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हिस्सेदारी का सवाल अहम है

हिंदी में दलित साहित्य के सवालों को प्राय: ‘स्वानुभूति’ और ‘सहानुभूति’ की दृष्टि से देखा गया है. जहां तक सहानुभूतिपूर्ण लेखन का सवाल है, तो इसमें कोई शक नहीं कि गैर-दलित लेखकों द्वारा शुरू में दलितों के पक्ष में जो लिखा गया, वह सहानुभूतिपूर्वक ही लिखा गया है. लेकिन हम उसे सिर्फ सहानुभूति में लिखा […]

हिंदी में दलित साहित्य के सवालों को प्राय: ‘स्वानुभूति’ और ‘सहानुभूति’ की दृष्टि से देखा गया है. जहां तक सहानुभूतिपूर्ण लेखन का सवाल है, तो इसमें कोई शक नहीं कि गैर-दलित लेखकों द्वारा शुरू में दलितों के पक्ष में जो लिखा गया, वह सहानुभूतिपूर्वक ही लिखा गया है. लेकिन हम उसे सिर्फ सहानुभूति में लिखा गया साहित्य कह कर नकार नहीं सकते. उससे एक तरह की सामाजिक जागृति पैदा हुई और हिस्सेदारी का सवाल महत्वपूर्ण बना.

आजादी के बाद दलितों को वाणी मिली और इसका प्रकटीकरण अस्सी के दशक के बाद दलित साहित्य की मजबूत धारा के रूप में हुआ. दलित साहित्य में हिस्सेदारी के सवाल को श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति आत्मकथाओं में ही मिली है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि अन्य विधाओं की अपेक्षा दलित लेखक इस विधा में अधिक सहजता से अपनी बात संप्रेषित करने में सफल रहे हैं. इसमें परिवेश और भाषाई अपनापन एक बड़ा कारण रहा है. हालांकि साहित्य में आत्मकथा के अलावा भी अनेक विधाएं हैं. इस तरह का कोई प्रतिबंध भी नहीं है कि कोई दलित इन विधाओं में नहीं लिख सकता. कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचना में भी दलित लेखन तेजी से विकसित हुआ है. लेकिन हिंदी में दलित साहित्य के सवालों को प्राय: ‘स्वानुभूति’ और ‘सहानुभूति’ की दृष्टि से देखा गया है. जहां तक सहानुभूतिपूर्ण लेखन का सवाल है, तो इसमें कोई शक नहीं कि गैर-दलित लेखकों द्वारा शुरू में दलितों के पक्ष में जो लिखा गया, वह सहानुभूति- पूर्वक ही लिखा गया है. लेकिन हम उसे सिर्फ सहानुभूति में लिखा गया साहित्य कह कर नकार नहीं सकते. उससे एक तरह की सामाजिक जागृति पैदा हुई और हिस्सेदारी का सवाल महत्वपूर्ण बना. इस संदर्भ में प्रेमचंद को लेकर खासे अंतर्विरोध पैदा हुए या किये गये. लेकिन प्रेमचंद को यदि वर्णव्यवस्था की कसौटी पर कसा जाये, तो इस कसौटी पर उन जैसे महान लेखकों का लेखन भी खरा नहीं उतरता.

बाबासाहब आंबेडकर ने कहा है कि हिंदू धर्म ही वर्णव्यवस्था की मुख्य जड़ है. जाति-व्यवस्था उसका एक भाग है. अगर जाति-व्यवस्था को उससे निकाल दिया जाये तो वह मर जायेगा. अगर दलित साहित्य को वर्णव्यवस्था विरोध की कसौटी पर कसा जाये, तो उसमें धर्म का विरोध भी आता है क्योंकि वर्ण-व्यवस्था भारत में धर्म की देन है. इसलिए जब भी वर्ण-व्यवस्था का विरोध आता है, तो धर्म का विरोध अनिवार्यत: उसके साथ जुड़ जाता है. हमारे यहां के कई लेखक और दार्शनिक दलितों पर हुए अत्याचारों से परिचित रहे हैं और उन्होंने उसका विरोध भी किया है. इसके बावजूद प्रेमचंद या उनके जैसे अन्य लेखक उस तरह से अत्याचार की मूल जड़ वर्णव्यवस्था को हिंदू धर्म से जोड़ कर उसकी जड़ों पर आक्रमण नहीं करते. इसीलिए हिंदी में हिस्सेदारी के सवाल देरी से सामने आते हैं. लेकिन सहानुभूति में ही सही, जो कुछ भी उन्होंने लिखा है, उससे सामाजिक जागृति पैदा होती है और जातिव्यवस्था के विरोध में वह एक कदम आगे बढ़ते हैं.

भारत में वर्णव्यवस्था कहिये या जातिव्यवस्था, दोनों को प्राय: एक ही अर्थ में बांध लिया जाता है. अकसर कहा जाता है कि दलितों के बीच भी जातिवाद है और वह पहले दूर होना चाहिए, जबकि यह संभव नहीं है. हमें हिंदू धर्म और जाति-व्यवस्था के मूल में निहित इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि सारा हिंदू धर्म जातिव्यवस्था को ईश्वरीय देन कहता है. इस तरह जाति-व्यवस्था सीधे-सीधे हिंदू धर्म से जुड़ी चीज है और इसने देश को विभिन्न जातियों में बांटा है. जब तक जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति के सिद्धांत को धर्म से अलग नहीं किया जायेगा, तब तक जाति-व्यवस्था के विरोध की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती. बहुत से लोग जाति-व्यवस्था को खराब तो मानते हैं, लेकिन वे यह मान कर भी चलते हैं कि यह व्यवस्था हिंदू धर्म के अनुसार बंटी है. और सारे धर्मग्रंथों में इसका उल्लेख है कि जातियां ईश्वर ने बनायी हैं, इसलिए वे भी ईश्वर का विरोध नहीं कर पाते. वे जाति का विरोध तो करते हैं, लेकिन ईश्वर का विरोध नहीं कर पाते. इसलिए सिद्धांतत: भारत में आप बिना ईश्वर के विरोध के जाति-विरोध कर ही नहीं सकते, क्योंकि लोग इसे ईश्वरीय देन मान चुके हैं. उदाहरण के लिए मध्ययुगीन दलित संत चौखामेला भी यह मान कर चलते थे कि पूर्वजन्म होता है और अगर हम इस जन्म में अच्छा काम करेंगे, तो ही अगले जन्म में अच्छे आदमी के रूप में पैदा होंगे. धार्मिक मान्यताओं पर आधारित इसी ‘समझ’ के कारण एक दलित संत दलित घर में पैदा होने को ‘पूर्वजन्म में किये बुरे काम’ से जोड ़कर देखते हैं और यह धर्म की बहुत ही खतरनाक भूमिका है. इसलिए अगर कोई यह सोचता है कि यहां जाति-भावना है और इसके जिम्मेदार दलित हैं, तो यह एक गहरी चाल है. गैर-दलितों द्वारा अकसर इसका इस्तेमाल दलितों पर आक्रमण करने के लिए किया जाता है कि इनके अंदर भी छुआछूत, भेदभाव आदि हैं. लेकिन वे यह नहीं समझ पाते कि पूरे समाज को बांटनेवाली जातिव्यवस्था इतनी भी खतरनाक हो सकती है कि वह दलितों को भी आपस में बांट सकती है. इसलिए हमें उसके मूल में निहित कारणों को समझकर इसके जिम्मेदार हिंदू धर्म पर सुनियोजित आक्रमण करना होगा. हिंदुत्व में आक्रामकता जातिव्यवस्था के कारण आती है और इससे धर्मांधता और कर्मकांडों को बढ़ावा मिलता है. इन्ही अंधविश्वासों से जाति-व्यवस्था कायम रहती है. इस तरह जाति-व्यवस्था सीधे-सीधे धर्म से जुड़ी हुई चीज है और जब तक इसके दर्शन को धर्म से अलग नहीं किया जाएगा, तब तक जाति-व्यवस्था कमजोर नहीं होगी. इसी बात को ध्यान में रखते हुए बाबासाहब आंबेडकर ने जाति-व्यवस्था को हिंद ूधर्म से जोड़ कर देखनेवाले दर्शन की बात की थी और उसके विरोध को बौद्ध-दर्शन से जोड़कर देखते थे. बुद्ध ने ही सबसे पहले वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठायी. यहां सदियों से वर्णव्यवस्था उस रूप में नहीं थी, जिस रूप में आज वह है. इसीलिए उन्होंने बौद्ध-दर्शन को अपनाया और दलितों के लिए एक वैकल्पिक धर्म के रूप में उसकी वकालत की, क्योंकि बौद्ध-दर्शन के मूल में जातिव्यवस्था के लिए कोई स्थान नहीं था. भारत में बौद्धों के विनाश का एक बड़ा कारण जाति-व्यवस्था के खिलाफ उनका संघर्ष था. दरअसल, जाति-व्यवस्था के खिलाफ बौद्ध-दर्शन ने जो संघर्ष किया, उसके चलते ही इस देश में ब्राह्नाणों और राजाओं द्वारा बौद्धों का विनाश किया गया.

आजादी के बाद दलित और दूसरी उत्पीड़ित अस्मिताएं एक साथ मिलकर संवाद करें इसके लिए बाबासाहब आंबेडकर ने आरक्षण नीति के माध्यम से अब तक का सबसे बड़ा संवैधानिक कदम उठा कर दलितों और आदिवासियों को एक साथ जोड़ने का काम किया. उनका स्पष्ट मानना था कि धर्म के चलते यह दोनों वर्ग समाज में बहुत ज्यादा उत्पीड़ित हैं. इसीलिए उन्होंने सबसे पहले हिंदू धर्म पर आक्रमण किया. जाति-व्यवस्था पर आक्रमण किया और मनुस्मृति को जलाया क्योंकि वह जाति-व्यवस्था और धार्मिक उत्पीड़न की प्रतीक थी. ज्यों ही मनुस्मृति को जलाया गया, सारे भारत के हिंदू धर्म के नेतागण कांप उठे और उसके बाद उन्होंने दलितों को रियायत पर रियायत देना शुरू किया. ‘पूना पैक्ट’ पर हस्ताक्षर उसके बाद ही हुए.

यही नहीं, मनुस्मृति जलाने के तुरंत बाद सारे हिंदू नेता एक होने लगे और महाराष्ट्र के वे तमाम कुएं जिनमें दलितों को पानी नहीं भरने दिया जाता था, खोल दिये गये. इस तरह यह देखा गया कि जब हिंदू धर्म खुद को खतरे में महसूस करता है, तो वह रियायती हिस्सेदारी देना शुरू कर देता है. वहीं, जब उसे कोई खतरा नहीं रहता तो वह बहुत ही आक्रामकता के साथ जाति-व्यवस्था को लागू कर देता है. उसकी हकीकत उजागर होती है, तो उसको माननेवाले तुरंत उदार हो जाते हैं. यह उदार स्थिति दलितों के पक्ष में उस समय आई जब आंबेडकर ने हिंदुत्व पर आक्रमण किया और दलित-पिछड़ा एकता की बात की. आज आंबेडकर का यह आंदोलन छोड़ दिया गया है, इसलिए सामाजिक जागृति पैदा नहीं हो रही. इसके चलते हिंदी भाषी प्रदेशों में चल रहे जाति-व्यवस्था विरोधी आंदोलन पीछे चले गये. इसका मूलस्नेत धार्मिक प्रपंच है और जातिवाद वहीं से आता है.

सामाजिक जागृति के स्थान पर आज राजनीतिक वर्चस्व या सत्ता प्राप्त करना ही दलित आंदोलन की मूल दिशा हो गयी है. इससे हमेशा से कायम रहनेवाली जाति-व्यवस्था पर आधारित सामाजिक समस्याएं ज्यादा खतरनाक रूप में सामने आ रही हैं. क्योंकि हमारी पूरी चुनाव-प्रणाली ही जातियों पर आधारित है. जातियों के आधार पर ही वोट दिये और लिये जाते हैं और वैसे ही प्रतिनिधि चुनाव में जीत कर आते हैं जिनकी जातियों के आधार पर सोच बहुत तेज होती है. जातीय सत्ता की बात उसी से पैदा हुई है. खासकर कि बसपा ने जातिगत-सत्ता को बहुत बढ़ावा दिया, जिसके चलते जाति व्यवस्था विरोधी मुहिम कमजोर पड़ गयी. इसी कारणवश दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और तमाम उत्पीड़ित अस्मिताओं में एकता कायम नहीं हो रही है. इस समय सारी सोच जातीय-सोच में बदल गयी है और यह बहुत ही खतरनाक स्थिति है.

(बातचीत : पुखराज जांगिड़)

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