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नयी तकनीक से संचालन लागत के बिना मिल रही रोशनी मुफ्त में जल रहे हैं बल्ब
क्या आप यह मानेंगे कि बिना किसी संचालन लागत के घर को रोशन करने लायक बिजली पैदा की जा सकती है? शायद नहीं, लेकिन विशेषज्ञों ने एक ऐसा सिस्टम तैयार कर लिया है, जिसमें पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल का उपयोग कर एलक्ष्डी लाइट जलायी जा सकती है. अब आप जरूर जानना चाहेंगे कि ऐसा कैसे […]
क्या आप यह मानेंगे कि बिना किसी संचालन लागत के घर को रोशन करने लायक बिजली पैदा की जा सकती है? शायद नहीं, लेकिन विशेषज्ञों ने एक ऐसा सिस्टम तैयार कर लिया है, जिसमें पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल का उपयोग कर एलक्ष्डी लाइट जलायी जा सकती है. अब आप जरूर जानना चाहेंगे कि ऐसा कैसे होता है? क्या है यह तकनीक, इसे घरों में किस तरह किया जा सकता है इंस्टॉल, इससे कैसे जलेंगे बल्ब और इससे जुड़े अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं के बारे में बता रहा है आज का नॉलेज..
कन्हैया झा
दिल्ली : भारत समेत एशिया और अफ्रीका के कई ग्रामीण एवं दूरदराज के इलाकों में बिजली की मुकम्मल व्यवस्था अब तक नहीं हो पायी है. नेपाल की सीमा से सटे हुए कई ऐसे गांव हैं, जहां अब भी लोगों को रात में अपने घरों को रोशन करने के लिए मिट्टी तेल का इस्तेमाल करना पड़ता है. मिट्टी तेल न केवल महंगे होते हैं, बल्कि उनसे निकलनेवाला प्रदूषण स्वास्थ्य के लिए घातक भी होता है. साथ ही इनके खुले में जलने से घरों में आग लगने का खतरा भी बना रहता है. हालांकि, लालटेन और लैंप को कुछ हद तक सुरक्षित समझा जाता है, लेकिन इसमें मिट्टी तेल की खपत ज्यादा होती है.
एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया की करीब सवा अरब आबादी (कुल आबादी का करीब 20 फीसदी) आज भी बिजली की सुविधा से महरूम है. जिस रफ्तार से दुनिया की आबादी बढ़ रही है, ऐसे में यह आशंका जतायी जा रही है कि अगले 20 वर्षो तक इस स्थिति में सुधार होना मुश्किल है.
ऐसे में दुनिया की बड़ी आबादी के लिए तकरीबन मुफ्त में बिजली मुहैया कराये जाने की दिशा में लंदन की एक संस्था ‘ग्रेविटी लाइट’ को बड़ी कामयाबी हासिल हुई है. दरअसल, संस्था के इंजीनियरों ने एक ऐसे सिस्टम को विकसित किया है, जो पृथ्वी के विशेष गुण ‘ग्रेविटी’ (गुरुत्वाकर्षण) की मदद से बिजली पैदा करने में सक्षम है. भारत के संदर्भ में यह सिस्टम इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहां अनेक गांवों में आज भी लोग बिजली की सुविधा से वंचित हैं.
विकसित मॉडल ‘जीएल 02’
ग्रेविटी लाइट को इस तरह से डिजाइन किया गया है, जिससे यह कैरोसिन लैंपों के मुकाबले ज्यादा सुरक्षित और स्वच्छ है. इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि एक बार इसे इंस्टॉल करने के बाद इसके संचालन में कोई खर्चा नहीं करना पड़ता है. हां, इतना जरूर है कि रोशनी हासिल करने के लिए करीब प्रत्येक आधे घंटे पर हलका शारीरिक परिश्रम करना होता है.
विभिन्न देशों में किये गये वैश्विक परीक्षण के बाद इस सिस्टम के पहले डिजाइन को ‘जीएल 01’ नाम दिया गया और दुनियाभर में इसकी सराहना की गयी. इस्तेमालकर्ताओं की ओर से इसका अच्छा फीडबैक मिलने के बाद इसमें कुछ नये बदलाव किये गये और उस मॉडल को ‘जीएल 02’ के तौर पर विकसित किया गया. यह नया मॉडल न केवल इस्तेमाल करने में आसान है, बल्कि इससे पैदा होने वाली रोशनी पहले वाले मॉडल के मुकाबले ज्यादा है.
‘ग्रेविटी लाइट’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि केन्या समेत अनेक देशों में कैरोसिन लैंपों के बदले इसके इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा रहा है. इस तकनीक के माध्यम से एक वाट के दसवें हिस्से के समान बिजली पैदा की जाती है, जो एलक्ष्डी लाइट्स के एक समूह को ऊर्जा प्रदान करने में सक्षम है. इससे एक कैरोसिन लैंप के समान रोशनी पैदा होती है. घरों में टेबल पर पढ़ने के लिए इतनी रोशनी पर्याप्त है.
ग्रेविटी लाइट की प्रक्रिया
ग्रेविटी लाइट के माध्यम से घरों में किस तरह रोशनी पैदा की जाती है, स्टेप बाइ स्टेप जानते हैं इस प्रेजेंटेशन के माध्यम से :
इस तकनीक से बिजली पैदा करने के लिए यानी ग्रेविटी लाइट यूनिट में ये चीजें शामिल हैं : ड्राइव बेल्ट (जो इसे नीचे लाता है), दो हुक (जिनके माध्यम से दोनों बैगों को छत के सहारे लटकाया जाता है), दो बैग (भार के लिए) व दो बड़े जिप (जिनके सहारे बैग बांधा जाता है).
दोनों बैग को आपस में लटकाने के लिए जिस जिप (यह एक रोटेट करने वाले बेल्ट की तरह होता है, जिसके सहारे भारी बैग धीरे-धीरे नीचे की ओर आता है) का इस्तेमाल किया जाता है, उसे बेहद सावधानी से कमरे में सर्वाधिक ऊं चाई पर बांधा जाता है, ताकि सतह तक आने में उसे ज्यादा से ज्यादा समय लगे.
बड़े वाले बैग में करीब 12 किलोग्राम बालू, पत्थर या रोड़ी (बैग में एक लाल निशान लगा होता है, जिससे ज्यादा नहीं भरना चाहिए) को भरा जाता है. इसी तरह से छोटे वाले बैग में भी इतनी सामग्री भरी जाती है, ताकि दोनों बैग जिप के दोनों छोरों पर लटके रहें और छोटा वाला बैग बड़े वाले भारी बैग को संतुलित रखे और उसे एक निर्धारित गति से धीरे-धीरे नीचे की ओर सरकने दे.
जब यूनिट पूरी तरह से इंस्टॉल हो जाये यानी जिप को बांधने की प्रक्रिया पूरी हो जाये, तब हुक को ड्राइव बेल्ट से जोड़ दिया जाता है. दाहिने तरफ से भारी बैग को और बायीं तरफ से हलके बैग को लटकाया जाता है और भारी बैग में लगे हुए नारंगी कलर वाले हैंडल को जितना ऊपर तक हो सके, उठाया जाता है.
उपरोक्त प्रक्रिया के बाद जो रोशनी पैदा होती है, वह पूरे कमरे में फैल जाती है. रोशनी को कमरे के किसी एक स्थान पर फोकस करने के लिए उसे सेटलाइट्स (यह एलक्ष्डी बल्बों का एक समूह होता है, जिसके ऊपर कटोरी के आकार की प्लेट सेट होती है, जो इसकी रोशनी को कमरे के एक निर्धारित स्थान पर फोकस करती है).
इस प्रकार इस तकनीक के माध्यम से अपने घर को रोशन कर सकते हैं. इसके लिए प्रत्येक 25 मिनट के बाद बैग को ऊपर उठाना होता है.
ग्रेविटी लाइट की तकनीक
इस तकनीक में इसे बनानेवाले विशेषज्ञों ने पृथ्वी की ग्रेविटी का इस्तेमाल किया है और एक बार इसे इंस्टॉल करने के बाद इसकी संचालन लागत कुछ भी नहीं है.
बस आपको इतना भर करना होगा कि करीब 12 किलोग्राम वजन वाले रोड़ी-पत्थरों से भरे इस तकनीक में इस्तेमाल में लाये जानेवाले बैग को करीब प्रत्येक आधे घंटे में ऊपर की ओर उठाना होगा. घर में इसे आप जितनी ऊंचाई पर टांग देंगे, उतना ही ज्यादा देरी से यह सतह पर वापस आयेगा. इस कार्य में मात्र पांच सेकेंड का समय लगता है और बिना किसी लागत के बिजली मिलती है. यह तकनीक किस तरह से कार्य करती है, इसे चरणबद्ध रूप से इस प्रकार समझा जा सकता है
– पोटेंशियल एनर्जी (स्थितिज ऊर्जा) : ग्रेविटी लाइट की यूनिट में शामिल बैग को 12 किलोग्राम भार के साथ सतह से करीब छह फीट ऊपर लटकाया जाता है. इस भार को जिप के सहारे ऐसे लटकाया जाता है, ताकि वह धीरे-धीरे (करीब एक मिली मीटर प्रति सेकेंड की गति से) नीचे आये.
– काइनेटिक एनर्जी (गतिज ऊर्जा) :
बैग के धीरे-धीरे नीचे आने से स्प्रोकेट यानी दांतों वाले जिप में ऊर्जा पैदा होती है. इसके साथ एक पॉलीमर गियरट्रेन भी चलता है, जिसके सहारे इसके भीतर लगाये गये उपकरण में उच्च गति पैदा होती है और वह भीतर लगे एक डीसी जेनरेटर को प्रति मिनट कई हजार बार रोटेट करने में सक्षम होता है.
– बिजली और प्रकाश
इस प्रक्रिया से एक वाट के दसवें हिस्से के समान (एक डेसिवॉट) बिजली पैदा होती है, जिससे इस उपकरण के साथ इंस्टॉल किये गये एलक्ष्डी बल्बों को ऊर्जा प्रदान की जाती है. इसकी सफलता के बारे में इसे बनानेवाली संस्था ‘ग्रेविटी लाइट’ का कहना है कि कैरोसिन लैंप का इस्तेमाल करनेवाले इलाकों में अब तक जितने लोगों को इस तकनीक के संचालन का ट्रायल दिया गया है, उनमें से 90 फीसदी से ज्यादा लोगों ने इसके इस्तेमाल की सहमति जतायी है. केन्या में इस सिस्टम को व्यापक सफलता मिली है.
इस्तेमाल की चुनौतियां और समाधान
चुनौती : महिलाओं और बच्चों को भारी बैग पूरी ऊंचाई तक उठाने में संघर्ष करना पड़ता है.
समाधान : ग्रेविटी लाइट को आसानी से इस्तेमाल करने के लिए जरूरी बदलावों पर जोर दिया जा रहा है, ताकि परिवार के सभी सदस्य आसानी से इसे कर सकें.
चुनौती : लोगों की इच्छा तेज रोशनी प्राप्त करने की है.
समाधान : इसके डिजाइन में बदलाव लाते हुए इसकी क्षमता को बढ़ाने का प्रयास जारी है.
चुनौती : बच्चे इस बैग को उछालते हुए खेलने लगते हैं, जिससे यह खराब हो जाता है.
समाधान : इसे बच्चों के लिहाज से सुरक्षित बनाने और किसी प्रकार के गलत इस्तेमाल से बचाने के लिए मजबूत बनाया जायेगा.
चुनौती : इस सिस्टम को ज्यादा दिनों तक टिकाऊ होना चाहिए.
समाधान : इसकी कमियों को समझते हुए डिजाइन में बदलाव किया जा रहा है और इसे ज्यादा दिनों तक इस्तेमाल में लाये जाने के साथ इसके मॉडल का कम से कम एक साल की वारंटी का प्रावधान किया जा रहा है.
कैसे हुई इस सिस्टम की शुरुआत
यूनाइटेड किंगडम की एक चैरिटी संस्था ‘सोलरएड’ ने कैरोसिन लैंप के प्रचलन को खत्म करने के मकसद से वर्ष 2009 में एक प्रतिष्ठित डिजाइन कंसल्टेंसी से संपर्क किया. दरअसल, सोलरएड टीम की इच्छा एक बेहद कम खर्चीले सोलर लाइट को विकसित करने की थी, जिसे बिजली की सुविधा से वंचित और रोजाना तीन डॉलर से भी कम पर जीवन निर्वाह करने वाले लोगों के घरों में कम से कम खर्च में प्रकाश की व्यवस्था की जा सके.‘ग्रेविटी लाइट’ के एक ब्लॉग में बताया गया है कि डिजाइनर मार्टिन रिडिफोर्ड और जिम रीवेस ने इस चुनौती को स्वीकार किया.
उन्हें यह पता था कि सोलर पावर के लिए कुल खर्च का करीब एक-तिहाई बैटरी के लिए और एक-तिहाई फोटोवोल्टिक पैनल के लिए खर्च करना होगा. और ऐसे में उन्होंने इससे कुछ इतर काम करने के बारे में सोचा, जिससे सिस्टम को एक बार इंस्टॉल करने के बाद संचालन लागत न्यूनतम हो. वे इस बात से भी भलीभांति परिचित थे कि आम तौर पर पावर को जेनरेट करके उसे बाद में इस्तेमाल के लिए स्टोर किया जाता है. और यदि वे पावर स्टोरेज- बैटरी को हटा दें, तो क्या होगा? क्या ऐसे में पावर को उसी समय जेनरेट किया जाना चाहिए, जब उसकी जरूरत हो? कुछ इसी तरह के विचारों के साथ वे आगे बढ़े. इसके बाद मार्टिन और जिम ने पावर जेनरेट करने के उन तरीकों पर विचार किया, जिनसे उसे खपत होने के समय ही पैदा किया जा सके.
ऐसे में पावर को स्टोर करने की समस्या से छुटकारा मिल सकता है. इन दोनों की कोशिशों का ही नतीजा रहा कि इसके प्रारंभिक प्रोटोटाइप को विकसित किया जा सका. इसके शुरुआती प्रोटोटाइप को साइकिल के पहिये से जोड़ा गया था. इस तरह लगातार तीन-चार सालों तक ये दोनों इस प्रोजेक्ट पर कार्य करते रहे और नवंबर, 2013 में इसके व्यावहारिक प्रोटोटाइप को विकसित करने में सफलता प्राप्त हुई.
कैरोसिन लैंप से ज्यादा असरदार
– फ्यूम्स : कैरोसिन लैंप से निकलने वाला फ्यूम्स यानी उसके दहन से पैदा होने वाला प्रदूषण इंसान की सेहत के लिए घातक है. विश्व बैंक का अनुमान है कि दुनियाभर में करीब 78 करोड़ महिलाएं और बच्चे रोजाना 40 सिगरेट फूंकने के बराबर अपनी सांस के माध्यम से इस फ्यूम्स को शरीर के भीतर ग्रहण करते हैं.
– खर्चीला : चूंकि कैरोसिन तेल से रात को घरों में रोशनी करना ग्रामीण आबादी के लिए महंगा है, जिस कारण उनका घरेलू बजट भी प्रभावित होता है. माना जाता है कि दुनिया की गरीबतम आबादी वाले इलाकों में लोगों को अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा इस मद में खर्च करना पड़ता है.
– आग लगने की आशंका : मिट्टी तेल से जलाये जाने वाले साधनों से अक्सर घरों में आग लगने की खबरें आती रहती हैं. केवल भारत में ही प्रत्येक वर्ष इस कारण से करीब 15 लाख लोगों के गंभीर रूप से जलने का अंदाजा लगाया गया है. इसके अलावा, झुग्गियों और अनेक छोटी बस्तियों में इस कारण से आग लगने का खतरा ज्यादा रहता है.
– पर्यावरण : मिट्टी तेल को जलाने से पर्यावरण में व्यापक पैमाने पर प्रदूषण फैलता है. दुनियाभर में उत्सजिर्त होने वाले कार्बन डाइऑक्साइड में करीब तीन फीसदी हिस्सा मिट्टी तेल से फैलने वाले प्रदूषण से पैदा होता है.
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