शारदा ने शिक्षा व रेमेडियल थेरेपी से बच्चों को दिया जीने का मकसद
बच्चों के लिए नयी उम्मीद
शारदा बताती हैं कि वह जो ठान लेती हैं, उसे हर हाल में पूरा करके ही छोड़ती है. शुरुआती दौर में ज्ञानवती लाठ ने इन बच्चों के लिए अभिनव भारती में सेंटर चलाने के लिए जगह दी. बाद में सीताराम सेकसरिया ने अपना भवन बनाने के लिए सहयोग दिया. मेंटली रिटार्डेड बच्चों पर रिसर्च करने के लिए संस्था द्वारा वर्ष 2000 में ‘बायोमेडिकल रिसर्च एंड डायग्नोस्टिक सेंटर’ खोला गया.
बाद में राज्य सरकार द्वारा इसको जेनेटिक लेबोरेटरी केंद्र की मान्यता दी गयी. यह न केवल भारत का बल्कि विश्व का पहला ऐसा केंद्र है, जो जेनेटिक पर रिसर्च कर रहा है. इसमें ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिस्ऑर्डर, इन्टेलेक्चुअल डिस्एबिलिटी से जुड़ी बीमारी का पता लगाया जाता है. इसी के आधार पर बच्चों को थेरेपी दी जाती है. पचास साल पहले 28 हजार सालाना खर्च से शुरू हुई संस्था आज दो करोड़ रुपये खर्च पर चल रही है.
भारती जैनानी
कोलकाता एक स्कूल का दौरा करने पर जब कुछ मंदबुद्धि बच्चों को शारदा ने चुपचाप कोने में बैठे देखा, तो उनका मन भर आया. शारदा ने संकल्प लिया कि वह ऐसे बच्चों के लिए कुछ करेंगी. इस लक्ष्य के साथ उन्होंने साइकोलॉजी में एमए और पीएचडी की. घर-घर जाकर ऐसे मंद बुद्धि बच्चों को खोजना शुरू कर दिया, जिनको पागल बता कर घर के एक कोने में रख दिया जाता था. ऐसे बच्चों का जीवन संवारने के जज्बे के साथ 55 साल पहले जो यात्र शारदा फतेहपुरिया ने शुरू की थी, वह आज भी जारी है.
77 वर्षीय शारदा फतेहपुरिया के ही परिश्रम का नतीजा है कि आज कोलकाता के मनोविकास केंद्र में विशेष जरूरतवाले बच्चों को शिक्षा व कई थेरेपियों से प्रशिक्षण देकर आत्मनिर्भर बनाया जा रहा है.
दो बच्चों के साथ की थी शुरुआत
मारवाड़ी परिवार से ताल्लुक रखनेवाली शारदा को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा. आज से पचास साल पहले लोगों की मानसिकता बड़ी संकीर्ण थी. ऐसे बच्चों को खोजने के लिए उन्हें कई बार गंदी बस्तियों में घूमना पड़ा. घर-घर जाकर लोगों में जागरूकता फैलानी पड़ी कि ये बच्चे पागल नहीं हैं. उनके आइ क्यू के आधार पर इनकी बुद्धि को विकसित किया जा सकता है. काफी समझाने के बाद लोगों ने बच्चों को भेजना शुरू किया. वर्ष 1966 में ‘चाइल्ड गाइडेंस क्लीनिक ’ खोला गया. पहले दो मंद बुद्धि बच्चों के साथ इसकी शुरुआत की गयी.
पिता व सास का सहयोग मिला
अपने इरादे की पक्की शारदा बताती हैं कि पहले उनके काम को लोग बहुत हल्के तौर पर लेते थे. जब काफी मेहनत की, लोग जुड़ने लगे तो मदद के लिए काफी लोग आगे आये. इस काम में शादी से पहले पिता और शादी के बाद सास का पूरा सहयोग मिला.
बच्चों के लिए लड़ी लड़ाई
शारदा कहती हैं कि काफी चुनौतियों के बाद भी वह अपने लक्ष्य से नहीं डगमगायी. आज से चालीस साल पहले ऐसे बच्चों को पैरेंट्स घर में बंद करके रखते थे. किसी आयोजन में भी जाने नहीं देते थे. ब्रिटिश जमाने में इस तरह के बच्चे लूनेटिक एक्ट में आते थे. उनको संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं मिलता था. काफी संघर्ष के बाद 1995 में पीडबल्यूडी (पर्सन विथ डिसएबिलिटीज) एक्ट व नेशलन ट्रस्ट पास किया गया, ताकि इन बच्चों को संपत्ति में भी समान अधिकार मिल सके. आज ये बच्चे हर कार्य में भाग ले रहे हैं.
पूर्व राष्ट्रपति से मिला नेशनल अवॉर्ड
शारदा मनोवैज्ञानिक, न्यूरोलोजिस्ट, स्पीच थेरेपिस्ट, बाल विशेषज्ञ व स्पेशल एजुकेटर्स की सहायता से मानसिक विकलांग बच्चों के कल्याण में सतत सक्रिय हैं. उनके केंद्र में इन विशेष बच्चों को हाइड्रोथेरेपी, फिजियोथेरेपी, फिजियो व ऑक्यूपेशनल थेरेपी, स्पीच थेरेपी और वन टू वन थेरेपी से ठीक किया जाता है. यहां नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओपेन स्कूलिंग के तत्वावधान में लर्निग डिसएबिलिटीवाले बच्चों के लिए रेमेडियल अध्यापन पद्धति की व्यवस्था है. इसमें संगीत, नृत्य, आर्ट, क्राफ्ट, ड्रिल, योगा व गेम्स के जरिये जॉयफुल लर्निग क्लासेस करायी जाती है. इन उत्कृष्ट कार्यो के लिए शारदा को कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया. 2006 में संस्था को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम द्वारा नेशनल अवॉर्ड दिया गया.