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आदिवासियों, किसानों की जमीन बचाने से हो शुरुआत

बुजुर्ग समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा के लेख व भाषण हम समय-समय पर छापते रहते हैं, जिनमें वह बार-बार चिह्न्ति करते हैं कि पर्यावरण और प्रकृति के विनाश के लिए अगर कोई जिम्मेदार है, तो वो है औद्योगीकरण और उपभोग आधारित अर्थव्यवस्था. और अगर इनसान नहीं चेता, तो इसी की वजह एक दिन वह खुद भी […]

बुजुर्ग समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा के लेख व भाषण हम समय-समय पर छापते रहते हैं, जिनमें वह बार-बार चिह्न्ति करते हैं कि पर्यावरण और प्रकृति के विनाश के लिए अगर कोई जिम्मेदार है, तो वो है औद्योगीकरण और उपभोग आधारित अर्थव्यवस्था. और अगर इनसान नहीं चेता, तो इसी की वजह एक दिन वह खुद भी नष्ट हो जायेगा.

एक और क्षेत्र उनकी चिंता में स्थायी रूप से रहता है कि अब तक के सारे समाजवादी आंदोलन आखिरकार विफल क्यों हो गये? इस पर उनकी समझ है कि चूंकि सभी स्वघोषित समाजवादी देशों (क्यूबा को छोड़ कर) ने उसी औद्योगीकृत अर्थव्यवस्था को अपना लिया जो कि पूंजीवादी देश अपनाये हैं, इसलिए वे भी उन्हीं जैसे हो कर रह गये. इस पर कई पाठक लिखते रहे हैं कि सच्चिदानंद जी मौजूदा आर्थिक मॉडल की आलोचना तो बहुत करते हैं, पर बदलाव और नये समाजवाद का रास्ता नहीं बता पाते. आज हम गांधी शांति प्रतिष्ठान में बीते पांच अप्रैल को दिया गया उनका एक व्याख्यान प्रकाशित कर रहे हैं, शायद इससे पाठकों की जिज्ञासा का समाधान हो जाये.

19 वीं सदी के मध्य से समाजवादी क्रांति की जो कल्पना यूरोप में की गयी थी और जिसमें संसार भर की क्रांतियों का मॉडल या भविष्य देखा गया था, वह एक भ्रम साबित हो चुकी है. उल्टा 20वीं सदी के उत्तरार्ध से पूंजीवादी प्रतिक्रांति का एक सिलसिला शुरू हुआ है, जिसमें 20वीं सदी के प्रथम चरण में सामाजिक एवं आर्थिक समता की दिशा में परिवर्तन के जो आधे-अधूरे प्रयास हुये थे, उन्हें समाप्त किया जा चुका है या किया जा रहा है.

रूस की 1917 की बोल्शेविक क्रांति, चीन की 1923-48 की क्रांति- जिसमें 1960 के दशक से 1970 के दशक तक समाज को समता की दिशा में मोड़ने के कुछ साहसिक (हालांकि क्रूर विचलनवाले) प्रयास हुए थे. 1940 से 1950 के दशक में ब्रिटिश लेबर पार्टी द्वारा कुछ अत्यंत ही महत्वपूर्ण लोक कल्याणकारी योजनाएं (यथा सर्वजनिक स्वास्थ्य सेवा) और यातायात एवं खनन जैसे क्षेत्र में सामाजिक स्वामित्व स्थापित करने के प्रयास हुए थे, लेकिन इन सभी देशों में 20वीं सदी के उत्तरार्ध से पूंजीवादी प्रभुत्व को पुनस्र्थापित करने के सफल प्रयास होते रहे हैं. समता की दिशा में किये गये प्रयास या तो अपनी फिसलन से दु:स्वप्न बन गये या प्रतिक्रांति के उन्मादी उभार से ध्वस्त हो गये. पहले का उदाहण सोवियत यूनियन और दूसरे का जर्मनी में हिटलर का नात्सीवाद है.

इससे संसार के बौद्धिकों में और बहुसंख्य नागरिकों में यह धारणा व्याप्त हुई है कि पूंजीवादी व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है और हमें यह व्यवस्था कबूल कर आगे बढ़ना है. पश्चिमी वर्चस्व से आजाद हुए एशिया, अफ्रीका एवं लैटिन अमेरिका के सभी देशों में (संभवत: क्यूबा अपवाद है) यूरोप, अमेरिका की तर्ज पर तेजी से औद्योगीकरण के प्रयास हो रहे हैं. इनमें विदेशी पूंजी यानी यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका की पूंजी को अधिक से अधिक आकर्षित करने के प्रयास हो रहे हैं.

इस क्रम में इन देशों के प्राकृतिक एवं मानव संसाधनों का साझा शोषण नये उद्योगों के विकास के लिए इस विश्वास से हो रहा है कि लोगों को एक खुशहाल जिंदगी दी जा सकेगी. समग्रता में इससे अमीरों और गरीबों के बीच की खाई और चौड़ी होती जा रही है. नदियों पर बननेवाले विशाल बांधों और खनन उद्योग के विस्तार से लोगों का विस्थापन एक अंतहीन प्रक्रिया बन गयी है. ऐसे विस्थापित लोग नगरों की गंदी बस्तियों का विस्तार करते हैं, जहां लोग नारकीय जीवन व्यतीत करने को विवश हैं.

वामपंथ, जो 20वीं सदी के पूर्वार्ध में सभी जगह पर मुखर था, अब किंकर्तव्यविमूढ़ है और राजनीतिक जीवन में इसकी उपस्थिति काफी कमजोर हुई है. कुछ औद्योगिक और आर्थिक प्रतिष्ठानों के श्रमिकों और कर्मचारी यूनियनों के बाहर इनका प्रभाव नगण्य हो गया है.

लोगों का असंतोष आर्थिक व्यवस्था को बदलने के प्रयास की जगह मूल (ओरिजिन) एवं मजहब आधारित आस्थाओं के प्रभाव में मानव विरोधी आपसी संघर्षो का रूप ले रहा है. इससे मानव समाज, सांस्कृतिक उत्थान की जगह मूल और मजहब आधारित आततायी भ्रांतियों की ओर अग्रसर हो रहा है. अफ्रीका समेत पश्चिम और दक्षिण एशिया का पूरा भू-भाग कट्टरपंथ और आतंकवाद का शिकार है.

19वीं सदी के मध्य से मार्क्‍स के विचार वामपंथ में सबसे अधिक प्रभावशाली थे. अत: वामपंथ की असफलता के कारणों को समझने के लिए मार्क्‍सवादी चिंतन की कुछ मूल मान्यताओं का आकलन जरूरी है, जिसके प्रभाव में मार्क्‍सवादी आंदोलन नयी चुनौतियों के सामने पक्षाघात का शिकार हो गया.

इस चिंतन के मूल में यह विश्वास था कि आर्थिक विकास के क्रम में संसार का ध्रुवीकरण कुछ मुट्ठीभर पूंजीपतियों और विशाल संख्या में ऐसे श्रमिकों (सर्वहारा) के बीच हो रहा है, जिनके पास अपनी श्रमशक्ति को छोड़ (जिसे ये पूंजीपतियों को बेचते हैं) कुछ भी नहीं होता. इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि इस विकास के चरम बिंदु पर सर्वहारा संगठित हो पूंजीपतियों से उत्पादन के साधनों को छीन लेंगे और समाज शोषणविहीन हो जायेगा. कृषक और कृषि हाशिये पर होंगे, जिनकी तरक्की के कुछ उपाय लगभग एक परिशिष्ट की तरह जोड़ दिये गये- मसलन भूमि विकास के लिए भूमि सेना आदि का गठन.

मार्क्‍स का ऐतिहासिक ग्रंथ ‘पूंजी’, जिस पर लगभग उसकी पूरी जिंदगी लगी, श्रम के शोषण के विविध आयामों और पूंजी की संरचना पर इसके परिणामों पर केंद्रित रहा. इसी में चल और अचल पूंजी के बीच अचल पूंजी के बढ़ने से पैदा असंतुलन और मुनाफे के संकट आदि की समस्या पर भी विशद चर्चा की गयी.

इस मार्क्‍सवादी विश्लेषण से, जो समाजवादी आंदोलन में सर्वाधिक प्रभावशाली था, एक ऐसी धारणा बनती है कि प्राथमिक पूंजी संचय के बाद औद्योगिक क्षेत्र में एक स्वायत्त और पूरे समाज की निर्धारक आर्थिक सामाजिक इकाई बन गयी है, और इसके अपने संघर्ष या संकट के समाधान में समाज की सारी आर्थिक सामाजिक समस्याओं का समाधान हो जायेगा. स्वाभाविक था कि यह सोच मूलत: यूरोप और अमेरिका में नये उद्योगों की समस्या के इर्द-गिर्द केंद्रित रही होगी.

बाकी दुनिया इस सोच के हाशिये पर थी या यह मान लिया गया था कि बाकी दुनिया से संबंध के बगैर ये औद्योगिक व्यवस्था चलती रहेगी. महान क्रांतिकारी रोजा लक्जमबर्ग ने जरूर इस क्षेत्र के विकास के लिए एक बाहरी क्षेत्र की अनिवार्यता को रेखांकित किया था. पर इस पर ध्यान नहीं दिया गया, लेकिन यह हकीकत कि आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था ऑक्टोपस की तरह सारे संसार के संसाधनों पर अपने पंजा फैलाये बगैर चल नहीं सकती, लगातार सामने आती रही है.

दरअसल, यह सारी सोच उत्पादन में नये उद्योगों पर इतना अधिक केंद्रित थी कि विपणन और इससे जुड़े सांगठनिक ढांचे में निरंतर होते विशाल विस्तार पर भी ध्यान नहीं दिया गया. इसका नतीजा हुआ कि न सिर्फ क्रांति की मार्क्‍सवादी अवधारणा में औद्योगिक प्रतिष्ठान केंद्र में रहे, बल्कि मार्क्‍सवाद से कुछ बिंदुओं पर मतभेद रखनेवाले दूसरे परिवर्तनकारी आंदोलन मसलन सिंडिकलिज्म और गिल्ड सोशलिज्म को माननेवालों में भी सारे सामाजिक परिवर्तन का केंद्र उत्पादक उद्योग ही थे.

इसलिए सिंडिकलिस्टों की क्रांति का एक मात्र हथियार औद्योगिक मजदूरों की आम हड़ताल और औद्योगिक प्रतिष्ठानों पर कब्जा ही था. स्वाभाविक था कि यह औद्योगिक दृष्टि से अति विकसित देशों का क्रांति दर्शन बन कर रह गया. इसी का परिणाम था कि रूस के मार्क्‍सवादी क्रांतिकारियों ने किसानों को केंद्र में रख और उनकी स्वायत्त व्यवस्था मीर को पुनर्जीवित करने का विचार रखनेवालों से अपने को दूर रखा. उनका यह विश्वास अटल रहा कि अंतत: विकास की प्रक्रिया में पूंजीवादी औद्योगिकरण से ये सभी विविधताएं नष्ट हो जायेंगी एवं उद्योग आधारित क्रांति की सर्वजनीनता अक्षुण्ण रहेगी.

लेकिन पश्चिमी औद्योगिक देशों में भी पूंजीपति और मजदूर का ध्रुवीकरण बाकी मानव श्रेणियों को खत्म कर एकल नहीं रहा. इन देशों में भी विपणन और स्वयं उत्पादन के प्रबंधन से जुड़ा एक बड़ा मध्यमवर्ग विकसित हो रहा था, लेकिन उनकी उपस्थिति नजरअंदाज कर दो ध्रुवीय विभाजन का मिथक जारी रहा. एक मार्क्‍सवादी चिंतक बर्नस्टाइन ने जब इस हकीकत की ओर ध्यान खीचने की कोशिश की, और विचारों में कुछ संशोधन की जरूरत पर बल दिया, तो उसका विचार संशोधनवाद के नाम से मार्क्‍सवादियों में एक निंदासूचक विशेषण बन गया.

श्रम का शोषण पूंजीवादी व्यवस्था का एकमात्र खोट और इसका निवारण क्रांति का केंद्रीय सूत्र बना रहा, लेकिन मनुष्य से इतर उसका सारा परिवेश इस व्यवस्था से अपना हिसाब मांगने लगा है. यह तथ्य कि वस्तुओं का विनिमय मूल्य (जिसे मूल्य माना जाता है और जो एडम स्मिथ और रिकाडरे से लेकर मार्क्‍स तक के सिद्धांत का आधार है) निर्धारित करनेवाली श्रम शक्ति सदा किसी दूसरी वस्तु में रूपायित होती है.

जैसे कपास या रेशम के माध्यम से कपड़े में, या इस्पात में लौह अयस्क और अल्युमिनियम में बॉक्साइट के रूपांतरण में. इन वस्तुओं की अनदेखी की गयी, जबकि यह जगजाहिर हकीकत है कि बिना कपास, लौह अयस्क और बॉक्साइट के श्रम का इन उत्पादों में मूल्य के रूप में अवतरित होना संभव नहीं होता. इस तथ्य को मार्क्‍सवादी विश्लेषण में गौण रखा गया, क्योंकि इस चिंतन का केंद्र बिंदु यह बतलाना था कि कैसे उत्पादन में श्रमशक्ति का केंद्रीय स्थान है और श्रमशक्ति से प्राप्त अतिरिक्त मूल्य ही पूंजीपतियों के मुनाफे का स्नेत है. उत्पादन में श्रम और पूंजी की भूमिका को निरूपित करने की दृष्टि से यह सोच सही तो हो सकती थी और इसी से श्रमिकों के शोषण का मामला जुड़ा था.

इस पूरे विश्लेषण में कच्चे माल और उत्पादन प्रक्रिया को चालू रखने के लिए यातायात के लिए उपयोग में लायी जानेवाली भूमि या इससे नष्ट होनेवाले प्राकृतिक परिवेश आदि के मूल्यों का कोई आकलन नहीं किया जाना उत्पादन के उस आधार को ही नकारना था, जिस पर श्रम की प्रक्रिया टिकी थी. इसी तरह उत्पादन प्रक्रिया में उपयोग में लायी गयी फसलों, काटे गये जंगलों या नष्ट हुई चट्टानों का न तो कोई मूल्यांकन हुआ और न इनके मूल्यांकन की कोई विश्वसनीय विधि विकसित की गयी.

इसलिए कारखानों या उत्पादन प्रक्रिया में लगे श्रमिकों के योगदान का मूल्यांकन तो हुआ और इसी से उत्पाद की कीमत और मुनाफे की मात्र का अनुपात निकाला गया, लेकिन इस प्रक्रिया में परोक्ष रूप से होनेवाले व्यय या क्षय का कभी कोई आकलन नहीं हुआ. एक सरल उदाहरण कोयला का लें, जिसके खनन क्षेत्रों के आबंटन की बड़े पैमाने पर बोली लगायी जाती है.

आबंटित कोयले के खनन में प्रत्यक्ष श्रम और बिजली एवं माल ढुलाई पर होनेवाले खर्च का आकलन तो होता है, लेकिन इस क्रम में खनन क्षेत्र में नष्ट किये गये वन, कृषि भूमि या लोगों के विस्थापन से होनेवाली क्षति का कोई आकलन नहीं होता और न होना संभव है. विस्थापित लोगों की मानसिक और शारीरिक यातना के आकलन की कोई विधि, अब तक विकसित नहीं हो पायी है और न विकसित हो पायेगी.

विकास की जो सुनहरी तस्वीर लोगों के सामने प्रस्तुत की जाती है, उसके आकर्षण का राज यही है कि उसका कृष्णपक्ष अपरिमेय और ओझल बना रहता है, चूंकि ये अपरिमेय या ओझल बना रहता है, इसका यह अर्थ नहीं कि यह अपनी कीमत वसूल नहीं करता. इसकी कीमत प्रकृति दूसरी तरह से वसूल करती है. वन प्रदेश और कृषि क्षेत्र एवं पारंपरिक कृषि चक्र के नष्ट होने का सीधा असर पर्यावरण पर पड़ता है और आज संसारभर पर मंडराता पर्यावरण संकट और कुछ नहीं, बल्कि विकास के नाम पर जो विनाशलीला आदमी चला रहा है, उसी का परिणाम है. जब हम आज की विकास प्रक्रिया पर इसका समग्रता में विचार करेंगे, तो हमें समाजवादी आंदोलन के पतन का कारण भी दिखायी पड़ेगा और हम किसी विकल्प की बात भी कर सकेंगे.

अगर हम अभिव्यक्ति के अलंकरण को नजरअंदाज कर दें, तो औद्योगिक प्रक्रिया मूलत: किसी प्रकृतिजन्य वस्तु को मानव श्रम या इतर ऊर्जा के प्रयोग से किसी दूसरी उपयोगी या दर्शनीय वस्तु में रूपांतरण है : चाहे यह रूपांतरण आदिम काल में चकमक पत्थर से हस्त परस बनाना हो, चाहे विभिन्न अयस्कों का आधुनिक तकनीक और बिजली के प्रयोग से कोई अन्य यंत्र बनाना. आधुनिक तकनीक ने इसी प्रक्रिया को कल्पनातीत गति और विस्तर दिया है. इस क्रम में पदार्थो और ऊर्जा के स्नेतों का सीमाहीन रूपांतरण किया जाता रहा है. पिछली शताब्दी की भारी सफलता ने वर्तमान विकास के मसीहाओं में यह भ्रम भी पैदा किया है कि धरती पर उपलब्ध सीमित पदार्थो से असीमित औद्योगिक वस्तुओं का निर्माण संभव है.

ऊपर की बातों पर विचार करने से समाजवादी आंदोलन के संकट का कारण साफ दिखाई देता है. कच्चे माल की आपूर्ति से लेकर औद्योगिक वस्तुओं के लिए बाजार की उपलब्धि तक का दायरा उत्पादन में लगे औद्योगिक प्रतिष्ठान के सीमित कार्य क्षेत्र की तुलना में ज्यादा विशाल होता है.

उद्योग पर श्रमिकों का अधिकार जो मार्क्‍सवादी, सिंडिकलिस्ट या गिल्ड सोशलिस्टों का (जो सभी विकसित औद्योगिक परिवेश की सामाजवादी धाराएं थीं) मूल लक्ष्य था. औद्योगिक प्रतिष्ठान पर कब्जा, औद्योगिक उत्पादन के लिए संसाधन जुटाना संसार में अपने नियंत्रण के प्रसार पर निर्भर था. रूस में क्रांति के बाद इस जरूरत की पूर्ति के लिए इसका विशाल साम्राज्य उपलब्ध था और फिर कृषि का सामूहिकीकरण किया गया. औद्योगिकीकरण के प्रारंभिक दौर में ब्रिटेन, फ्रांस, नीदरलैंड आदि ने अपनी जरूरतों की पूर्ति एशिया, अफ्रीका व अमेरिका में फैले उपनिवेशों या साम्राज्य से की. जर्मनी, इटली आदि की फासीवादी विचारधारा ने संसार भर पर नियंत्रण का खुला अभियान चलाया. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के राष्ट्रवादी उभार से नये और पुराने दोनों तरह के पश्चिमी साम्राज्यवाद का अंत हुआ.

इसके बाद पश्चिमी देशों की तर्ज पर औद्योगिकीकरण की राह पकड़ चीन, भारत व ब्राजील आदि ने अपने ही देशों के प्राकृतिक एवं मानव संसाधन का वैसा ही दोहन शुरू किया, जैसा पूर्ववर्ती साम्राज्यवाद में होता था. इन देशों के तेज औद्योगिक विकास का यही आाधार था, लेकिन अब इनके आंतरिक संसाधनों की सीमा दिखाई देने लगी है और ये अपेक्षतया कम विकसित पर संसाधनों से भरपूर अफ्रिका या दूसरे भू-भागों में संसाधनों की तलाश में लग गये हैं.

कम आबादी और विशाल संसाधन वाला देश अमेरिका अभी वैसे संकट से नहीं जूझ रहा है जैसा यूरोप के पुराने साम्राज्यवादी देश. ऊर्जा के लिए पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैसा का महत्व बढ़ जाने से सारी दुनिया की निगाह पश्चिम एशिया के इसलामी देशों पर लगी थी. इस भू-भाग में पिछली शताब्दी की लूट से धवस्त पारंपरिक समाज की पृष्ठभूमि में ‘इसलामिक स्टेट’ (आइएसआइएस) जैसे उन्मादी समूह अस्तित्व में आये हैं.

स्वयं भारत में भूमि अधिग्रहण के कानून में ऐसे प्रावधान जोड़ने की कोशिश हो रही है, जिससे किसानों और आदिवसी बहुल वन प्रदेशों के लोगों की जमीन, जिसमें विपुल खनिज संपदा है मनमाने ढंग से औद्योगिक और व्यवसायी प्रतिष्ठानों के हवाले किया जा सके. एक तरह से लोगों लोगों के जीवन में एक प्रलयकारी भूचाल आ रहा है.

कुल मिला कर, भारी उद्योग आधारित समाजवादी परिवर्तन का जो दृष्टिकोण 19वीं और 20वीं सदी में विकसित हुआ था, अब वह नकारा साबित हो रहा है. इससे एक ओर अधिनायकवाद और सामाजिक विश्रृंखलन का खतरा पैदा हुआ है, तो दूसरी ओर पर्यावरण का संकट- जो अंतत: सभी तरह के जीवन पर खतरा है. अब यह खतरा सिर्फ कल्पना और किताबों की बात नहीं है.

पिछले दिनों में हम लोग इसका प्रत्यक्ष दर्शन हफ्तों तक जारी धुंध, बेमौसमी बरसात और भारी हिमपात के रूप में कर रहे हैं. हमारे लिए समाजवाद अब सिर्फ जीवन को समता के आधार पर संवारने का उद्देश्य नहीं रह गया है, बल्कि पर्यावरण के संकट से मानव जीवन और प्रकृति को बचाने की मुहिम भी बन गया है.

तत्काल हमारे सामने दो चुनौतियां हैं-

1. किसानों और जनजातीय समूहों की जमीन पर उनके हक की रक्षा.

2. पर्यावरण की रक्षा.

इसी दिशा में बढ़ते हुए जमीनी आधार पर प्रदूषण से मुक्त आजीविका के नये तरीकों का अन्वेषण और उनका विकास, जो धीरे-धीरे वर्तमान कॉरपोरेटी ढंग के विकास का स्थान ले ले और प्रकृति और मनुष्य के बीच की पारस्परिकता को पुनस्र्थापित कर एक नया समतामूलक समाज का निर्माण कर सके. इस दिशा में संक्रमण छोटे दायरे में आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को जीवित करने की पहल से शुरू

हो सकती है. हमारी रणनीति का यह एक आधारभूत मुद्दा होगा.

इस दिशा में- 1. उन संघर्षो को तेज करना होगा, जो किसानों और आदिवासियों की जमीन और जंगल पर अधिकार के लिए चल रहे हैं. 2. पर्यावरण की रक्षा के लिए वर्तमान औद्योगिकीकरण के विकल्प में पारंपरिक जैविक कृषि और कुटीर उद्योगों को विकसित और प्रोत्साहित करना होगा. इनसे न सिर्फ प्रदूषण से मुक्त जीवन की संभावना बढ़ेगी, बल्कि छोटे-छोटे मानव समुदायों की स्वायत्ता को भी बल मिलेगा. इसी आधार पर भविष्य का समतामूलक समाज यानी समाजवाद विकसित होगा.

– मार्क्‍सवादी विश्लेषण में उत्पादन प्रक्रिया का केंद्र श्रमशक्ति को मान लिया गया. इसमें उत्पादन के लिए जरूरी कपास, लौह अयस्क, बॉक्साइट वगैरह की उपेक्षा की गयी. इस पूरे विश्लेषण में कच्चे माल और उत्पादन प्रक्रिया को चालू रखने के लिए यातायात के लिए उपयोग में लायी जानेवाली भूमि या इससे नष्ट होनेवाले प्राकृतिक परिवेश आदि के मूल्यों का कोई आकलन नहीं किया जाना उत्पादन के उस आधार को ही नकारना था, जिस पर श्रम की प्रक्रिया टिकी थी. उत्पादन प्रक्रिया में इस्तेमाल फसलों, काटे गये जंगलों या नष्ट हुई चट्टानों का न तो कोई मूल्यांकन हुआ और न इसकी कोई विश्वसनीय विधि विकसित की गयी.

– अगर हम अभिव्यक्ति के अलंकरण को नजरअंदाज कर दें, तो औद्योगिक प्रक्रिया मूलत: किसी प्रकृतिजन्य वस्तु को मानव श्रम या इतर ऊर्जा के प्रयोग से किसी दूसरी उपयोगी या दर्शनीय वस्तु में रूपांतरण है : चाहे यह रूपांतरण आदिम काल में चकमक पत्थर से हस्त परस बनाना हो, चाहे विभिन्न अयस्कों का आधुनिक तकनीक और बिजली के प्रयोग से कोई अन्य यंत्र बनाना. पिछली शताब्दी की भारी सफलता ने वर्तमान विकास के मसीहाओं में यह भ्रम भी पैदा किया है कि धरती पर उपलब्ध सीमित पदार्थो से असीमित औद्योगिक वस्तुओं का निर्माण संभव है.

– भारी उद्योग आधारित समाजवादी परिवर्तन का जो दृष्टिकोण 19वीं और 20वीं सदी में विकसित हुआ था, अब वह नकारा साबित हो रहा है. इससे एक ओर अधिनायकवाद और सामाजिक विश्रृंखलन का खतरा पैदा हुआ है, तो दूसरी ओर पर्यावरण का संकट- जो अंतत: सभी तरह के जीवन पर खतरा है.

अब यह खतरा सिर्फ कल्पना और किताबों की बात नहीं है. पिछले दिनों में हम लोग इसका प्रत्यक्ष दर्शन हफ्तों तक जारी धुंध, बेमौसमी बरसात और भारी हिमपात के रूप में कर रहे हैं. हमारे लिए समाजवाद अब सिर्फ जीवन को समता के आधार पर संवारने का उद्देश्य नहीं रह गया है, बल्कि पर्यावरण के संकट से मानव जीवन और प्रकृति को बचाने की मुहिम भी बन गया है.

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