योगेंद्र यादव
इधर प्रधानमंत्री चिर-परिचित छाती-ठोक अंदाज में अपनी सरकार की उपलब्धियों का बखान कर रहे थे, कह रहे थे कि उनकी सरकार ने देश को बचा लिया, तो उधर दिल्ली सरकार अपने 100 दिन का बाजा बजा रही थी, कह रही थी कि इतना काम तो आजतक किसी सरकार ने नहीं किया. आखिर राजनीति को इतना बड़बोला होने की क्या जरूरत है?
सच यह है कि 100 दिन तो किसी सरकार को अपने पांव पर खड़े होने में लग जाते हैं, मंत्रियों को फाइल और दफ्तर समझने में ही इतने दिन खप जाते हैं. एक-आध सीधी राहत और कुछ कागजी कार्यवाही के सिवा पहले 100 दिन में कुछ बड़ा काम हो नहीं सकता.
अच्छे काम का नक्शा बन सकता है, लेकिन 100 दिन में चमत्कार तो जादू के जोर या हाथ की सफाई से ही हो सकता है. इसलिए बेहतर यही होगा कि सरकार के दावों और विरोधियों के आरोपों को भूल जायें. दिल्ली सरकार को वक्त दें, शुभकामनाएं भी दें.
एक साल की बात कुछ और है.
एक साल में भी देश नहीं बदल सकता, सरकारी नीतियों के नतीजे अंतिम व्यक्ति तक नहीं पहुंच सकते, न ही सरकार में अगर घोटाले हो रहे हों, तो उनका परदाफाश एक साल में हो सकता है. लेकिन, साल भर में सरकार की नीतियां बन जाती हैं, काम का नक्शा तैयार हो सकता है, नीयत साफ दिखने लगती है. इसलिए, केंद्र सरकार के कामकाज पर एक शुरुआती टिप्पणी की जा सकती है.
प्रधानमंत्री और भाजपा नेतृत्व पिछले कई दिनों से ‘अच्छे दिन’ की चर्चा से बच रहा था. अपने एक साल पूरा होने पर खुद उन्होंने इस ‘अच्छे दिन’ का जिक्र करके शायद बहुत समझदारी का काम नहीं किया. ‘अच्छे दिन’ तो अब मजाक में तब्दील हो चुका है. अमित शाह मान चुके हैं कि मोदी जी ने हर किसी को हर कुछ देने के वादे में जुमलेबाजी की थी.
इसलिए, इस जुमलेबाजी को आधार मानकर मोदी सरकार का मूल्यांकन करना ठीक नहीं. कम से कम फिलहाल हम प्रधानमंत्री को उनके जुमले से मुक्त कर उनका मूल्यांकन करें. लेकिन, उनकी तुलना सिर्फ मनमोहन सिंह सरकार के अंतिम वर्ष से न करें. मनमोहन सिंह की सरकार अपने शासन के अंतिम सालों में नीति और राजनीति के लिहाज से लकवाग्रस्त हो चुकी थी. किसी भी सरकार के लिए पतन के उस गर्त तक लुढ़कना बहुत मुश्किल होगा.
आइए, मोदी सरकार के मूल्यांकन की शुरु आत उस विदेश नीति से करते हैं, जिसका बहुत ढोल पीटा जा रहा है. बेशक विदेश-नीति के मोरचे पर गर्मजोशी दिखी है, प्रधानमंत्री के विदेश दौरों से अप्रवासी भारतीयों और भारतवंशी विदेशियों के बीच उत्साह जगा है, विदेश में भारत की साख तनिक बढ़ी है, जो कि मनमोहन सरकार के ढुलमुल रवैये से एकदम ही अलग नजर आता है. पड़ोसी देशों तथा पूर्वी एशिया के मुल्कों से भारत के संबंध में सुधार हुआ है, लेकिन विदेश नीति के मामले में उपलब्धियां बस इतनी ही हैं, इससे ज्यादा नहीं.
मोदी सरकार की असल परीक्षा देश की अर्थव्यवस्था को संभालने की थी. फिलहाल मुद्रास्फीति के आंकड़े और अर्थव्यवस्था की सेहत बतानेवाले अन्य सूचकांक बेहतरी के संकेत कर रहे हैं, लेकिन इसका श्रेय अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में आयी तेज गिरावट को जाता है.
विनिर्माण-क्षेत्र के अहम हिस्से में कोई खास बढ़वार नहीं दिखती, निवेश का शोर बहुत है, लेकिन वह दरअसल अभी ठोस सच्चाई का रूप नहीं ले पाया है और रोजगार-विहीन विकास की पुरानी कहानी अर्थव्यवस्था के मोरचे पर बदस्तूर जारी है. सरकार की अपनी प्राथमिकताएं स्पष्ट नहीं हो पायी हैं और इससे भी बुरी बात यह है कि इस सरकार की नीतिगत प्राथमिकता में जनता है ही नहीं!
इस सरकार की आर्थिक नीति बस यही जान पड़ती है कि आर्थिक विकास के मामले में किसी भी कीमत पर चीन की राह पर चलना है. इस चक्कर में सामाजिक सुरक्षा और पर्यावरण का मोरचा मार खा रहा है.
मनरेगा और सर्वशिक्षा अभियान जैसी योजनाओं के खर्च में कटौती की बात जगजाहिर हो चुकी है. बीते कई सालों से पर्यावरण सुरक्षा के लिए नीतिगत पहलकदमियां हुई थीं, लेकिन यह सरकार पर्यावरण के मोरचे पर अपने कदम पीछे खींच रही है.
(जारी)
(लेखक संवाद अभियान के संस्थापक सदस्य हैं)