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मजबूत नेता की छवि

भाजपा ने प्रधानमंत्री पद के लिए अपने उम्मीदवार के रूप में नरेंद्र दामोदरदास मोदी का नाम घोषित कर दिया है. नरेंद्र मोदी उन चुनिंदा नेताओं में शामिल हैं, जिनके नाम से ही ध्रुवीकरण शुरू हो जाता है. जितने मुखर उनके प्रशंसक हैं, उतनी ही कटु आलोचना उनके विरोधी करते हैं. आप उनके प्रबल समर्थक हो […]

भाजपा ने प्रधानमंत्री पद के लिए अपने उम्मीदवार के रूप में नरेंद्र दामोदरदास मोदी का नाम घोषित कर दिया है. नरेंद्र मोदी उन चुनिंदा नेताओं में शामिल हैं, जिनके नाम से ही ध्रुवीकरण शुरू हो जाता है. जितने मुखर उनके प्रशंसक हैं, उतनी ही कटु आलोचना उनके विरोधी करते हैं. आप उनके प्रबल समर्थक हो सकते हैं या धुर विरोधी, पर आप उनकी अनदेखी नहीं कर सकते. उनके समर्थक उन्हें नायक व विकास पुरुष मानते हैं, तो विरोधी विभाजक व कारपोरेट-परस्त. कौन से पहलू मोदी को प्रधानमंत्री पद का मजबूत दावेदार बनाते हैं और कौन से पहलू उन्हें कुरसी दूर ले जाते दिखाई देते हैं, इन्हीं पर केंद्रित है यह विशेष आयोजन.

।। रामबहादुर राय।।
(राजनीतिक चिंतक एवं वरिष्ठ पत्रकार)

भाजपा नेता नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से देश की राजनीति में किस तरह का बदलाव आयेगा, इस विषय में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता. लेकिन फिलहाल जो चीज सुनिश्चित है, या जो दिख रही है, वह है यूपीए के शासन के प्रति लोगों में आक्रोश. इस आक्रोश के 2014 के आम चुनाव में प्रकट होने की पूरी संभावना है. 1971 के आम चुनाव से जिस तरह का रिवाज बन गया है, उसके हिसाब से मतदाताओं का मिजाज लोकसभा चुनाव में अलग और विधानसभा चुनाव में अलग होता है. हालिया चुनावों का जो पैटर्न है, उसे देखते हुए स्पष्ट है कि मतदाता मुख्यमंत्री चुनता है. वैसे तो हमने संसदीय प्रणाली अपनायी है, लेकिन धीरे-धीरे राज्यों में प्रेसिडेंशियल सिस्टम (अध्यक्षीय प्रणाली) विकसित हो रहा है. विधानसभा चुनावों में पार्टियां नहीं, व्यक्ति प्रमुख हो जाता है.

2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टियों के दो गंठबंधनों के बीच चुनाव था. देश के मतदाताओं ने बहुत स्पष्ट निर्णय यूपीए के पक्ष में दिया. उसने लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व को अस्वीकार कर दिया. लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि 2009 के चुनाव में यूपीए के प्रति आज जैसा आक्रोश नहीं था. इस चुनाव में मनमोहन सिंह की सारी विफलताओं का ठीकरा राहुल गांधी पर फूटेगा. और नरेंद्र मोदी एक ऐसे उम्मीदवार के रूप में सामने आ रहे हैं, जिनमें कम-से-कम दो बातें साफ हैं, जिसको सभी स्वीकार भी करते हैं कि मोदी उन दो बातों को पूरा भी करते हैं. एक, राष्ट्रीय स्तर पर आंतरिक और सीमा सुरक्षा खतरे में है और आतंकवाद तथा माओवाद ने उस खतरे को बढ़ाया है. यह एक समस्या मात्र नहीं है, बल्कि राजनीतिक चुनौती भी है. इसलिए वक्त का तकाजा है कि एक मजबूत प्रधानमंत्री हो और वह ऐसी समस्याओं को कम कर सके. दूसरी, नरेंद्र मोदी ने मजबूत प्रधानमंत्री होने की अच्छी छवि अजिर्त कर ली है. पिछले 12 वर्षो से गुजरात के मुख्यमंत्री होने और राज्य की राजनीतिक, आर्थिक समस्याओं को हल करने का जो यश उनको मिला है, उसके कारण उनकी छवि एक मजबूत नेता की बनी है. मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे, तब वहां राजनीतिक अस्थिरता थी. उन्होंने उसे हल किया और राज्य को सुस्थिर नेतृत्व दिया. इस तरह मोदी ने छवि अजिर्त की है कि वे एक मजबूत नेता हैं, ठोस फैसले कर सकते हैं.

लेकिन नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व का एक और पहलू है, जो उनके व्यक्तित्व के प्रति विकर्षण पैदा करता है. हालांकि इस विकर्षण की वजह से जो प्रतिक्रियाएं पैदा हो रही हैं, वही मोदी की ताकत भी बन रही हैं. ऐसा पहले भी होता रहा है. मोदी का नाम घर-घर पहुंचाने का काम समर्थक जितना नहीं करेंगे, उससे ज्यादा विरोधी कर रहे हैं. चाहे यह विरोध पार्टी के भीतर हो या बाहर. इस कड़ी में जाति-बिरादरी मायने नहीं रखती. इसकी जो अंत:क्रिया हो रही है, उसने नरेंद्र मोदी को सेंटर स्टेज पर ला खड़ा किया है. कांग्रेस में लोकतंत्र खत्म है, वंशवाद स्थापित है, ऐसे में वहां यह घोषित करने की कोई जरूरत नहीं कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री होंगे. बावजूद इसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नरेंद्र मोदी के उभरने के बाद से ही कांग्रेस में भी इसकी मांग बढ़ी है. ऐसे में यह साफ जाहिर है कि 2014 का चुनाव गंठबंधनों का नहीं, दो चेहरों के बीच का चुनाव होगा.

नरेंद्र मोदी उम्र में राहुल से बड़े हैं. उन्हें संगठन में काम करने से लेकर सरकार चलाने तक का अनुभव है. राहुल गांधी मोदी की तुलना में राजनीति में भी नये हैं और संगठन का जो उनका अनुभव है उनके बट्टे खाते में ही जाता है. बट्टे खाते में इसलिए कि वे 2006 में पहली बार मैदान में उतरे. उत्तर प्रदेश में उन्होंने जिस तरह से रोड शो किया, जितना उसका प्रचार हुआ, उससे ऐसा लगा कि उत्तर प्रदेश की राजनीति कांग्रेस की मुट्ठी में आ जायेगी. लेकिन 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की स्थिति सुधर नहीं पायी. यही स्थिति बिहार में भी रही. दिल्ली, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान में बनी कांग्रेस की सरकारों में राहुल की कोई भूमिका नहीं है. 2007 व 2012 में उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव ही उनकी वास्तविक परीक्षा थी. हालांकि 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की स्थिति उत्तर प्रदेश में जरूर सुधरी. लेकिन इसका श्रेय राहुल को नहीं जाता. बेनी प्रसाद वर्मा के कांग्रेस में शामिल होने के कारण सामाजिक समीकरणों में जो बदलाव हुआ, उसका फायदा कांग्रेस को मिला. अब मुकाबला राहुल और नरेंद्र मोदी के बीच है.

अभी की परिस्थिति में यह कह सकते हैं कि मोदी को व्यापक जनसमर्थन प्राप्त है, लेकिन उन्हें उतना ही बड़ा विरोध झेलना पड़ेगा. गुजरात में जो संगठन कौशल, राजनीतिक चतुराई उन्होंने दिखायी है, उसकी अग्निपरीक्षा देनी होगी. उसमें वे खड़े उतरते हैं कि नहीं, यह अनुमान की बात है. अतीत के लोकसभा चुनावों में झांकें और 2014 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए तुलना करें, तो अभी 1971 के लोकसभा चुनाव जैसी स्थिति बनती हुई दिख रही है. मेरा अनुमान है कि 2014 का लोकसभा चुनाव 1971 जैसा होगा. 1971 में इंदिरा गांधी लाओ और हटाओ की लड़ाई थी. कांग्रेस का स्थापित नेतृत्व इंदिरा गांधी के खिलाफ था. कांग्रेस टूट गयी थी और कांग्रेस से निकलकर .कांग्रेस ओ. बनायी गयी थी. कांग्रेस ओ में बड़े नाम थे, जिनकी अगुआई में विपक्ष के तीन दलों (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी यानी संसोपा, जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी) ने मिल कर महागंठबंधन बनाया और लोकसभा चुनाव में उतरे.

महागंठबंधन की महापराजय हुई और लोगों ने इंदिरा गांधी को चुना. करीब-करीब वैसी ही परिस्थितियां आज भी बन रही हैं. यूपीए के साथ ही भाजपा के कई दिग्गज नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़े हैं. लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा दोनों ही विरोध में काफी मुखर दिख रहे हैं. दूसरी ओर नरेंद्र मोदी की सभाओं को बेहतर रिस्पांस मिल रहा है, चाहे अंबिकापुर की सभा हो या रायपुर की या फिर जयपुर की. वे हरियाणा के रेवाड़ी और बिहार भी जाने वाले हैं. इन सभाओं में मोदी के प्रति एक उत्साह का वातावरण दिखायी दे रहा है. वह उत्साह वोट में बदल जाता है (उसके बदलने की संभावना दिख रही है) तो विभिन्न सर्वे की रिपोर्ट और आकलन धरे रह जायेंगे, और कोई ऐसा नतीजा आ सकता है जो लोगों को आश्चर्यचकित कर दे. अभी माना जा रहा है कि मोदी के आने से भाजपा की सीटें बढ़ जायेंगी. अभी तक जो बातें मोदी ने कही है, वे बातें संभवत: साधारण लोगों को अपील करनेवाली हैं. मसलन संविधान जैसा है वैसा ठीक है. शासन तंत्र जैसा है, उसी औजार से यहां के लोगों के बल पर सब कुछ ठीक किया जा सकता है. वे कह रहे हैं कि जरूरत सिर्फ .कांग्रेस से मुक्ति. की है. इसका अर्थ जो मुङो समझ में आता है, वह यह है कि मोदी नीतियों में मोटे तौर पर बदलाव की बात नहीं कर रहे हैं, कारगर अमल की बात कर रहे हैं.

2004 में जब यूपीए की सरकार बनी, उस समय बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता (एनजीओ के लोग) ने भाजपा के विरोध में यूपीए की मदद की, उसी मदद से यूपीए को सरकार बनाने में सफलता मिली. उसके बाद सोनिया गांधी के नेतृत्व में प्रयोग के तौर पर एक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बनी. सलाहकार परिषद ने नीतियों में बदलाव की सिफारिश की, लेकिन सरकार ने इसे नहीं माना. यही कारण है कि कई प्रमुख लोग धीरे-धीरे इस परिषद से निकलते चले गये.

नरेंद्र मोदी के लिए भी कुछ लोग विभिन्न स्तरों पर अपनी पहल से, प्रेरणा से काम कर रहे हैं. स्वामी रामदेव को कुछ हद तक इसी श्रेणी में रखा जा सकता है. जैसा कि कांग्रेस के नेताओं का आरोप है कि मोदी के पीछे बड़े घराने खड़े हैं. इससे ऐसा लगता है कि इन बड़े घरानों की यह धारणा बन रही है कि नरेंद्र मोदी मनमोहन सिंह की उदारीकरण की नीति को ज्यादा कारगर ढंग से लागू कर पायेंगे. मेरी समझ से बुद्धिजीवियों के स्तर पर मोदी को जो समर्थन मिल रहा है, वह इसलिए है कि वे भारत सरकार को एक वेलफेयर स्टेट (लोक कल्याणकारी राज्य) के रूप में देखना चाहते हैं. हालांकि उसके विषय में मोदी क्या करेंगे, यह अभी बहुत स्पष्ट नहीं है.

1971 के चुनावी समर में जाने से पहले इंदिरा गांधी ने तीन कदम उठाये थे. बैंको का राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्स समाप्त करना और भूमि सुधार कानून. इसकी वजह से उनकी छवि गरीबों का हमदर्द के रूप में बनी. आज का जो राजनीतिक यथार्थ है, उसमें बहस के बीच गरीब नहीं हैं. किसान नहीं हैं. नरेंद्र मोदी इनको बहस के बीच ले आयेंगे या नहीं, इसका स्पष्ट संकेत उन्होंने नहीं दिया है. हालांकि उन्होंने यह जरूर कहा है कि उन्होंने गुजरात में गरीबी कम कर दी है, किसानों का भला हुआ है, औद्योगिक विकास हुआ है. इस आधार पर मोदी को उनके समर्थक गुजरात मॉडल के नेता के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं. यह गुजरात मॉडल देश के दूसरे हिस्से के लिए अमूर्त है.

ऐसा संभव है कि पीएम पद के उम्मीदवार के रूप में अपने नाम की घोषणा के बाद मोदी कोई स्पष्ट व नीतिगत आश्वासन देने की स्थिति में होंगे. भाजपा के सत्ता में आने की बात पर, वह भी जब पूर्ण बहुमत में सरकार आने की बात हो, तो एक आशंका गाहे-बगाहे व्यक्त की जाती रही है कि पार्टी फिर से धारा 370 और मंदिर निर्माण के प्रश्न को सामने ला सकती है. लेकिन अब तक का जो अनुभव है, वह अलग है. धारा 370 व मंदिर का मामला, ये दोनों बातें शासन के दायरे से बाहर हैं. लोगों को भी धारा 370 और मंदिर को जीवन-मरण का विषय नहीं बनाना चाहिए. लोगों की आज की मांग आजीविका, बेहतरीन जीवन का अधिकार और सुरक्षा है. उनकी यही मांग नरेंद्र मोदी की ताकत भी है.(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)

– गुजरात विधानसभा चुनावों में लगातार तीन बार भाजपा की विजय पताका लहराने का श्रेय नरेंद्र मोदी को जाता है. वे विकास की बात जिस तर्ज पर पेश करते हैं, उससे न सिर्फ उद्योगपतियों और एनआरआइ में, बल्कि आम लोगों में भी एक विशेष तरह के आकर्षण का भाव पैदा होता है. .विकास पुरुष की छवि. के बीच खास कर पिछड़े राज्यों व देश के मध्यम वर्ग में उनकी पैठ गहरी होती दिख रही है. कॉरपोरेट घरानों द्वारा तारीफ करना भी उनके पक्ष में जाता दिख रहा है.

– मोदी संवाद कला में माहिर हैं. कई विरोधी भी इसे लेकर उनका लोहा मानते हैं. गुजरात के बाहर भी उन्हें सुनने के लिए भारी भीड़ जमा हो रही है. हाल ही में हैदराबाद में लाखों लोग टिकट लेकर उन्हें सुनने के लिए जमा हुए थे.

– मोदी टेक्नोसेवी नेता हैं. फिलहाल सोशल मीडिया में उनके कद का कोई दूसरा नेता नही दिखता. इस कारण वे युवाओं को लुभा पाने में सक्षम माने जा रहे हैं.

– गुजरात में नरेंद्र मोदी के नाम पर पिछले तीन चुनावों से मतों का ध्रुवीकरण होता देखा गया है. इस कारण प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित होने के पहले से ही विरोधी पार्टियों ने उन्हें निशाने पर लेना शुरू कर दिया था. ऐसे में चर्चा के केंद्र में रहने से उन्हें और भाजपा, दोनों को चुनावी लाभ मिलने की उम्मीद जतायी जा रही है. कई सर्वेक्षणों में भी उन्हें प्रधानमंत्री पद का सबसे योग्य उम्मीदवार माना गया है.

– मोदी सांप्रदायिकता के रंग से बाहर निकलने की कोशिश करते दिख रहे हैं. उनका सद्भावना मिशन अपनी छवि साफ करने का प्रयास था.

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