।। रविदत्तबाजपेयी ।।
* न्यायमूर्ति नहीं, न्यायप्रिय
–1976 में हेबियास कार्पस मामले में दिया ऐतिहासिक निर्णय-
आपातकाल के चुनौतीपूर्ण माहौल, सारे सहयोगी जजों के कायरतापूर्ण व्यवहार और अपने भविष्य पर संकटपूर्ण आशंकाओं के बावजूद भी हंसराज खन्ना ने न्याय का साथ नहीं छोड़ा, भारत में न्यायप्रिय लोगों के समूह में वह एक राजहंस थे. भारत निर्माताओं में राजनीतिक, प्रशासनिक, शैक्षणिक, इंजीनियर व सैनिकों के नाम आगे रखे जाते हैं, लेकिन हंसराज खन्ना भारत के राष्ट्रीय चरित्र निर्माताओं में से एक हैं.
स्वस्थ लोकतंत्र में स्वतंत्र व निष्पक्ष न्यायपालिका की भूमिका बहुत अहम है, विशेषकर जब कोई सत्ताधारी दल अपने राजनीतिक फायदे के लिए संविधान की अवहेलना करने लगे, तो एकमात्र न्यायपालिका ही ऐसी निरंकुश सरकार पर अंकुश लगा सकती है. न्यायपालिका की शक्ति कानून की भारी पुस्तकों और दंड संहिता की जटिल धाराओं से नहीं, बल्किइसके न्यायाधीशों की न्यायप्रियता और उनके विवेक से आती है. संवैधानिक नियमों या कानून की केवल तार्किक व्याख्या, बौद्धिक कवायद तो हो सकती है, लेकिन न्याय नहीं हो सकता.
किसी निर्णय पर पहुंचने की उचित प्रक्रि या और हर कीमत पर न्याय प्रदान करने की निष्ठा ही किसी न्यायविद को न्यायप्रिय बनाती है. भारतीय न्यायपालिका में ऐसे कुछ विरले लोग भी हुए हैं, जिनके लिए न्यायिक प्रक्रि या की शुद्धता किसी भी राजनीतिक प्रलोभन या व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से कहीं बहुत ऊपर रही है. ऐसे आदर्श न्यायप्रिय लोगों के समूह में भी हंसराज खन्ना को एक राजहंस माना जाता है. 3 जुलाई, 1912 को अमृतसर में जन्मे हंसराज खन्ना के पिता भी एक नामी वकील थे, 1934 में अपनी कानून की उपाधि लेने के बाद खन्ना को 1952 में जिला व सत्र न्यायाधीश नियुक्त किया गया. 1962 में पंजाब हाइकोर्ट में जज बने, 1969 में दिल्ली हाइकोर्ट के चीफ जस्टिस और सितंबर 1971 में सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त हुए. वर्ष 1967 में गोलकनाथ के संपत्ति विवाद निर्णय में भी सुप्रीम कोर्ट में संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों में संशोधन करने की संसद की शक्ति को सीमित किया था, जिसके बाद सरकार को संविधान संशोधन लाना पड़ा. इंदिरा गांधी के कुछ अत्यंत लोकप्रिय निर्णयों जैसे प्रिवी पर्स की समाप्ति, बैंकों का राष्ट्रीयकरण को सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक–न्यायिक कसौटी पर अवैध करार दिया था, जिसके परिणामस्वरूप सरकार को अन्य संविधान संशोधनों की आवश्यकता पड़ी थी. इसी बीच केरल सरकार द्वारा एक हिंदू मठ की संपत्ति को अपने अधिकार में लेने के खिलाफ मठ प्रमुख केशवानंद भारती ने याचिका दायर की, इस याचिका की सुनवाई के दौरान पूर्व उल्लेखित संविधान संशोधनों को चुनौती देने के लिए दायर अन्य याचिकाओं को भी इसी मुकदमे के साथ सम्मिलित कर दिया गया.
13 जजों की पीठ में हंसराज खन्ना के निर्णायक मत से सात–छह के बहुमत से यह फैसला दिया गया कि संसद, संविधान के मूल ढांचे को संशोधित नहीं कर सकती है. इस निर्णय से क्षुब्ध तत्कालीन प्रधान मंत्री ने सुप्रीम कोर्ट के तीन वरिष्ठ जजों को दरकिनार करते हुए न्यायमूर्ति एएन रे को चीफ जस्टिस नियुक्त किया.
25 जून, 1975 को भारत में आपातकाल की घोषणा के बाद संविधान प्रदत्त मूल अधिकारों को स्थगित कर दिया और बड़ी संख्या में लोगों को गिरफ्तार किया गया. भारत के विभिन्न राज्यों में स्थित उच्च न्यायालयों ने नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को उनका मूल अधिकार मानते हुए इन गिरफ्तारियों को अवैध बताया, जिसके बाद भारत सरकार ने इन निर्णयों के विरु द्ध सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की. भारतीय न्यायपालिका के सबसे प्रख्यात मामलों में से एक ‘हेबियस कार्पस केस या एडीएम जबलपुर विरु द्ध शिवकांत शुक्ल’, की सुनवाई हेतु शीर्ष कोर्ट के पांच जजों की एक पीठ बनायी गयी, जिसमें चीफ जस्टिस एएन रे, एमएच बेग, वाइवी चंद्रचूड़, पीएन भगवती के अलावा हंसराज खन्ना भी शामिल थे. इस पीठ को इस बात का निर्णय देना था कि क्या आपातकाल के दौरान, मूल अधिकारों के स्थगन के बाद भी किसी नागरिक को अपनी गिरफ्तारी को न्यायिक चुनौती देने का अधिकार है अथवा नहीं? आश्चर्यजनक रूप से इस पीठ में मानवाधिकारों के स्वघोषित मुखर समर्थकों वाइवी चंद्रचूड़ और पीएन भगवती के होने के बावजूद भी इस पीठ ने 4-1 के बहुमत से फैसला दिया कि आपातकाल के दौरान भारतीय नागरिक को अपनी गिरफ्तारी को चुनौती देने का अधिकार नहीं है, सरकारी आदेश के विरु द्ध निर्णय देनेवाले हंसराज खन्ना अकेले जज थे.
इस याचिका की सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति खन्ना ने महाधिवक्ता से सीधे प्रश्न किया, ‘भारतीय संविधान में नागरिकों को प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है. आपातकाल में यदि कोई पुलिस अधिकारी केवल व्यक्तिगत दुश्मनी के कारण किसी व्यक्ति की हत्या कर देता है, तो क्या आपके अनुसार मृतक के संबंधियों को न्याय पाने के लिए कोई रास्ता नहीं है.’ महाधिवक्ता ने उत्तर दिया, ‘ जब तक आपातकाल जारी है तब तक ऐसे व्यक्तियों को न्याय पाने का कोई रास्ता नहीं है. ‘ तत्कालीन सरकार के पूर्वाग्रह, प्रतिशोध या प्रलोभन से पूरी तरह से निस्पृह होकर, 26 अप्रैल, 1976 को अपने विवेक और न्यायप्रियता के आधार पर हंसराज खन्ना ने अपना निर्णय दिया, जो आज तक भारत में निष्पक्ष न्यायपालिका के लिए एक अनुकरणीय उदहारण माना जाता है. न्यायमूर्ति खन्ना के इस निर्णय के बारे में 30 अप्रैल, 1976 को न्यूयॉर्कटाइम्स ने अपने संपादकीय में लिखा, ‘ भारत जब कभी अपनी स्वतंत्रता और लोकतंत्र के रास्ते पर वापस आयेगा, तो निश्चित रूप से कोई न कोई सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश एचआर खन्ना का स्मारक जरूर बनवायेगा.’ अपने इस निर्णय के कारण हंसराज खन्ना को सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया गया और यह पद उनके कनिष्ठ सहयोगी को दे दिया गया, जिसके विरोध में हंसराज खन्ना ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया.
25 फरवरी, 2008 को न्यायमूर्ति खन्ना के निधन पर ऑस्ट्रेलियन लॉ जर्नल ने अपने शोक संदेश में कहा ‘न्यायमूर्ति एचआर खन्ना भारत के महान न्यायाधीश थे और सारे राष्ट्रमंडल देशों के न्यायाधीशों के लिए सत्यनिष्ठा का एक आदर्श थे.’ वर्ष 1976 में हेबियास कार्पस मुकदमे में अपना निर्णय लिखने के बाद हंसराज खन्ना ने अपनी बहन से कहा था,’ मेरे इस निर्णय के बाद मुङो मुख्य न्यायाधीश का पद नहीं दिया जायेगा.’ आज के दौर में न्यायपालिका में प्रतिबद्धता की सिर्फएक ऐसी मिसाल मिल जाये तो पूरे देश में नयी उम्मीद की एक मशाल जल उठेगी.