।। रविदत्तबाजपेयी ।।
चीन दुनिया के लिए एक कारखाने या उत्पादन संयंत्र का काम कर रहा है. तात्कालिक, मगर क्षणिक सुख तलाशती, उपभोग की सामाजिक व्यवस्था, सबसे सस्ते में उत्पादन की आर्थिक व्यवस्था और केवल निजी हित साधन में डूबी राजनीतिक व्यवस्था ने भारत ही नहीं, पूरी दुनिया को, आसन्न बड़े आर्थिक संकट से निश्चिंत कर दिया है.
चीन से भारत की प्रतियोगिता है, लेकिन चीन की अर्थव्यवस्था बिगड़ने से भारत का नुकसान ज्यादा है, भारत को आर्थिक से अधिक राजनीतिक व सामरिक खतरे हैं.
चीन के त्वरित आर्थिक विकास की कहानी बाकी दुनिया में अचरज–भय–ईष्र्या का कारण रही है, वर्ष 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी में भी चीन की अर्थव्यवस्था पूरी मजबूती के साथ अपने आर्थिक विकास की रफ्तार को बनाये रखने में भी कामयाब रही. चीन एक अबूझ पहेली–सा अपनी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को साम्यवादी राजनीतिक नियंत्रण के साथ चलाता आया है.
वर्ष 1980 के बाद से चीन ने अपने आर्थिक विकास के लिए कुछ चुनिंदा प्रांतों या शहरों में भारी मात्र में औद्योगीकरण का अभियान चलाया. इन प्रांत के अधिकारियों व राजनेताओं को तीव्र आर्थिक प्रगति हासिल करने के लिए पुरस्कृत करना शुरू किया. चीन के केंद्रीय नेतृत्व ने ऊंची आर्थिक विकास दर पाने के लिए नीतिगत निर्णयों के अलावा अनेक आर्थिक निर्णयों का विकेंद्रीकरण कर दिया.
नतीजतन बहुत कम समय में चीन में बहुत तेज विकास हुआ और बड़ी संख्या में स्टील, अल्यूमीनियम, सीमेंट, केमिकल, मोटर–कार से लेकर दैनिक उपभोग के सारे सामान बनाने के उद्योग–कारखाने लगाये गये. आर्थिक सुधारों के आरंभिक दशकों में चीन की कम्युनिस्ट व्यवस्था में आर्थिक निर्णयों के इस लोकतंत्रीकरण से बहुत लाभ हुआ.
लेकिन केवल आर्थिक विकास प्राप्त करने के लिए स्थानीय अधिकारियों को पुरस्कृत करने की परंपरा से विभिन्न प्रांतों के बीच एक प्रतियोगिता भी शुरू हो गयी. अब हर प्रांत के प्रमुख अधिकारी–राजनेता अपने इलाके में नये उद्योग–कारखाने लगाने के लिए उद्यमियों (अधिकतर चीन के सरकारी उपक्रम) को प्रलोभन देकर आमंत्रित करने लगे.
सस्ती जमीन, आवागमन की सुविधाएं, बिजली और पानी की रियायती दर, अत्यंत अनुशासित व सस्ते श्रमिक, सरकारी अनुदान जैसे उपहारों द्वारा नये पूंजी निवेश को लुभाने के तरीके ढूंढ़े गये, नये उद्योगों को अपने यहां आकर्षित करने के लिए तो प्रांतों के बीच जैसे सुविधाओं की नीलामी की बोली लगने लगी.
अत्यंत गतिमान, पर केवल स्थानीय स्तर तक सोचनेवाली इस नीति के चलते चीन में हर तरह के उत्पादन के ढेरों कारखाने खुले, लेकिन इसका एक नतीजा यह भी हुआ कि एक ही तरह के सामान बनाने के लिए विभिन्न प्रांतों में कई औद्योगिक इकाइयां बनीं. उदाहरणार्थ एक समय चीन में स्टील की भारी मांग थी.
स्थानीय उत्पादन कम होने के चलते चीन स्टील विदेशों से मंगाता था. किसी प्रांत में इस्पात कारखाना लगा, तो इसका सारा उत्पादन तुरंत ऊंची कीमत पर बिक गया. आर्थिक प्रगति के लिए स्थानीय अधिकारियों को चीन के केंद्रीय प्रशासन ने बड़ा ओहदा देकर पुरस्कृत किया. इसकी देखा–देखी अन्य प्रांतों ने भी अपने यहां स्टील के कारखाने लगवाने शुरू किये और एक समय ऐसा आया कि चीन में इतना ज्यादा स्टील बनने लगा, जो न तो विदेशों में बेचे जा सके, न ही देश के भीतर इसकी खपत हो. परिणामत: स्टील की, तो भरमार हो गयी, लेकिन खरीदार नदारद हो गये.
यह स्थिति बहुत सालों से लगभग हर उद्योग में चल रही थी और आर्थिक विश्लेषक चीन में ‘उत्पादन की बहुतायत’ के बारे में चिंतित थे, लेकिन प्रांतीय सरकारों और क्षत्रपों पर केंद्रीय नेतृत्व लगाम लगाने को तैयार नहीं था.
वर्ष 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट से निबटने के लिए चीन ने उत्पादन बढ़ाने के लिए और कारखाने खोल दिये, जिससे कि चीन की आर्थिक विकास दर में कमी न आने पाये. इस रणनीति से चीन उस समय तो आर्थिक मंदी से बच गया, लेकिन आज उसके सामने उत्पादन के अतिरेक का संकट आ गया है, जो चीन के लिए बेहद गंभीर समस्या है.
एक समय चीन ने अपने सस्ते लागत मूल्य के चलते सारी दुनिया में अनेक कल–कारखानों पर तालाबंदी करवाने में सफलता पायी, लेकिन आज चीन के पास इतने ज्यादा कल–कारखाने हो गये हैं कि इनमें बना सामान बेचने के लिए दुनिया में बाजार ही नहीं है.
स्टील, सीमेंट, अल्यूमीनियम, मोटर–गाड़ियां, मोबाइल फोन से लेकर जहाज निर्माण तक में चीन की उत्पादन क्षमता सारे विश्व की आवश्यकता से बहुत अधिक है. अधिकतर औद्योगिक इकाइयों को सरकारी अनुदान या बैंक के रियायती कर्ज पर चलाया जा रहा है. स्थानीय अधिकारी घाटे में चल रही इकाइयों को बंद करने को तैयार नहीं है. पहले तो इस बंदी से बेरोजगारी बढ़ेगी और दूसरे आर्थिक विकास में कमी इन अधिकारियों के सुनहरे भविष्य के लिए प्रतिकूल होगी.
चीन के नये नेतृत्व ने उत्पादन के आधिक्य से निबटने के लिए कुछ उद्योगों को अपने कारखाने बंद करने की आदेश दिये हैं, लेकिन यह प्रयास इतनी बड़ी समस्या का समाधान नहीं है. चीन पूरी दुनिया का आधा स्टील और अल्यूमीनियम का उत्पादन करता है, जबकि वैश्विक सीमेंट उत्पादन में चीन का हिस्सा 60 प्रतिशत के करीब है, उत्पादन के इस अतिरेक के चलते इन सारे पदार्थो के वैश्विक बाजार में दाम बहुत नीचे गिर गये हैं.
यह समस्या सिर्फ चीन की नहीं, सारे विश्व की है. चीन की अर्थव्यवस्था के मंदी में जाने के बहुत गंभीर परिणाम होंगे. कहीं और इतने कम लागत पर उत्पादन संभव नहीं है और जब चीन इतना सस्ता सामान भी वैश्विक बाजार में नहीं बेच पा रहा है, तो किसी अन्य उत्पादक देश के लिए क्या उम्मीद हो सकती है. भारत में विकास के राज्य आधारित ‘गुजरात मॉडल’, ‘बिहार मॉडल’, ‘केरल मॉडल’ पर बहस चलती रहती है, लेकिन सच्चाई यह है कि भारत का औद्योगिक ढांचा चीन से बहुत पीछे है.
तुलनात्मक रूप से भारत, चीन जितनी कम लागत पर उत्पादन नहीं कर सकता है. भारतीय उद्योगों से नवीनतम तकनीक पर आधारित विशिष्ट प्रकार की मशीनरी या अद्वितीय सामान भी नहीं बनते. आर्थिक संकट के दौर में अपने औद्योगिक विकास के लिए, क्या भारत के पास कोई विकल्प है?