दक्षा वैदकर
उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में एक उनींदा-सा कस्बा है बुढ़ाना. यहां रहनेवाले एक किसान के परिवार के नौ बच्चों (सात लड़के, दो लड़कियां) में से एक सामान्य-सा दिखनेवाला लड़का बचपन से ही एक्टर बनने के ख्वाब देखता था. वह इतना खामोश था कि 30-40 बच्चों की क्लास में भी मुश्किल से पांच-छह बच्चे ही जानते थे कि वह उनकी क्लास में है.
वह अपराध के लिए कुख्यात अपने उस इलाके से दूर जाना चाहता था और पढ़ाई ही ऐसी चीज थी, जिसका दामन थाम वह वहां से निकल सकता था. कोई उसे राह दिखानेवाला था नहीं और आर्थिक हालात भी कुछ ठीक नहीं थे. ऐसे में उसे लगा कि सब साइंस की बात करते हैं, तो काम की चीज होगी, सो उसने साइंस में ग्रेजुएशन कर लिया. बिना किसी प्रोफेशनल एजुकेशन के नौकरी मिलना आसान न था. कई जगह कोशिश की, तो एक जगह केमिस्ट की नौकरी मिल गयी. लेकिन मन नहीं लगा. एक्टिंग का शौक बुला रहा था.
उसने दिल्ली आने का मन बनाया और दिल्ली जाकर उसे अपनी एक्टिंग के शौक को आगे बढ़ाने का मौका मिला. चूंकि माली हालत अच्छी नहीं थी, लिहाजा शाहदरा में रात में चौकीदारी का काम कर लिया और एनएसडी में अपनी एक्टिंग के हुनर को मांजने लगा. उसने 1996 में एनएसडी से अपनी शिक्षा पूरी की.
मजबूत इरादों और अपने हुनर को लेकर यह शख्स मुंबई पहुंचा. जान-पहचान थी नहीं. सांवला रंग और सामान्य चेहरा देख लोग उसे मना कर देते थे. वे उसे फिल्मों के लायक समझते ही नहीं थे. उसका संघर्ष दशक भर से ज्यादा समय तक चला. इस बीच यार-दोस्त कहने लगे कि कोई नौकरी कर लो, यह सब नहीं होनेवाला. लेकिन वह हिम्मत हारनेवालों में से कहां था. 1999 में सरफरोश में मुखबिर के छोटे-से रोल के साथ नवाजुद्दीन सिद्दीकी की किस्मत खुली. अनुराग कश्यप ने इसी रोल को देख कर उन्हें ब्लैक फ्राइडे के लिए चुना था और फिर गैंग्स ऑफ वासेपुर-1,2 में भी लिया. इस फिल्म ने उन्हें दर्शकों का चहेता बना दिया और फिल्मों की लाइन लग गयी.
बात पते की..
फंडा यह है कि किसी भी काम को करो, तो पूरा मन लगा कर. किसी भी फील्ड में आधे-अधूरे ज्ञान से कुछ हासिल नहीं होता.
हतोत्साहित करनेवाले लोग हमेशा आपके आसपास रहेंगे. कभी आपके रंग-रूप को देख कर हंसेंगे, तो कभी गरीबी को. आप सिर्फ लक्ष्य देखें.