क्या आपने कभी सोचा है कि बिना तार के भी बिजली भेजी जा सकती है. जी हां! जापान के वैज्ञानिकों ने ऊर्जा संचारित करने की वायरलेस तकनीक विकसित की है. हालांकि इसका परीक्षण अभी 55 मीटर तक ही सीमित है, लेकिन वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि इस तकनीक के विकसित होने पर अंतरिक्ष में सौर ऊर्जा हासिल कर उसे धरती तक भेजा जा सकेगा. कैसे होगा यह सब, क्या हैं चुनौतियां आदि समेत इससे जुड़े जरूरी पहलुओं के बारे में बता रहा है नॉलेज..
आज भले ही ‘बेतार सिस्टम’ यानी वायरलेस टेक्नोलॉजी संचार का एक बड़ा साधन बन चुका है, लेकिन महज कुछ दशक पूर्व तक ज्यादातर संचार तार आधारित ही हुआ करते थे. करीब डेढ़ सौ वर्ष पूर्व ग्राहम बेल ने जब टेलीफोन का आविष्कार किया था, उस समय किसी ने शायद यह कल्पना नहीं की होगी कि तार के माध्यम से दूर बैठे लोगों से होनेवाली बातचीत भविष्य में बेतार भी हो सकेगी. यही बात मौजूदा समय में बिजली के संचरण (ट्रांसमिशन) के बारे में भी समझी जाती है. लेकिन, अब बिजली को ‘बेतार’ संचारित करने की दिशा में वैज्ञानिकों ने एक बड़ी कामयाबी हासिल की है.
जापान के वैज्ञानिकों ने माइक्रोवेव्स के इस्तेमाल से पहली बार इलेक्ट्रिक पावर को बेतार संचारित करने यानी बिजली की वायरलेस ट्रांसमिटिंग में सफलता प्राप्त की है. खबरों के मुताबिक इससे अंतरिक्ष में सौर ऊर्जा का उत्पादन और फिर उसे धरती तक संचरण करने की संभावना बढ़ गयी है. फिलहाल शोधकर्ताओं ने माइक्रोवेव्स का इस्तेमाल करते हुए बिजली के पिनप्वॉइंट से करीब 170 फीट की दूरी से 1.8 किलोवॉट पावर सप्लाइ किया, जिसे बिजली से चलनेवाली एक केतली के लिए पर्याप्त माना जाता है.
माइक्रोवेव से एनर्जी ट्रांसमिशन
‘जापान एयरोस्पेस एक्सप्लोरेशन एजेंसी’ (जेएएक्सए) के प्रवक्ता के हवाले से जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भले ही यह दूरी ( 55 मीटर या 170 फीट) ज्यादा नहीं है, लेकिन इस तकनीक ने यह उम्मीद जरूर जगा दी है कि अंतरिक्ष में उपलब्ध व्यापक मात्र में सोलर एनर्जी को भविष्य में धरती तक लाना संभव हो सकेगा. ऐसा पहली बार हुआ है जब करीब दो किलोवॉट इलेक्ट्रिक पावर को ‘डेलिकेट डाइरेक्टिविटी कंट्रोल डिवाइस’ का इस्तेमाल करते हुए माइक्रोवेव्स के माध्यम से उसके ट्रांसमिशन में कामयाबी मिली हो.
उल्लेखनीय है कि जापान एयरोस्पेस एक्सप्लोरेशन एजेंसी पिछले कई वर्षो से स्पेस सोलर पावर सिस्टम के लिए डिवाइस को विकसित करने में जुटी हुई है. अंतरिक्ष में सौर ऊर्जा उत्पादन से धरती पर अबाध रूप से स्थायी तौर पर ऊर्जा की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सकेगी. हालांकि, इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन जैसे मानव-जनित उपग्रह काफी समय से सौर ऊर्जा का उत्पादन कर रहे हैं, लेकिन धरती पर उसका इस्तेमाल हो पाना अब तक एक ‘साइंस फिक्शन’ की तरह ही है. जापान के वैज्ञानिकों द्वारा किये गये इस शोध से उम्मीद जगी है कि एक दिन इस फिक्शन को हकीकत में बदला जा सकता है.
अंतरिक्ष से आयेगी बिजली!
जापान एयरोस्पेस एक्सप्लोरेशन एजेंसी के प्रवक्ता ने भविष्य के संबंधित कार्यक्रम के बारे में बताया है कि सूर्य की रोशनी को एकत्रित करने के लिए धरती से करीब 36,000 किलोमीटर की दूरी पर सोलर पैनल्स व एंटीना लगाये जायेंगे और वहां से सोलर माइक्रोवेव के माध्यम से ऊर्जा को धरती पर भेजा जायेगा. हालांकि, इस तकनीक के व्यावहारिक तौर पर सफल होने में अभी कई दशक का समय लग सकता है. उम्मीद की जा रही है कि वर्ष 2040 या उसके बाद यह कामयाबी मिलेगी.
फिलहाल इस दिशा में कई बड़ी चुनौतियां हैं. मसलन, अंतरिक्ष में सौर ऊर्जा के बड़े ढांचों को कैसे भेजा जायेगा, उन्हें किस प्रकार वहां उत्पादन के लिए तैयार किया जायेगा और उनका अनुरक्षण किस प्रकार से किया जायेगा. इस दिशा में एक बड़ी चुनौती यह भी है कि माइक्रोवेव्स द्वारा ऊर्जा को संचारित (पावर ट्रांसमिशन) करते समय उसकी दिशा को कैसे नियंत्रित किया जायेगा और जियोस्टेशनरी ऑरबिट से धरती पर लक्षित पिनप्वॉइंट द्वारा उसे कैसे ग्रहण (रिसीव) किया जायेगा.
1968 में पहली बार यह विचार
अंतरिक्ष से ऊर्जा को धरती पर भेजने का आइडिया पहली बार वर्ष 1968 में डॉ पीटर ग्लेजर के दिमाग में आया था और इस विचार के लिए वर्ष 1973 में उन्हें इसके पेटेंट को मंजूरी दी गयी. आरंभिक दौर में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी ‘नासा’ और अमेरिका सरकार के ऊर्जा विभाग ने इस प्रोजेक्ट के लिए वित्तीय और तकनीकी मदद मुहैया करायी, लेकिन बाद में उन्होंने यह पाया कि इसकी लागत बहुत ज्यादा है, नतीजन 1980 के दशक में इस प्रोजेक्ट को रोक दिया गया.
वर्ष 2009 के बाद जापान ने अंतरिक्ष से सौर ऊर्जा हासिल करने के बारे में काम शुरू किया. समझा जाता है कि जापान में जीवाश्म ईंधन की कमी और व्यापक तादाद में आयात पर निर्भरता के कारण उसने इस दिशा में कार्य आरंभ किया. साथ ही वर्ष 2011 में फुकुशिमा परमाणु हादसे के बाद से जापान की परमाणु ऊर्जा उत्पादन पर भी काफी असर पड़ा, जिस कारण उसने इस शोधकार्य पर जोर दिया.
वाइट्राइसिटी के वायरलेस घर
आज से महज दो दशक पहले तक वायरलेस फोन का चलन आम नहीं था. बिना तार के इंटरनेट और टेलीफोन के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था. लेकिन, आज वायरलेस इंटरनेट और वायरलेस फोन दोनों ही पूरी दुनिया में मौजूद हैं. तो फिर बिजली से चलनेवाले उपकरण भी वायरलेस क्यों नहीं हो सकते? क्या आपने कभी इस बारे में सोचा है?
दरअसल, करेंट प्रवाहित करने के लिए बिजली के तार का उपकरण तक पहुंचना अनिवार्य है, इसलिए अब तक ऐसा मुमकिन नहीं हो पाया है. लेकिन ‘वाइट्राइसिटी’ ने इस दिशा में कदम बढ़ा दिये हैं और काफी हद तक सफलता भी मिली है. इस नयी तकनीक के तहत एक ‘प्लग-इन क्वॉइल’ को इंस्टॉल करना होता है, जो पावर उपकरणों से करीब आठ फीट की दूरी से चुंबकीय क्षेत्र पैदा होने के कारण ऊर्जा ग्रहण कर पाते हैं. कंपनी ने उम्मीद जतायी है कि अगले एक दशक में आपके घरों में इस तकनीक से बल्ब, टीवी आदि काम कर सकती है और एक सेंट्रल चाजिर्ग बेस से सभी उपकरणों को पावर सप्लाइ की जा सकती है.
मैग्नेटिक फील्ड
वाइट्राइसिटी के चीफ टेक्नोलॉजी ऑफिसर डॉ हॉल के हवाले से ‘सीएनएन’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि बिना किसी तार के ऊर्जा संचरण की दिशा में कार्य किया जा रहा है. इसके लिए एक अन्य कंपनी वायरलेस रेजोनेन्स टेक्नोलॉजी का इजाद कर रही है. हालांकि, अभी इलेक्ट्रिसिटी को हवा में प्रवाहित नहीं किया जा रहा, बल्कि हवा में इसके लिए एक मैग्नेटिक फील्ड कायम करने की कोशिश हो रही है. इसके लिए वाइट्राइसिटी में ‘सोर्स रिजॉनेटर’ बनाया जा रहा है, जो बिजली के तारों का एक क्वॉइल है. इसके जरिये मैग्नेटिक फील्ड कायम किया जा सकता है. माना जा रहा है कि यही मैग्नेटिक फील्ड ऊर्जा को संचारित करेगा. यदि कोई दूसरा क्वॉइल उसके निकट आयेगा, तो उससे भी इलेक्ट्रिकल चार्ज पैदा होगा. इस पूरी प्रक्रिया में किसी तार की जरूरत नहीं होगी.
डॉ हॉल ने इस बारे में विस्तार से बताया है कि जब आप किसी उपकरण को मैग्नेटिक फील्ड के दायरे में ले जाते हैं, तो इससे उस उपकरण में करेंट प्रवाहित होता है और इस प्रकार आप ऊर्जा का संचरण कर पाने में सक्षम होते हैं.
वायरलेस घर
आपके मन में भले ही इस बात की आशंका हो कि वायरलेस घर होने की दशा में बिजली का झटका लग सकता है, लेकिन डॉ हॉल इस बारे में बताते हैं कि मैग्नेटिक फील्ड के इस्तेमाल से ऊर्जा का संचरण पूरी तरह सुरक्षित है. दरअसल, यह ठीक उसी प्रकार है, जैसे वाइ-फाइ राउटर्स में एक प्रकार के फील्ड्स का इस्तेमाल किया जाता है. भविष्य में बनाये जानेवाले मकानों में वायर-फ्र ी एनर्जी ट्रांसफर उतना ही आसान होगा, जितना कि आज वायरलेस इंटरनेट है. यदि सबकुछ वाइट्राइसिटी की योजना के मुताबिक जारी रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब घर में आपकी जेब में रखा स्मार्टफोन चार्ज हो जायेगा. टेलीविजन बिना वायर के ही ङिालमिलाता रहेगा और इलेक्ट्रिक कार भी अपने आप चार्ज हो जायेगी. इसी तरह से लैपटॉप, सेल-फोन्स और टीवी को रिजॉनेटर क्वॉइल से बैटरी द्वारा जोड़ा जायेगा. डॉ हॉल ने बिना तार के भविष्य के रोमांचक परिवारों की कल्पना की है.
क्या हैं चुनौतियां
हालांकि, इस दिशा में चुनौतियां कम नहीं हैं. सबसे बड़ी चुनौती इसके दायरे यानी उस दूरी को बढ़ाना है, जहां तक ऊर्जा को सक्षम तरीके से संचारित किया जा सके. हॉल का कहना है कि यह दूरी क्वॉइल के आकार से जुड़ी है और वाइट्राइसिटी इस दिशा में काम कर रहा है कि एक सटीक दूरी तक ऊर्जा को संचारित किया जा सके.
20 फुट दूर से ही चार्ज हो जायेंगे डिवाइस
वायरलेस पावर सप्लाइ की राह में ‘एनजर्स’ नामक एक कंपनी को कुछ हद तक सफलता मिली है. इस कंपनी ने जिस नये वायरलेस पावर सप्लाइ सिस्टम का डेमो प्रदर्शित किया है, उसे ‘वॉटअप’ नाम दिया गया है. ‘एक्सट्रीम टेक’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, वायरलेस पावर सप्लाइ के लिए इसमें ब्लूटूथ और रेडियो फ्रिक्वेंसी का इस्तेमाल किया गया है. जब यह पूरी तरह से सक्रिय हो जायेगा, तो आपके फोन को करीब 20 फीट दूर से ही चार्ज कर सकता है.
इस रिपोर्ट में बताया गया है कि ‘वॉटअप’ का केंद्र यानी हब मूल रूप से एक पावरफुल आरएफ ट्रांसमीटर स्टेशन है. यह एक ऐसा डिवाइस है, जो हब से ब्लूटूथ के माध्यम से ऊर्जा हासिल करता है. उसके बाद ‘वॉटअप’ का इस्तेमाल डिवाइस तक वायरलेस पावर सिगनल को पहुंचाने के लिए किया जाता है. यह कुछ हद तक गैर-लाइसेंस्ड स्पेक्ट्रम जैसे वाइ-फाइ की तरह काम करता है. ‘एनजर्स’ को उम्मीद है कि इस तकनीक को कुछ इस तरह से विस्तार दिया जा सकता है, जैसे- हम जब स्थान परिवर्तन करते हैं, तो हमारी जेब में रखा फोन एक मौजूदा टॉवर को छोड़ दूसरे से अपनेआप ही संपर्क कायम कर लेता है. कंपनी को उम्मीद है कि उसे इस तकनीक पर आधारित डिवाइस बनाने का लाइसेंस जल्द हासिल हो सकता है. इसके माध्यम से फोन को चार्ज करने के लिए महज एक अतिरिक्त चिप की जरूरत होगी.
2015 : वायरलेस पावर का वर्ष
2015 को वायरलेस पावर का साल कहा जाये तो इसमें अतिशयोक्ति नहीं होगी. दरअसल, वायरलेस चाजिर्ग की क्षमता ने लोगों को इतना उत्साहित कर दिया है कि विशेषज्ञों ने इस वर्ष को वायरलेस पावर वर्ष तक की संज्ञा दे दी है. ‘बीबीसी’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2007 में पहली बार जब यह कॉन्सेप्ट सामने आया था, उस समय मेसाच्यूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के दो शोधकर्ताओं ने 60 वॉट के बल्ब को वायरलेस तकनीक से जलाने में कामयाबी हासिल की थी. उस समय इस कार्य के लिए दो मीटर की दो कॉपर क्वाइलों का इस्तेमाल किया गया था. बाद में उन्होंने वाइट्राइसिटी का गठन किया, जो पूरी तरह से एक तकनीकी कंपनी है. वाइट्राइसिटी का मानना है कि मौजूदा वर्ष ‘मैग्नेटिक रिजॉनेन्स’ के मामले में मील का पत्थर साबित हो सकता है, क्योंकि इसने कुछ फिट की दूरी तक ऊर्जा को बिना तार के संचारित करने में कामयाबी हासिल की है.
वाहनों की बैटरी बिना तार हो सकेगी चार्ज
जीवाश्म ईंधनों के सीमित होते जाने और नवीकरणीय ऊर्जा स्नेतों के विकास से दुनियाभर में बिजली से चलनेवाली कारों और बाइकों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है. इन गाड़ियों की बैटरियों को तकरीबन रोजाना चार्ज करना होता है. आधुनिक युग में बैटरियों को चाजिर्ग में लगाना बोङिाल काम समझा जाता है. इस काम को आसान बनाने के लिए बैटरी चाजर्र स्पेशलिस्ट समझी जाने वाली कंपनी ‘सीटीइके’ वायरलेस चाजर्र बनाने की दिशा में अग्रसर है. ‘मोटोरॉइड्स’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि स्वीडन के विशेषज्ञों ने इस कार्य को अंजाम तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया है. कंपनी एक खास तरह की तकनीक विकसित कर रही है, जिसके माध्यम से बिना चाजर्र के कारों और बाइकों की बैटरियों को चार्ज किया जा सकेगा. रिपोर्ट के मुताबिक, इसकी एक बड़ी खासियत यह होगी कि इस तकनीक से सभी प्रकार के इलेक्ट्रिक मोटरसाइकिलों समेत पारंपरिक वाहनों की बैटरियों को चार्ज किया जा सकता है.