कुलदीप नैयर:वरिष्ठ पत्रकार
मैंने 14-15 अगस्त की मध्यरात्रि को भारत को स्वतंत्र होते नही देखा. मैं अपने परिवार के साथ स्यालकोट में था. एक शांत शहर होने के बावजूद वहां भी गैर-मुसलमानों के घर जलाये जा रहे थे. लेकिन हमें अब भी यकीन नहीं आ रहा था कि हमें पाकिस्तान छोड़ना पड़ेगा. हम यह मान कर चल रहे थे कि जिस तरह मुसलमान भारत में रहते रहेंगे, उसी तरह हिंदू भी पाकिस्तान में रहते रहेंगे.
हमारे परिवार ने हालात सुधरने तक भारत चले जाने का फैसला कर लिया. लेकिन अपने साथ एक -दो बैग ले जाने के लिए भी घर लौटना जरूरी था. मुङो और परिवार के अन्य सदस्यों को अपने कपड़े वैगरह लेने थे. मैंने और मेरी मां ने स्यालकोट छावनी से एक तांगा पकड़ा. वह शहर का एक सुरक्षित क्षेत्र था. हम सब मेरे पिता के एक दोस्त गुलाम कादिर के बंगले में ठहरे हुए थे. वे एक मल्टी -स्टोर के मालिक थे.मैं और मेरी मां उस तांगे वाले को नहीं जानते थे. जो एक मुसलमान था. हमें लगभग दस किलोमीटर की दूरी तय करनी थी और शहर से सब जगह दंगों की खबरें आ रही थीं. लेकिन हमारे मन में एक बार भी यह बात नहीं आयी कि हम पर हमला हो सकता है. हमने 14 अगस्त को बहुत हड़बड़ी में घर छोड़ा था तो मेरी मां अपने साथ एक कीमती शॉल लेती गयी थीं. घर पहुंच कर उन्होंने उस शॉल को तह करके एक ट्रंक में रख दिया और एक मामूली-सा कुल्लू शॉल निकाल लिया.
उन्होंने कहा कि वह अपना कीमती शॉल साथ ले जाकर खराब करना नहीं चाहती थीं. मैं पिछली बार घर छोड़ते समय अपने साथ रोमेन रोलैंड की ‘जीन क्रिस्टोफर’ का साजिल्द संस्करण लेता गया था. मैंने भी इसे संभालकर वापस ट्रंक में रख दिया और इसकी जगह मामूली सी पेपरबैक किताब उठा ली, जिसे मैं लौटते समय भारत छोड़ भी आता तो चलता. मेरी मां ने तीन सूटकेस तैयार कर लिये- एक मेरा, एक मेरे दो भाइयों का और एक अपना और पिता जी का. हम कुछ देर घर के डाइनिंग टेबल पर बैठे अपनी-अपनी सोचों में डूबे रहे. हम दोनों के मन में शायद एक ही बात थी-क्या हम इस घर में दोबारा लौट सकेंगे? यह एक ऐसा ख्याल था जिसके बारे में हम सोचना भी नहीं चाहते थे. भारत में नये सिरे से जिंदगी शुरू करने का ख्याल तो हमारी सोच से कोसों दूर था. हम दोनों में से किसी को भी यह एहसास नहीं था कि हम इस घर को अब दोबारा कभी देख नहीं पाएंगे.
उन क्षणों की मार्मिकता को व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं. मैं सबकुछ पीछे छोड़ आने की व्यथा को कैसे व्यक्त करूं? ऐसा लगता था कि जैसे सब कुछ स्मृतियों की चिंगारियों में झुलस गया हो. जैसे सब कुछ राख के ढेर में बदल गया हो. हम मां-बेटे ने जल्दी से हमारे पीर के दर्शन किये, जो एक अरसे से हमारे परिवार की रक्षा करते रहे थे. कब्र पर सूखे पत्ते और धूल-मिट्टी जमा हो गयी थी. हमने उसे वैसे ही छोड़ दिया क्योंकि हम जानते थे सफाई करने के बाद भी वह फिर से वैसी ही हो जायेगी. अब उसकी देखभाल करनेवाला कोई नहीं था.घर के मुख्य दरवाजे पर ताला लगाते हुए मेरी मां ने अचानक कहा कि उनका दिल धड़क रहा था और उन्हें ऐसा लग रहा था कि वे अब यहां कभी नहीं लौटेंगी. मैंने उन्हें समझाया कि जब तक हम भारत से लौटेंगे, दंगे-फसाद खत्म हो चुके होंगे. पता नहीं क्यों, मुङो अब भी पूरा भरोसा था कि कुछ दिनों के बाद सब शांत हो जायेगा, जैसाकि दंगे-फसाद के बाद हमेशा होता था. लेकिन मेरी मां की आशंका सही साबित हुई
(‘राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित कुलदीप नैयर की आत्मकथा एक जिंदगी काफी नहीं’ से साभार)