।।न्यायमूर्ति नहीं, न्यायप्रिय-4 ।।
।।रवि दत्त बाजपेयी।।
-न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने 12 जून,1975 को दिया था ऐतिहासिक फैसला-
जब 1977 में जनता पार्टी की सरकार आयी, तो न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा का इलाहाबाद उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनने का कोई अवसर नहीं था, राजनारायण के वकील शांति भूषण, अब केंद्रीय कानून मंत्री बन चुके थे और उन्होंने न्यायमूर्ति सिन्हा से हिमाचल प्रदेश तबादला लेने का प्रस्ताव दिया, जिससे वह मुख्य न्यायाधीश के पद तक पहुंच जाएं. न्यायमूर्ति सिन्हा ने इससे इनकार कर दिया और ससम्मान सेवानिवृत्त हो गये.
भारत के सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में वकीलों ने प्रमुख भूमिका निभायी है. विलायत से कानून की पढ़ाई के बाद भारतीय न्यायपालिका के उच्चतर सोपानों में वकालत करने या न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के अनेक उदाहरण हैं. भारतीय न्यायपालिका के उच्च खंडों में न्यायमूर्ति के रूप में वरिष्ठ व नामी वकीलों का सीधे चयन भी किया जाता है. उच्च न्यायालय में न्यायाधीश नियुक्त होने का एक अन्य श्रमसाध्य रास्ता भी है, तहसील-ब्लॉक-जिला स्तर पर निचली अदालतों में शुरुआत करके कोई न्यायाधीश धीरे-धीरे पदोन्नति से वहां पहुंचे. इन सीधे नियुक्त हुए और निचली अदालतों से अपने कार्यानुभव द्वारा ऊपर पहुंचे व्यक्तियों के बीच अंतर वैसे ही है, जैसे भारतीय प्रशासनिक सेवा (आइएएस) में सीधे चयनित और राज्य प्रशासनिक सेवा से पदोन्नत आइएएस अधिकारियों के बीच पाया जाता है. निचली अदालतों को उच्चतर न्यायालयों की भांति न तो सुख-सुविधाएं व कार्यालय-पुस्तकालय का बुनियादी ढांचा मिलता है और न ही इनके काम की समुचित सराहना और प्रशंसा होती है.
निचली अदालतों के इन लंबे, श्रमसाध्य और सुविधाविहीन मार्ग से चल कर उच्च न्यायालय पहुंचे कुछ न्यायाधीशों ने भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में कुछ बेहद महत्वपूर्ण निर्णय दिये हैं. इन्हीं में से एक हैं न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा. न्यायमूर्ति सिन्हा ने 12 जून,1975 को स्वतंत्र भारत का सबसे ऐतिहासिक फैसला देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का निर्वाचन अवैध करार दिया. उनके इस एक फैसले ने समूचा भारतीय राजनीतिक परिदृश्य बदल कर रख दिया.
12 मई, 1920 को उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में जन्मे जगमोहन लाल सिन्हा ने मेरठ से कानून की उपाधि ली और 1942 में वकालत की शुरुआत की. 1957 में उन्होंने यूपी के बांदा में सत्र न्यायाधीश के रूप में न्यायपालिका में अपना काम शुरू किया और 1970 में उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया. 1971 के आम चुनावों में रायबरेली संसदीय सीट पर इंदिरा गांधी ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राजनारायण को 1,11,810 मतों से हराया था. राजनारायण ने इस चुनाव में श्रीमती गांधी पर गैरकानूनी तरीकों से चुनाव जीतने का आरोप लगाते हुए एक याचिका दायर की. इस मुकदमे को न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा की अदालत में पेश किया गया.
न्यायमूर्ति सिन्हा अदालत की गरिमा और प्रतिष्ठा के प्रति बेहद गंभीर थे, अपनी अदालत में प्रधानमंत्री को बतौर गवाह बुलाने से पहले उन्होंने वहां उपस्थित हर व्यक्ति से कहा कि न्यायालय की परंपरा के अनुसार लोगों को केवल न्यायाधीश के प्रवेश पर खड़े होना आवश्यक है, किसी भी अन्य व्यक्ति के लिए नहीं. श्रीमती गांधी के न्यायालय कक्ष में आने पर केवल उनके वकील एससी खरे आधे खड़े हुए और बाकी सारे लोग अपने स्थान पर ही बैठे रहे. इस मामले की सुनवाई के अंतिम दौर में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डीएस माथुर एक दिन अचानक न्यायमूर्ति सिन्हा के घर शिष्टाचार भेंट करने आये, बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति के लिए आपका नाम विचारणीय है. इस मुकदमे के फैसले के बाद आपको सर्वोच्च न्यायालय भेज दिया जायेगा. न्यायमूर्ति माथुर, प्रधानमंत्री के निजी चिकित्सक के संबंधी थे और न्यायमूर्ति सिन्हा को प्रलोभन देने के लिए ही यह प्रस्ताव रखा था. न्यायमूर्ति सिन्हा ने इस पर कोई प्रतिक्रि या नहीं की.
इन निर्णय को लिखवाने के दौरान न्यायमूर्ति सिन्हा ने अपने स्टेनों को दो दिनों तक अपने साथ ही रखा और अदालत में निर्णय सुनाये जाने तक किसी को इसकी भनक तक नहीं पड़ी.12 जून, 1975 को अपना 258 पृष्ठों का फैसला देते हुए न्यायमूर्ति सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के अंतर्गत दोषी मानते हुए रायबरेली से उनका निर्वाचन रद्द कर दिया. प्रधानमंत्री की चुनाव सभाओं में मंच बनाने व उसमें बिजली की व्यवस्था करने में प्रशासनिक अधिकारियों का राजनीतिक कार्यो में दुरुपयोग और यशपाल कपूर द्वारा अपनी शासकीय सेवा के दौरान राजनीतिक कार्यो में भाग लेने को चुनाव कानून का उल्लंघन पाया. राजनारायण की पांच अन्य शिकायतों, जैसे चुनावी कार्यो में श्रीमती गांधी के आवागमन के लिए वायुसेना के हवाई जहाज, हेलीकॉप्टर का उपयोग, मतदाताओं में शराब व कपड़ों का वितरण, गाय-बछड़ा के धार्मिक प्रतीकों का उपयोग, मतदान केंद्र तक मतदाताओं को मुफ्त सवारी, और चुनावी व्यय की सीमा से अधिक खर्च को न्यायमूर्ति सिन्हा ने खारिज कर दिया. अपने निर्णय में न्यायमूर्ति सिन्हा ने श्रीमती गांधी को भ्रष्ट चुनावी आचरण का दोषी पाते हुए फैसले के दिन से अगले छह सालों के लिए चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी. प्रधानमंत्री और वह भी इंदिरा गांधी जैसी शक्तिशाली पीएम के विरु द्ध ऐसा निर्णय अकल्पनीय था. इस निर्णय के ठीक 13 दिन के बाद, 25 जून, 1975 को आंतरिक आपातकाल की घोषणा हुई और भारत के राजनीतिक इतिहास का स्वरूप ही बदल गया.
न्यायमूर्ति सिन्हा का निर्णय केवल कानूनी तथ्यों और तर्को पर आधारित था, इसमें उन्होंने कहीं भी अपनी व्यक्तिगत राय नहीं दी. इस फैसले में कहीं भी कोई अतिरिक्त उद्धरण या सुभाषित वचन नहीं दिये गये थे. 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद राजनारायण के वकील शांति भूषण केंद्रीय कानून मंत्री बने और उन्होंने न्यायमूर्ति सिन्हा को हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय स्थानांतरित करने का प्रस्ताव दिया, ताकि उन्हें मुख्य न्यायाधीश बनाया जा सके. न्यायमूर्ति सिन्हा ने यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और सामान्य रूप से सेवानिवृत्त हो गये. सेवानिवृत्ति के बाद वह सार्वजनिक जीवन में नहीं आये. सन 2000 में एक अंगरेजी दैनिक को दिये गये साक्षात्कार में उन्होंने अपने उस निर्णय के बारे में बात करने से इनकार कर दिया, लेकिन कहा- ‘आनेवाली पीढ़ियां आपातकाल लगानेवालों को कभी माफ नहीं करेंगी, लेकिन इसके बाद आनेवाली सरकारों ने क्या किया? जीवन और स्वतंत्रता के मूल अधिकारों का व्यापक पैमाने पर हनन आज भी हो रहा. आज आपातकाल तो नहीं है, लेकिन आज भी अत्याचार उसी तरह से जारी है, लगता है हमने आपातकाल से कोई सबक नहीं सीखा है. यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है, और यदि हमने समय रहते इसकी रोकथाम नहीं की, तो आपातकाल किसी और रूप में दोबारा लौट सकता है.’
20 मार्च, 2008 को न्यायमूर्ति सिन्हा का देहांत हो गया, एक सरल, सादा इनसान, जिसने यह दिखाया कि महानता ऊंचे ओहदे, ऊंचे महलों, ऊंचे तमगों से नहीं, सिर्फ ईमानदारी से अपना काम करने से आती है.