न्यायमूर्ति केजी बालाकृष्णन का नाम भी जोड़ना चाहते थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट इसके लिए तैयार नहीं था, इस गतिरोध के चलते न्यायमूर्ति रूमा पाल, दोराई स्वामी राजू और योगेश कुमार सभरवाल की नियुक्ति को राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने में एक-दो माह का विलंब हुआ.

सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए वरिष्ठता का निर्धारण जज के कार्यकाल की अवधि से होता है. यदि न्यायमूर्ति सभरवाल और रूमा पाल ने एक साथ शपथ ग्रहण किया होता, तो वर्ष 2005 में दोनों ही मुख्य न्यायाधीश पद के लिए बराबर वरिष्ठता प्राप्त होते. इस स्थिति में सुप्रीम कोर्ट को ‘टाइ-ब्रेकर’ के लिए नाम के अक्षरों का क्र म या हाइकोर्ट में उनके कार्यावधि के आधार पर यह निर्णय करना पड़ता कि मुख्य न्यायाधीश कौन बनेगा, वैसे हाइकोर्ट में न्यायमूर्ति सभरवाल की कार्यावधि रूमा पाल से अधिक थी, लेकिन अक्षरों के क्र म से न्यायमूर्ति रूमा पाल पहले आती थीं. इन तीनों जजों का शपथ ग्रहण समारोह, सुप्रीम कोर्ट की स्वर्ण जयंती के उपलक्ष्य में 28 जनवरी, 2000 को रखा गया. न्यायमूर्ति सभरवाल और दोराई स्वामी राजू के शपथ ग्रहण के कुछ घंटे बाद रूमा पाल ने शपथ ग्रहण किया, लेकिन वरिष्ठता क्र म में वह इन्हीं कुछ घंटों से पिछड़ गयीं और देश अपनी पहली महिला मुख्य न्यायाधीश पाने से वंचित रह गया. योगेश कुमार सभरवाल और राष्ट्रपति नारायणन की पसंद केजी बालाकृष्णन नियत समय पर भारत के मुख्य न्यायाधीश बने, लेकिन इन दोनों के कार्यकाल को सर्वोच्च न्यायपालिका का उज्ज्वल दौर नहीं माना जाता है.

सुप्रीम कोर्ट में अपने कार्यकाल में रूमा पाल ने भारत सरकार द्वारा मोबाइल फोन की खरीद और सुविधा पर बिक्र ी कर लगाने के आदेश को निरस्त किया था. न्यायमूर्ति पाल ने अपने एक निर्णय में पति-पत्नी के बीच शारीरिक संबंधों के न रहने की स्थिति में पत्नी द्वारा तलाक मांगने को उचित ठहराया था, जो एक बहुत ही प्रगतिशील निर्णय था.

रूमा पाल, न्यायपालिका की गरिमा के प्रति बेहद संजीदा थीं, कोलकता के एमरी अस्पताल के चिकित्सकों की लापरवाही के मुकदमे की सुनवाई हेतु गठित पीठ में वह भी शामिल थीं. जब रूमा पाल को मालूम हुआ कि कोलकाता हाइकोर्ट में इनमें से कुछ चिकित्सकों के बचाव पक्ष के वकील उनके पति समरादित्य पाल थे, तो उन्होंने खुद को इस मुकदमे से अलग कर लिया. सिगरेट निर्माता आइटीसी पर भारत सरकार ने 803 करोड़ रु पये आबकारी शुल्क जमा करने का आदेश दिया, तो इस आदेश के विरु द्ध आइटीसी ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति रूमा पाल और पी वेंकटरामा रेड्डी ने आइटीसी को राहत देने का निर्णय लिया, न्यायमूर्ति पाल ने आइटीसी के वकील को इस निर्णय का अंतिम प्रारूप इस शर्त पर पढ़ने दिया कि वे इसे अदालत कक्ष से बाहर लेकर नहीं जायेंगे. न्यायमूर्ति पाल की हिदायत के बावजूद आइटीसी के वकील इसे लेकर अदालत से बाहर चले आये और केवल कुछ ही मिनटों में मुंबई के शेयर बाजार में आइटीसी के शेयर मूल्य में अचानक उछाल आ गया. रूमा पाल ने आइटीसी के वकील की इस हरकत पर सख्त एतराज करते हुए अपना निर्णय वापस ले लिया और अंतिम निर्णय सुनाने की तारीख भी आगे बढ़ा दी.

तीन जून, 2006 को न्यायमूर्ति रूमा पाल सेवानिवृत्त हो गयीं, लेकिन वे अभी भी सार्वजनिक जीवन में सक्रि य हैं. वर्ष 2011 के वीएम तारकुंडे स्मृति व्याख्यान में उन्होंने उच्च न्यायपालिका के चयन प्रक्रि या की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठाये और उच्च न्यायपालिका के सात गुनाहों की सूची प्रस्तुत की, जिनमें, अपने साथी जजों के अनुचित कदमों पर परदा डालना, न्यायिक प्रक्रि या में अपारदर्शिता, दूसरों के लेखन की चोरी करना, पाखंड, अहंकारी व्यवहार, बेईमानी तथा सत्ताधारी वर्ग से अनुग्रह की आकांक्षा. एक जज के रूप में रूमा पाल के व्यवहार को अनुकरणीय माना जाता है, अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने एक अमेरिकी विश्वविद्यालय द्वारा सम्मेलन में शामिल होने का निमंत्रण अस्वीकार कर दिया, चूंकि एक जज के रूप में वे किसी भी संस्था से अपनी हवाई यात्र का टिकट नहीं लेना चाहती थीं. रूमा पाल की ईमानदारी और न्यायप्रियता उन्हें भारतीय न्यायपालिका में बहुत अलग व सम्माननीय स्थान प्रदान करती है.

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