।। अनुज कुमार सिन्हा ।।
धन्य हैं मंत्री/वीआइपी के काफिले–स्कार्ट पार्टी में शामिल पुलिसकर्मी या चालक. कोई अंकुश नहीं, कोई रोकनेवाला नहीं. जब मूड में होते हैं, तो पता नहीं चलता कि जीप चला रहे हैं या विमान उड़ा रहे हैं.
सामने कोई भी हो, परवाह नहीं. हट जाओ, वरना कुचले जाओगे. जीप के बाहर आधा लटके पुलिसकर्मी हाथ में डंडा लेकर लोगों पर बरसाने से भी नहीं चूकते. एक मंत्री की स्कार्ट पार्टी ने रांची में एक बच्चे को कुचल दिया. उसकी मौत हो गयी.
जिस पुलिस को लोगों की सुरक्षा के लिए रखा गया है, वह अगर लोगों को, बच्चों को कुचलने लगे, तो ऐसी पुलिस किस काम की? ठीक है मंत्री की स्कार्ट पार्टी है, पर इतनी तेज रफ्तार से चलने की जरूरत भी क्या थी? अगर दो मिनट लेट हो जाते, तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ता? दरअसल यह पुलिस गाड़ियों के चालकों का घमंड है. जब वे मंत्री के साथ होते हैं, तो खुद को मंत्री से कम नहीं समझते. अगर रफ्तार ही दिखानी है, वेटेल सेबेस्टियन (वर्ल्ड चैंपियन) बनना है, तो इन्हें कार रेस में भेज दीजिए.
यह तो एक उदाहरण है कि झारखंड में मंत्री, सीनियर अफसर या बड़े राजनीतिज्ञों का काफिला चलता कैसे है. सायरन बजाता हुआ काफिला जिस सड़क से गुजरता है, दहशत फैल जाती है. जान बचानी है, तो किनारे हो जाइए. रास्ता खाली कराते हैं.
हटने में जरा सी देर हुई कि पड़ गया डंडा. इन्हें यह पता नहीं कि सुप्रीम कोर्ट ने इसी 19 अगस्त को वीआइपी वाहनों से सायरन हटाने का आदेश दिया है. कोर्ट ने भी माना है कि यह ब्रिटिश राज का याद दिलाता है.
सायरन बजा कर चलना कानून का उल्लंघन है. कोर्ट ने तो यह भी टिप्पणी की है कि जनता टैक्स देती है, तो उसे भी क्यों न सायरन लगाने की छूट दी जाये. इन टिप्पणियों का मंत्रियों, नेताओं, अफसरों और वीआइपी पर कोई असर नहीं पड़ता. याद कीजिए पी चिदंबरम वाली घटना को. जब वे गृह मंत्री थे, तो उन्होंने अपने वाहन में लाल बत्ती, सायरन और वीआइपी सुविधा लेने से मना कर दिया था.
यह कैसी डेमोक्रेसी है. कल तक सड़क पर बिना किसी सुरक्षा के घूमनेवाले जैसे ही विधायक–मंत्री बनते हैं, रातों–रात उन्हें खतरा महसूस होने लगता है. लाखों की सरकारी गाड़ी मिल जाती है, दर्जन भर सुरक्षा गार्ड मिल जाते हैं, थाना की सुरक्षा अलग. इसके बाद चलता है काफिला.
क्या शान है? चौक पर गुजरने के पहले ट्रैफिक को रोक दिया जाता है. मरीज है, मरनेवाला है, पर चिंता नहीं है. पहले मंत्री की गाड़ी गुजरेगी, फिर कोई जायेगा. यह सब बंद होना चाहिए. पड़ोसी राज्य बंगाल को देखिए. मुख्यमंत्री के साथ एक या दो गाड़ियां रहती हैं, पर झारखंड में मुख्यमंत्री हों, मंत्री हों या कुछ सीनियर अफसर, लंबा काफिला चलता है. जनता परेशान रहती है. मार खाने का डर अलग.
ये तो राज्य के नीति निर्माता हैं, मार्गदर्शक हैं. इन्हें तो उदाहरण पेश करना चाहिए. कुछ मंत्री–अध्यक्ष अपवाद दिखे हैं. कभी रघुवर दास उपमुख्यमंत्री हुआ करते थे. सीपी सिंह अध्यक्ष. ये लोग एक ही गाड़ी से चलते थे. पर ऐसे लोगों की संख्या अंगुली पर गिनने भर ही है.
मंत्री को जमीनी हकीकत का भी पता चलना चाहिए. जिन लोगों के बल पर वे विधायक/मंत्री बनते हैं, अगर उन्हीं को सताते हैं, तो अगले चुनाव में सड़क पर लाने का भी हक जनता रखती है. ऐसा न हो कि करे कोई, भरे कोई. गलती करें मंत्री के चालक–सुरक्षाकर्मी और गुस्सा उतरे मंत्री पर. बेहतर होगा कि वीआइपी अपने चालकों पर, सुरक्षाकर्मियों पर अंकुश रखें.