कायाकल्प :कभी हथियार लेकर दस्ते के साथ बीहड़ वन में घूमती थी बुंडू की रेशमी
रांची : बुंड़ू की रेशमी महली की जिंदगी ने करवट ली है. एक समय वह कुख्यात नक्सली कुंदन पाहन के दस्ते में शामिल होकर जंगलों और बीहड़ में बंदूक लेकर घूमती थीं. कभी नक्सली रहीं रेशमी ने अब शहर का रुख किया है.
बंदूक थामनेवाले हाथ अब केतली उठा रहे हैं. रेशमी रांची समाहरणालय में चाय की दुकान चलाती है. समाज में आतंक फैलाने के रास्ते छोड़, अब अपनी मेहनत पर भरोसा है. समाहरणालय के ए ब्लॉक में चला रही कैंटीन में वह प्रतिदिन 500 से अधिक लोगों को चाय कॉफी पिलाती हैं.
रेशमी के कैंटीन में समोसा भी मिलता है. रेशमी खुश है कि उसने जंगल रास्तों को छोड़ कर मुख्यधारा की राह पकड़ ली. प्रभात खबर के संवाददाता उत्तम महतो ने रेशमी से बात की.
रेशमी जी, मेहनत की नयी जिंदगी मुबारक हो. अपने परिवार के बारे में बताइए.
कैसे जुड़ी नक्सली संगठन से ?
नक्सली संगठन में आपको क्या काम करना पड़ता था ?
काम कुछ था नहीं. संगठन के लोग ही तय करते थे कि कहां कब क्या करना है. उसी के हिसाब से रणनीति बनायी जाती थी. हमें बंदूक से लेकर राइफल चलाने तक का प्रशिक्षण दिया गया था. अगर कहीं हमला करना है, तो दस्ते के सदस्य एक साथ मूवमेंट करते थे. उसके बाद घटना को अंजाम दिया जाता था. छह सालों तक इसी प्रकार संगठन के साथ जंगलों में घूमती रही.
सरेंडर करने का विचार कैसे आया ?
जंगल के जीवन से मैं तंग आ चुकी थी. संगठन के रहने के दौरान ही एक नक्सली से शादी कर ली थी. एक बच्च भी हुआ. उसके बाद से ही मेरा मन संगठन में नहीं लगता था. पुलिस के डर से हर दिन यहां से वहां भागना पड़ता था. अंत में सोचा कि यह काम अब मुझसे नहीं होगा. फिर सरेंडर करने की सोची.
रेशमी जी, क्या संदेश देना चाहेंगी झारखंड के नक्सलियों को ?
नक्सली बनने से कोई लाभ नहीं है. संगठन बाहर से जैसा दिखायी देता है, वास्तव में वैसा नहीं है. मैं सभी संगठन के लोगों से यह अनुरोध करना चाहूंगी कि वे आकर सरेंडर कर दें. जंगल में बैठ कर अच्छा खाने(मांस मछली) से अच्छा है अपने घर व परिवार के साथ बैठ कर माड़-भात खायें. पुलिस भी हमें मुख्यधारा में लाने के लिए काफी प्रयास कर रही है. हम सभी को मुख्यधारा में आना चाहिए.