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भारत की विदेश नीति में ठहराव का दौर खत्म हुआ, आयी असाधारण गतिशीलता

दक्षिण एशियाई पड़ोस से प्रशांत महासागर में बसे जापान तक और बीजिंग से लेकर बर्लिन तक की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निरंतर यात्राओं के अलावा कई देशों के प्रमुखों को भारत आमंत्रित करने से यह संकेत स्पष्ट है कि बीता वर्ष वैश्विक रंगमंच पर मजबूत मौजूदगी दर्ज कराने की भारत की जिद का साल रहा […]

दक्षिण एशियाई पड़ोस से प्रशांत महासागर में बसे जापान तक और बीजिंग से लेकर बर्लिन तक की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निरंतर यात्राओं के अलावा कई देशों के प्रमुखों को भारत आमंत्रित करने से यह संकेत स्पष्ट है कि बीता वर्ष वैश्विक रंगमंच पर मजबूत मौजूदगी दर्ज कराने की भारत की जिद का साल रहा है.
जहां मोदी की विदेश नीति में चीन, अमेरिका, रूस, कनाडा और यूरोप का महत्वपूर्ण स्थान है, वहीं नेपाल, भूटान, मंगोलिया और सेशेल्स जैसे छोटे देश भी प्राथमिकताओं में शामिल हैं. इन प्रयासों ने राजनीतिक और सांस्कृतिक संबंधों को नयी ऊर्जा दी है तथा बेहतर आर्थिक संभावनाओं की राह खोली है. विदेश नीति के मोरचे पर सक्रियता के एक वर्ष की पड़ताल आज के समय में..
पुष्पेश पंत
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
चीन जाने के पहले मोदी अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन और कनाडा के दौरे से चीन को यह संदेश पहुंचा चुके थे कि हम विकल्पहीन नहीं! संक्षेप में अपने राजनय में चीन के सामने भारत का पक्ष मजबूती से रखने में रत्ती भर कसर-कोताही नहीं की गयी है.
रही बात सीमा विवाद की या असंतुलित व्यापार की, तो यह सोचना कि पलक झपकते ही कोई नाटकीय बदलाव देखने को मिल सकता है, नादानी है.
पिछले सालभर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 18 देशों का दौरा किया. दर्जनभर मशहूर ताकतवर विदेशी मेहमानों की स्वदेश में खातिरदारी की. आलोचक भले ही यह लांछन लगाते न थकें कि घर के लोग उनके दरस को तरसते रह गये, लेकिन इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि नरेंद्र मोदी ने बहुत थोड़े समय में हमारी विदेश नीति को असाधारण रूप से गतिशील बनाने में कामयाबी हासिल की है.
पड़ोस में पाकिस्तान और मालदीव के अपवाद के अलावा नेपाल, भूटान, श्रीलंका के साथ नाते आत्मीय बनाने में मोदी अपने पूर्ववर्ती की तुलना में कहीं अधिक सफल रहे हैं. नेपाल में उनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता का चर्चा व्यर्थ है, असली उपलब्धि बिना चीन से मुकाबले के तेवर अपनाये भारत की नेपाल के लिए उपयोगिता को सहज भाव से रेखांकित करना है.
भूकंप के बाद जिस फुर्ती से राहत काम को अंजाम दिया गया, उसका बारंबार उल्लेख गैर-जरूरी है. यह सोचना तर्कसंगत है कि आशंकाओं के निराकरण के बाद भविष्य में उभयपक्षीय रिश्ते जल्दी तनावग्रस्त नहीं होंगे. बांग्लादेश के साथ विवादग्रस्त भूद्वीपों का आदान-प्रदान वाला समझौता संपन्न कर परस्पर विश्वास बढ़ाया जा सका है. श्रीलंका में भारतीय राजनय आज तामिलनाडु की द्रविड़ पार्टियों का बंधक नहीं. अमेरिका के लाख उकसाने के बावजूद अफगानी दलदल में उतरने की उतावली से भारत बचा है.
यह बात सर्वविदित है कि आनेवाले लंबे समय तक एशिया में और अन्यत्र चीन ही भारत का सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी रहेगा. खाद्य एवं ऊर्जा सुरक्षा के संदर्भ में साइबेरिया से ले कर अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका तक हमारे हित टकराते रहेंगे. पर स्पर्धा का अनुवाद बैर नहीं किया जा सकता.
खास कर उस हालत में जब पिछले दसेक साल में चीन अंतरराष्ट्रीय व्यापार जगत में हमारा सबसे बड़ा साझीदार बन कर उभरा है. इस नये रिश्ते की नजाकत देखते ही डॉ मनमोहन सिंह ने देशवासियों को हिमालयी सीमा विवाद ठंडे बस्ते में डालने की सलाह दी थी! इस घड़ी मोदी पर यह तोहमत लगाना नाजायज है कि उन्होंने चीन के साथ इस विवाद को निबटाने के लिए कुछ नहीं किया. चीन जाने के पहले मोदी अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन और कनाडा के दौरे से चीन को यह संदेश पहुंचा चुके थे कि हम विकल्पहीन नहीं! चीन के साथ ही वह मंगोलिया और दक्षिण कोरिया भी पहुंचे.
संक्षेप में अपने राजनय में चीन के सामने भारत का पक्ष मजबूती से रखने में रत्ती भर कसर-कोताही नहीं की गयी है. रही बात सीमा विवाद की या असंतुलित व्यापार की, तो यह सोचना कि पलक झपकते कोई नाटकीय बदलाव देखने को मिल सकता है, नादानी है.
कभी वियतनाम के साथ समुद्र के गर्भ में स्थित तेल-गैस की खोज की परियोजना बनायी गयी, तो कभी हिंद महासागर के तटवर्ती या इसके बीच स्थित देशों के साथ सहकार की रूपरेखा निखारने का काम हुआ. मॉरीशस, शेसेल्स के जरिये भारत ने अरसे बाद बिना किसी महाशक्ति की मौजूदगी का दबाव महसूस किये पहल की. ईरान के बारे में अमेरिकी सलाह और यूक्रेन में रूस के हस्तक्षेप से पैदा संकट को भारतीय राजनय पर कमरतोड़ बोझ नहीं बनने दिया गया, यह कम संतोष का विषय नहीं है.
मनमोहन सरकार के कार्यकाल में भारत की छवि अमेरिका के बगल बच्चे सरीखी बन रही थी. ओबामा के साथ अपनी करीबी दोस्ती की नुमाइश करने का लालच मोदी भी नहीं छोड़ पाते, परंतु वह ओबामा या दूसरे किसी राष्ट्राध्यक्ष के सामने बिछ नहीं जाते. हकीकत यह है कि भूमंडलीकरण के इस युग में कोई भी भारतीय राजनीतिक दल अमेरिका को भारत का शत्रु या अस्पृश्य नहीं समझ सकता. न ही इस बात को नकारा जा सकता है कि गरीब भारत और अमीर अमेरिका के बुनियादी राष्ट्रहित आनेवाले समय में टकराते रहेंगे.
यहां भी चीन की तरह ही संयम और दूरदर्शिता की दरकार रहेगी. बीते सालभर में अमेरिका को भी यह संदेश बारंबार दिया जाता रहा है कि भारत विकल्पहीन नहीं. जितनी जरूरत हमें अमेरिका की है, उससे कम अमेरिका को हमारी नहीं! फ्रांस से राफेल लड़ाकू विमान की खरीद हो या इजरायल से सैनिक साजो-सामान, अमेरिका को यह सोचने के लिए मजबूर किया गया कि भारत आज मुफलिस नहीं, बल्कि समर्थ खरीदार है. उसके बाजार की या उपभोक्ता की उपेक्षा उसे महंगी पड़ सकती है.
यहां यह बात याद रखने की जरूरत है कि पाकिस्तान के साथ जो सामरिक गंठबंधन अमेरिका और चीन का पिछली आधी सदी से भी अधिक समय से चल रहा है, वह दो-चार साल में विलीन नहीं होनेवाला. हमारे लिए फिलहाल इतना काफी है कि हमारी घेराबंदी की जो संयुक्त साजिश चल रही थी, वह कमजोर पड़ी है. जब तक हमारी अर्थव्यवस्था और मजबूत नहीं हो जाती, महत्वाकांक्षा के अहंकारी विस्तार का कोई तुक नहीं.
हर मोरचे पर मुठभेड़ के तेवर हमारे लिए जोखिम ही पैदा कर सकते हैं. यथार्थवादी मोदी ने अपने ही दल के लड़ाकूबाजों द्वारा भड़काये जाने के बावजूद संयम बरता है. विस्फोटक गृह युद्धों की श्रृंखला से झुलसता अरब जगत हो या विखंडन की कगार पर पहुंचा खस्ताहाल यूरोपीय समुदाय, हर जगह भारत की मौजूदगी उदीयमान शक्ति के रूप में कराने में इस सरकार की दिलचस्पी रही.
मोदी की नजर में विदेश नीति को आंतरिक राजनीति से अलग कर कतई नहीं देखा जा सकता. यूपीए के अंतिम चरण में भारत का कद बौना हो चुका था, हमारी सरकार लकवाग्रस्त नजर आ रही थी. बैसाखियों पर टिकी सरकार की विश्वसनीयता लगभग नष्ट हो चुकी थी.
इसको तत्काल बदले बिना अर्थव्यवस्था को गतिशील नहीं बनाया जा सकता था. इसीलिए मोदी ने शुरुआत की थी ब्राजील में ब्रिक्स वाले बहुपक्षीय राजनय से. अगला कदम था- जी-20 की बैठक में शिरकत कर उन नेताओं को भांपना, जिनसे आनेवाले बरसों में संवाद जारी रखना है. जहां जरूरत समझी, वहां अपने बूते पर हस्तक्षेप किया. मसलन, यमन में फंसे भारतीय नागरिकों की घर वापसी!
ऐसा नहीं कि आगे का मार्ग सहज-सुगम है. विकट चुनौतियां हमेशा हमारे सामने खड़ी रहेंगी, पर निश्चय ही आज हालात उस वक्त से कहीं बेहतर हैं- कम से कम विदेश नीति के संदर्भ में- जब मोदी ने कार्यभार संभाला था!
नेताओं की उड़ान
पहले साल में 18 देशों की यात्रा की मोदी ने, 53 दिन रहे विदेश में
12 देशों की यात्रा की थी पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यूपीए के दूसरे कार्यकाल के पहले साल में और कुल 47 दिनों तक देश से बाहर रहे थे.
73 देशों की यात्रा डॉ मनमोहन सिंह ने बतौर प्रधानमंत्री करीब दस वर्ष के अपने कार्यकाल में की. यह पंडित जवाहरलाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी जैसे प्रधानमंत्रियों द्वारा की गयी विदेश यात्राओं से बहुत अधिक है, जो डॉ सिंह से कहीं अधिक समय तक प्रधानमंत्री रहे थे. उनकी यात्राओं पर करीब 676 करोड़ रुपये खर्च हुए थे.
35देशों की यात्रा की थी अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने पहले कार्यकाल में. दूसरे कार्यकाल में अब तक वे 15 अन्य देशों का दौरा कर चुके हैं. इसके अलावा वे अमेरिका के सभी 50 राज्यों का दौरा भी कर चुके हैं.
50 फीसदी से अधिक, अपने कार्यकाल की अवधि में, ओबामा राजधानी वाशिंगटन से बाहर रहे हैं. यह भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने अनेक देशों और अमेरिकी राज्यों की यात्रा एक से अधिक बार की है.
74 देशों की यात्रा अमेरिकी राष्ट्रपतियों- बिल क्लिंटन और जॉर्ज बुश- ने अपने दो कार्यकाल के दौरान की थी.
पुराने जूते की मरम्मत कर नया बताने की कवायद
प्रो सीपी भांबरी
राजनीतिक विश्लेषक
क्या मोदी चीन को यह समझाने में सफल रहे कि हमारी विदेश नीति गुट-निरपेक्ष है और हम खुद अपना फैसला लेते हैं. वर्षो से चली आ रही प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के अलावा मोदी कुछ नया नहीं कर पाये हैं.
चीन हमें नजरअंदाज नहीं कर सकता, लेकिन सीमा के मसले पर हमारे बीच जो दरार बनी हुई है, क्या उसे पाटने में मोदी कुछ कर पाये हैं?
अक्तूबर, 2001 से 26 मई, 2014 को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने से पहले तक नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे. फरवरी-मार्च, 2002 में गुजरात दंगों के बाद उनकी छवि मुसलिम विरोधी के रूप में बन गयी.
पूरे यूरोप और अमेरिका में उन्हें बैन कर दिया गया. उसके बाद से ही मोदी की इच्छा उन देशों में जाने और खुद को प्रोजेक्ट करने की थी, लेकिन उन देशों के लिए वे ‘परसन नॉट वांटेड’ के तौर पर थे. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद स्वाभाविक रूप से हालात बदले और अमेरिका ने उनकी तरफ हाथ बढ़ाया. अन्यथा कई देशों में उनका ‘प्रोसेक्यूशन’ हो जाता, क्योंकि वहां उन पर मामले दर्ज थे.
कुछ पश्चिमी देशों ने उन पर ‘नरसंहार’ को अंजाम देने का आरोप भी लगा रखा था और उन देशों में इनका इंतजार एक आरोपी व्यक्ति की तरह हो रहा था.
लेकिन, चूंकि अमेरिका के लिए भारत एक बड़ा बाजार है, लिहाजा उसने भारतीय प्रधानमंत्री की ओर हाथ बढ़ाया. वैसे भारत के प्रधानमंत्री का तो पूरी दुनिया में स्वागत होना स्वाभाविक है, क्योंकि हमारे यहां निवेश की बड़ी संभावनाएं हैं.
प्रधानमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह में उन्होंने सभी सार्क देशों के प्रमुखों को बुलाकर अपनी ओर से अच्छी पहल की, लेकिन अब तक उसका कुछ खास नतीजा सामने नहीं आया है. मोदी ने अपने एक साल के कार्यकाल में 18 देशों की यात्रा की है, लेकिन इनमें एक भी अरब देश शामिल नहीं है.
आरोप लगाया जा सकता है कि मोदी मुसलिम विरोधी और हिंदुत्ववादी हैं, इसलिए उन्होंने किसी अरब देश का दौरा नहीं किया, जबकि अरब देशों में लाखों भारतीय बसे हैं और वहां से वे काफी रकम भारत भेजते हैं. साथ ही हमारी तेल की घरेलू खपत का एक बड़ा हिस्सा इन्हीं देशों से आता है.
ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और अमेरिका समेत मोदी जहां भी गये, वहां उन्होंने खूब भाषण दिया और उसे टीवी पर व्यापक रूप से दिखाया गया. इन विदेशी यात्राओं ने मोदी को ‘कल्ट ऑफ पर्सनैलिटी’ बनाने में पूरा योगदान दिया. मीडिया में लगातार बने रहने से उनकी व्यापक पब्लिसिटी हुई.
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा जब भारत आये तो मोदी ने उन्हें चाय बना कर पिलायी और कहा कि वे उन्हें बराक पुकार रहे थे, तो ओबामा उन्हें नरेंद्र कह रहे थे. लेकिन यही बराक जब अमेरिका लौटे तो जाते ही यह बयान दिया कि भारत में अल्पसंख्यकों के हित सुरक्षित नहीं हैं. और ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी अमेरिकी राष्ट्रपति की ओर से भारत से तुरंत लौटने पर भारत के बारे में इस तरह का बयान दिया गया हो. आखिर क्या वजह रही कि जिसे दोस्त बताया, उसी ने इस तरह का बयान दिया?
देखा जाये तो विदेश नीति को देश में बड़ा दर्शाते हुए मोदी की भव्यता को प्रस्तुत किया जा रहा है, क्योंकि आम आदमी पर इसका व्यापक असर होता है. मोदी सरकार ने अब तक ऐसी कोई उपलब्धि हासिल नहीं की है, जिसे मनमोहन सिंह सरकार ने नहीं किया हो. मोदी ने पिछली सरकार की नीतियों को ही आगे बढ़ाया है. बराक ओबामा ने तो डॉक्टर मनमोहन सिंह को यह भी कहा था कि अर्थशास्त्र में वे उनके गुरु हैं.
पिछले लोकसभा चुनावों तक मोदी मीडिया की ताकत को समझ चुके थे और उसका उन्होंने भरपूर इस्तेमाल किया. बेहतर छवि निर्माण के लिए वे अब भी यह कर रहे हैं. बतौर प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने विदेशी दौरों में कभी अपने बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहा.
जापान से बातचीत करने और कारोबार को बढ़ावा देने की जिम्मेवारी उन्होंने अश्विनी कुमार को सौंप रखी थी. ‘ब्रिक्स’ समूह पहले से ही बना है, जिसमें भारत की भी सहभागिता है. मोदी की कुछ गतिविधियों को देख कर ऐसा लगता है, जैसे वे दूसरों के कपड़ों को नया बना कर खुद पहन लेते हैं और उसे अपनी इंडिविजुअलिटी का मार्का बताते हैं कि मैंने ‘यह’ किया, जिसे इससे पहले किसी ने नहीं किया. जबकि देखा जाये तो मोदी सरकार की अपनी कोई नयी विदेश नीति नहीं है, वह पिछली सरकारों की नीतियों को ही अपनाये हुए चल रही है. कांग्रेस ने जरूर गलतियां की और लोगों ने उसे सबक सिखाया, लेकिन राजनीति में ऐसा नहीं होता कि कोई यह कहे कि आज से मैं इसे शुरू कर रहा हूं.
अजीत डोवाल समेत मोदी सरकार के सलाहकारों में से ज्यादातर आरएसएस से लाये गये हैं. इस विषय पर बड़ी चर्चा होती थी कि मोदी एक मुख्यमंत्री थे, लिहाजा उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि विदेश नीति के मामले में वे सफलता पा सकते हैं. इसलिए मीडिया के सहयोग से मोदी की इमेज को गढ़ा गया और यह दर्शाया गया कि मुख्यमंत्री से जैसे ही वे प्रधानमंत्री बने, तो विदेशों में छा गये.
भारत के लिहाज से विदेश नीति के स्तर पर सबसे बड़ी चुनौती पाकिस्तान और अफगानिस्तान का मसला रहा है. इस मसले पर मोदी अब तक कुछ नहीं कर पाये हैं. आतंकवाद और कश्मीर की समस्या जस की तस है.
प्रधानमंत्री को एक बड़े विचारक और नीति निर्माता के रूप में पेश किया जा रहा है, लेकिन विदेशी मोरचे, खासकर पड़ोसी देशों से अच्छे संबंध बहाली के मामले में कुछ नहीं हो पाया है. पाकिस्तान के साथ संबंधों के सुधार की प्रक्रिया में हम दो-चार इंच भी आगे नहीं बढ़ पाये हैं. मनमोहन सिंह सरकार ने दोस्ती को मजबूत बनाने के लिए अफगानिस्तान में व्यापक निवेश किया, लेकिन पाकिस्तान उसमें रोड़े अटकाता रहा. दरअसल, पाकिस्तान नहीं चाहता है कि अफगानिस्तान के भारत से अच्छे संबंध कायम हों.
अफगानिस्तान के पूर्व मुखिया हामिद करजाई ने अपनी ओर से भी काफी पहल की थी, लेकिन पिछले एक साल में हम उससे आगे एक कदम भी नहीं बढ़ पाये हैं. हाल ही में वहां एक होटल में हुए हत्याकांड की घटना में कुछ भारतीय भी मारे गये हैं. होटल में आयोजित कार्यक्रम में भारतीय राजदूत को भी शामिल होना था और शायद इसकी सूचना आतंकियों को रही होगी, लेकिन भाग्यवश वे वहां पर नहीं जा सके और बच गये.
विवादित मामलों पर तो नहीं ही कुछ हो रहा है, बल्कि अन्य मामलों पर भी कुछ ठोस नहीं हो पा रहा है. अच्छे संबंधों की बहाली की दिशा में यदि हम 100 में से चार कदम भी बढ़ा पाये हों, तो उसे उपलब्धि माना जाये. क्योंकि यदि आप डिप्लोमैट हैं, तो नतीजा भी दिखना चाहिए. लेकिन यहां तो ‘ओल्ड शू विद न्यू रिपेयर’ यानी पुराने जूते की मरम्मत करके नया दिखाने की कवायद हो रही है. मनमोहन सिंह ने तो अपनी ओर से कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए, जबकि मौजूदा सरकार की ओर से तो किसी प्रकार की कोशिश भी नजर नहीं आ रही है.
प्रधानमंत्री की हालिया चीन यात्रा को भी बड़ी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है. दोनों देशों के व्यापारिक रिश्ते आगे बढ़े हैं, लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि चीन से हमारा व्यापार घाटा (ट्रेड डिफिशिट) ज्यादा है. चीन से 20 बिलियन और दक्षिण कोरिया से 10 बिलियन रकम लाने में मोदी सफल रहे, लेकिन यह बड़ी उपलब्धि नहीं कही जा सकती. लोग जानना चाहते हैं कि सीमा विवाद के मसले पर हम कितना आगे बढ़े हैं.
पिछले एक वर्ष के दौरान उनके प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी हमारे देश आये, पर सीमा विवाद का मसला जहां था वहीं है. दरअसल, चीन को इस बात का सबसे ज्यादा संदेह है कि अमेरिका और जापान की अगुआई में चीन विरोधी मुहिम का हिस्सा भारत भी है. चीन समझता है कि भारत, एशिया पेसिफिक के अमेरिकी गुट में है, न कि स्वतंत्र है. इसलिए चीन को भारत पर पूरा भरोसा नहीं हो पा रहा है. क्या मोदी चीन के इस संदेह को दूर करने में कामयाब हो पाये हैं.
क्या मोदी चीन को यह समझाने में सफल रहे कि हमारी विदेश नीति गुट-निरपेक्ष है और हम खुद अपना फैसला लेते हैं. वर्षो से चली आ रही प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के अलावा मोदी सरकार कुछ नया नहीं कर पायी है. बढ़ते कारोबारी संबंधों को देखते हुए चीन हमें नजरअंदाज नहीं कर सकता, लेकिन सीमा के मसले पर हमारे बीच जो दरार बनी हुई है, क्या उसे पाटने में मोदी कुछ कर पाये हैं.
(कन्हैया झा से बातचीत पर आधारित)
भारतीय मूल के प्रवासियों और वैश्विक समुदाय का ध्यान खींचा
निरंतर विदेश यात्राएं और विश्व नेताओं को भारत आमंत्रित करना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति का मुख्य आयाम हैं. राजनीतिक, आर्थिक, कूटनीतिक और सामरिक पहलुओं के साथ-साथ उन्होंने अन्य देशों में बसे भारतीयों और भारतवंशियों को भारत की विकास-यात्रा के साथ आर्थिक और सांस्कृतिक आधारों पर जोड़ने की पहल की है.
अपनी हर विदेश यात्रा में मोदी ने आप्रवासियों से सहज और खुला संवाद स्थापित करने की कोशिश की है. इसी के साथ अन्य देशों के लोगों को भारत के प्रति दिलचस्पी बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है. इन पहलों से न सिर्फ भारत की छवि सकारात्मक बन रही है, बल्कि निवेश, पर्यटन, रोजगार और शिक्षा के क्षेत्र में भी अनुकूल वातावरण बन रहा है.
विदेश नीति के मोरचे पर मोदी सरकार
सबसे पहले पड़ोसियों पर ध्यान
अपने शपथ-ग्रहण समारोह में दक्षिण एशिया के अपने पड़ोसी देशों के प्रमुखों को आमंत्रित कर नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट संकेत दिया था कि आस-पड़ोस के देशों के साथ अच्छे संबंध उनकी विदेश नीति की प्राथमिकता होंगे. अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए उन्होंने भूटान को चुना.
वे नेपाल, मालदीव और श्रीलंका की यात्रा कर चुके हैं. कुछ दिनों बाद उनके बांगलादेश जाने का भी कार्यक्रम तय है. पाकिस्तान के साथ तनावपूर्ण संबंधों में कोई बेहतरी भले न हुई हो, पर मोदी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ लगातार संपर्क में रहते हैं. महत्वपूर्ण पड़ोसी और वैश्विक महाशक्ति चीन की उनकी हालिया यात्रा भी सकारात्मक रही है.
चीन, म्यांमार, बांग्लादेश और भारत के सीमावर्ती इलाके में एक साझा व्यापारिक क्षेत्र बनाने की दिशा में सहमति भी बनी है. बांग्लादेश के साथ रिहायशी इलाकों की अदला-बदली पर भारतीय संसद का सर्वसम्मत फैसला दोनों देशों के बीच नये युग के प्रारंभ का संकेत है. चीन और अफगानिस्तान के राष्ट्राध्यक्ष भारत आ चुके हैं. हिंद महासागर में भारत की मजबूत उपस्थिति को आधार देने के इरादे से मोदी श्रीलंका के अतिरिक्त सेशेल्स और मॉरीशस की यात्रा भी कर चुके हैं.
विचारधारा के बजाय व्यावहारिकता पर जोर
पिछले वर्ष जुलाई में ब्राजील में ब्रिक्स देशों की बैठक में ब्रिक्स बैंक और विकास कोष बनाने का निर्णय लिया गया था. इन पहलों का उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के वैश्विक वित्तीय एकाधिकार को चुनौती देते हुए साझा विकास के लिए संसाधन और रणनीति तैयार करना है. बैंक का मुख्यालय चीन में होगा, पर प्रारंभिक अध्यक्षता भारत को मिली है.
जापान यात्रा के दौरान मोदी ने 35 बिलियन डॉलर के जापानी निवेश का भरोसा प्राप्त किया, तो चीन ने 20 बिलियन डॉलर के निवेश की मंशा जाहिर की है. मोदी की चीन यात्रा के बाद इस राशि के बढ़ने के आसार हैं. अन्य देशों की यात्राओं में भी उन्होंने निवेश और सांस्कृतिक सहयोग पर जोर दिया है. यह मोदी के व्यावहारिक दृष्टिकोण का ही नतीजा है कि उन्होंने भारत-अमेरिकी संबंधों में अपनी व्यक्तिगत नाराजगी को आड़े नहीं आने दिया.
उल्लेखनीय है कि गुजरात में मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में हुए नरसंहार के बाद अमेरिका ने उन्हें वीजा देने पर रोक लगा दी थी. पर दो देशों के संबंध और भारत के राष्ट्रीय हितों को महत्व दिया. मोदी ने यही रवैया चीन के साथ भी अपनाया है.
‘लुक ईस्ट’ की जगह ‘एक्ट ईस्ट’ की नीति पर बल
पिछले दशकों में पूर्वी एशिया में भारत के आर्थिक सरोकारों में बहुत वृद्धि हुई है. भारत दक्षिण पूर्वी एशियाइ देशों के संगठन आसियान द्वारा संचालित संस्थाओं का महत्वपूर्ण हिस्सा है.
फिर भी भारत इन देशों के साथ सहयोग की संभावनाओं और क्षमताओं का अपेक्षित लाभ नहीं उठा सका है. प्रधानमंत्री मोदी ने इस क्षेत्र में दिलचस्पी दिखायी है तथा पूर्व की ओर देखने की नीति (लुक ईस्ट) की जगह पूर्व में सक्रियता की नीति (एक्ट ईस्ट) अपनायी है.
इस दिशा में गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उनके अनुभव भी काम आ रहे हैं. जापान के बाद अब मंगोलिया और दक्षिण कोरिया की उनकी यात्रा इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं. इन देशों के अलावा वियतनाम, सिंगापुर, उत्तर कोरिया, म्यांमार आदि अनेक देशों के साथ द्विपक्षीय और क्षेत्रीय संबंध बेहतर करने की दिशा में प्रयास हो रहे हैं.

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