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‘मेक इन इंडिया’ से ज्यादा जरूरी है मेक फॉर इंडिया

उद्योग जगत और बाजार को बजट से अनेक अपेक्षाएं हैं. आर्थिक सुधारों को तेज करने, देश के मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र को बढ़ाने और निवेश में वृद्धि के सरकार के वादों और इरादों की प्रस्तुति बजट में हो सकती है. सरकार के सामने अर्थव्यवस्था का सुदृढ़ीकरण करने, रोजगार बढ़ाने और व्यापार घाटा कम करने की चुनौतियां हैं. […]

उद्योग जगत और बाजार को बजट से अनेक अपेक्षाएं हैं. आर्थिक सुधारों को तेज करने, देश के मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र को बढ़ाने और निवेश में वृद्धि के सरकार के वादों और इरादों की प्रस्तुति बजट में हो सकती है. सरकार के सामने अर्थव्यवस्था का सुदृढ़ीकरण करने, रोजगार बढ़ाने और व्यापार घाटा कम करने की चुनौतियां हैं. सरकार द्वारा अब तक उठाये गये कदमों और संभावित तथा वांछित पहलों पर जानकारों की राय के साथ एक परिचर्चा प्रस्तुत है आज के विशेष में..

बाजार और आर्थिक व्यवस्था का बजट से कोई संबंध नहीं है. बाजार की उथल-पुथल का बजट से खास रिश्ता नहीं है. बाजार विदेशी पैसे की बदौलत ऊंचा होता है और उसी की बदौलत गिरता है. देश का पैसा बाहर जाने से हमारा नुकसान ही होता है. एफडीआइ ऐसी चीज है, जो देश में आने के बाद कुछ खास समय के लिए ठहरता है. इससे देश को फायदा होता है. लेकिन फिलहाल एफडीआइ भी कुछ खास हो नहीं रहा है.

केंद्र की नयी सरकार ने औद्योगिक विकास के क्षेत्र में अभी ज्यादा कुछ किया नहीं है. उद्योग-धंधों को विकसित करने के लिए सरकार की ओर से भले ही बयान दिये जा रहे हों, लेकिन वास्तविकता के धरातल पर कुछ दिख नहीं रहा. एक प्रतिष्ठित बैंक के प्रमुख अधिकारी ने हाल ही में कहा है कि उद्योग-धंधों के लिए हालात जस के तस हैं. देश में उद्योग-धंधों को बढ़ावा देने वाली और संबंधित नियमों को लागू करने वाली अथॉरिटी को ही इसकी पूरी प्रक्रिया के बारे में पता नहीं है. कहा गया कि इस प्रक्रिया में निहित जटिलताएं कम की जायेंगी, लेकिन औद्योगिक विकास से जुड़े एक प्रमुख संगठन की रिपोर्ट में कहा गया है कि वास्तविक में ऐसा अब तक हुआ नहीं है.

औद्योगिक विकास के नाम पर कुछ माह पूर्व ही सरकार ने जिस भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को जारी किया है, वह भी पूरी तरह से विवादों में घिर चुका है. दरअसल, नये उद्योग लगाने की प्रक्रिया के प्रारंभ में 47 स्टेप्स होते हैं, जिनमें कम से कम 18 को मानना यानी उन पर अमल होना जरूरी होता है. यह तो केवल मंजूरी हासिल करने के लिए. गांव में हो तो पंचायत से और शहर में हो तो स्थानीय निकायों से मंजूरी लेनी होती है. इसमें हर स्टेप पर रकम देना होता है. भले ही हर स्टेप पर दी जाने वाली रकम छोटी हो, लेकिन कुल मिला कर यह बड़ी हो जाती है. बिजली हासिल करना हो, पानी लेना हो, इन सभी के लिए समय तो लगता ही है और रकम भी खर्च करनी पड़ती है. इनमें से यदि प्रत्येक स्टेज पर करीब 15 दिन ही लगा, तो अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि कितना समय लग जायेगा.

आज हमारे देश में प्रत्येक माह करीब 10 लाख युवक वर्कफोर्स में जुड़ रहा है, जिन्हें रोजगार देने की जरूरत है. इनके लिए उद्योग-धंधे लगाने होंगे और उसी से रोजगार के नये अवसर पैदा होंगे. कितनी नयी फैक्ट्रियां खुली हैं इस सरकार के अब तक के कार्यकाल के दौरान या फिर कितनों को खोले जाने की मंजूरी दी गयी है. इंफ्रास्ट्रक्चर की स्थिति जस की तस है. नयी रेल लाइन बिछाने या नयी सड़कों के निर्माण पर कितना काम हो रहा है. रेलगाड़ियों की औसत रफ्तार आज भी लगभग उतनी ही है, जितनी दो-तीन दशक पहले थी. सड़क मार्ग से भी माल ढुलाई में कोई खास कमी नहीं आयी है. काम कहां हो रहा है, दिखना तो चाहिए. सड़क बनानी होगी, पावर प्लांट लगाना होगा, जबकि सारा काम रुका हुआ है.

खास उम्मीद नहीं बजट से

इस बजट से कोई खास उम्मीद नहीं लगानी चाहिए. दरअसल, दिल्ली राज्य विधानसभा के चुनावों में जिस तरह से भाजपा की हार हुई है, इससे वे पूरी तरह से सदमे में होंगे. मुङो लगता है कि किसी तरह का कठोर कदम उठाने से यह सरकार बचेगी. यदि ज्यादातर रकम सरकार सब्सिडी में ही लगा देगी तो फिर नया काम करने के लिए पूंजी कहां से बचेगी. सब्सिडी में भी ज्यादा फायदा मध्यम वर्ग को ही होता है. उदाहरण के तौर पर दूध के लिए जो सब्सिडी दी जाती है, उससे गांव के लोगों को कितना फायदा होता है. इसका ज्यादातर फायदा मध्यम वर्गीय शहरवासियों को होता है. गांव के लोग कितना बिजली का इस्तेमाल करते हैं. बिजली की सब्सिडी में भी ज्यादा फायदा शहरी मध्यम तबके के लोगों को ही होता है. इसलिए जिसे ज्यादा सब्सिडी मिलनी चाहिए उसे नहीं मिल पाती. सरकार को इस बारे में भी सोचना होगा कि देश के सभी तबके को सब्सिडी का लाभ मिले.

जहां तक किसी खास सेक्टर पर सरकार को फोकस करने की बात है तो मेरा मानना है कि मौजूदा समय में सरकार को सभी सेक्टर की ओर ध्यान देना चाहिए. देशभर में हजारों कल-कारखाने बंद पड़े हैं. सबसे पहले तो उन्हें चालू करने का काम होना चाहिए. इन कारखानों को फिलहाल कम पूंजी से चालू किया जा सकता है. लेकिन सरकार और खासकर वित्त मंत्री को यह सब सोचने-करने की फुर्सत नहीं है. वित्त मंत्री अरुण जेटली के पास सूचना मंत्रलय का अतिरिक्त प्रभार भी है और ज्यादातर समय वे प्रसार भारती के कार्यो में लगे रहते हैं. उधर वे ज्यादा दिखते हैं. वहीं बयानबाजी में लगे रहते हैं. मीडिया में तसवीरों में ज्यादा दिखना चाहते हैं. वैसे उनके साथ एक दिक्कत यह भी है कि वे वकील के पेशे से राजनीति में आये हैं. मुङो लगता है कि इस कार्य में उनका दिल नहीं लगता है. वकील का पेशा और देश का वित्त मंत्री होना अलग-अलग चीजें हैं. अदालत में अपने क्लाइंट को येन-केन प्रकारेण बरी करा लेना अलग तरह की विशेषज्ञता है और देश निर्माण के बारे में पुख्ता जानकारी होना अलग तरह की विशेषज्ञता है. नयी फैक्ट्रियां खुलवाना या फिर बंद फैक्ट्रियों को चालू करवाना अपनेआप में एक अलग चुनौती है. इस कार्य के लिए नीतियों की जानकारी होना और ऐसी सोच होना भी जरूरी है.

मेक इन इंडिया

‘मेक इन इंडिया’ अच्छा कार्यक्रम है, लेकिन इसे महज एक कार्यक्रम भर बनाने से काम नहीं चलेगा. मेक इन इंडिया से बेहतर होता कि इसे मेक फॉर इंडिया बनाया जाना चाहिए. आज हम चीन से बनियान से लेकर जूते, लाइट बल्ब समेत तमाम छोटी-छोटी चीजें मंगा रहे हैं. कुल मिला कर चीन से हम 55 बिलियन का माल खरीदते हैं. 55 बिलियन का मतलब हुआ कि करीब तीन लाख करोड़ रुपये का माल हम सालाना चीन से मंगा रहे हैं. इसलिए ‘मेक इन इंडिया’ से ज्यादा जरूरी हमारे लिए ‘मेक फॉर इंडिया’ है.

बाजार और आर्थिक व्यवस्था का बजट से कोई संबंध नहीं है. बाजार की उथल-पुथल का बजट से खास रिश्ता नहीं है. बाजार विदेशी पैसे की बदौलत ऊंचा होता है और उसी की बदौलत गिरता है. देश का पैसा बाहर जाने से हमारा नुकसान ही होता है. एफडीआइ ऐसी चीज है, जो देश में आने के बाद कुछ खास समय के लिए ठहरता है. इससे देश की अर्थव्यवस्था को फायदा होता है. लेकिन फिलहाल एफडीआइ भी कुछ खास हो नहीं रहा है.

इस मामले में एक बेहद दिलचस्प बात यह है कि एफडीआइ के माध्यम से देश में आने वाला ज्यादातर पैसा हिंदुस्तानी ही है, जो देश के बाहर पड़ा हुआ है. इन पैसों के मालिकों को जब यह महसूस होता है कि देश में माहौल उद्योग-धंधों में निवेश के अनुकूल है, तब वे यह पैसा यहां लगाते हैं. इसलिए उन्हें इस बात का भरोसा होने के लिए अनुकूल माहौल पैदा करना सबसे जरूरी है.

हमारे प्रधानमंत्री देश में उद्योग-धंधों को गति देना चाहते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें वित्त मंत्री को बदलना चाहिए. दरअसल वित्त मंत्री उतने सक्षम नहीं हैं, जितनी की मौजूदा दौर में देश को जरूरत है. बयानबाजी वाले विशेषज्ञ से काम नहीं चलने वाला है. इसके लिए विजन और इच्छा का होना जरूरी है. मोदीजी में विजन है, लेकिन वित्त मंत्री में इसका अभाव है.

(कन्हैया झा से बातचीत पर आधारित)

मोहन गुरुस्वामी

अर्थशास्त्री

कुछ आर्थिक शब्दावली

उत्पाद कर : यह टैक्स देश में बनने वाली और देश में ही बिकने वाली वस्तुओं पर वसूला जाता है. कंपनियों को फैक्ट्री में से सामान निकालने से पहले इसे भरना जरूरी बनाया गया है. एक ही तरह की चीजों पर अलग-अलग दरों के मुताबिक भी उत्पाद कर लगाया जा सकता है. यह टैक्स सरकार की कमाई के बड़े माध्यमों में शामिल है.

औद्योगिक कर : औद्योगिक प्रतिष्ठानों पर लगाये जाने वाले टैक्स को औद्योगिक कर कहा जाता है. यह उस प्रतिष्ठान के मालिक पर लगाये गये व्यक्तिगत कर से अलग होता है.

सेवा कर : सेवा हासिल करने के एवज में लोगों द्वारा जो रकम चुकायी जाती है, उसे सेवा कर कहा जाता है. जम्मू-कश्मीर को छोड़ कर अन्य सभी राज्यों में सेवा प्रदाता को सेवा कर देना होता है.

वैल्यू ऐडेड टैक्स : आम लोगों के बीच इसे वैट के रूप में जाना जाता है. किसी सामान के खरीदने पर ग्राहकों को यह टैक्स चुकाना होता है. मालूम हो कि यह कर सेवाओं पर नहीं लगाया जाता है. जिन राज्यों में वैट लागू है, वहां पर एक्साइज ड्यूटी और सर्विस टैक्स अलग से वसूला जाता है. मालूम हो कि वैट राज्य स्तर पर वसूला जाता है.

बिक्री कर : सरकार किसी भी सामान की खरीद-बिक्री होने पर टैक्स वसूल करती है. हालांकि, ज्यादातर राज्यों में अब बिक्री कर का स्थान ‘वैट’ ने ले लिया है. फिर भी बिक्री कर जहां सेवाओं पर भी वसूला जाता है, वहीं ‘वैट’ केवल सामान की खरीदारी पर ही चुकाना होता है.

फ्रिंज बेनेफिट टैक्स : विभिन्न कंपनियां अपने अधिकारियों और कर्मचारियों को फोन, कार या एलटीए, एलटीसी जैसी यात्रओं की सुविधा मुहैया कराती हैं. इनके बदले उन पर जो टैक्स लगाया जाता है, उसे फ्रिंज बेनेफिट टैक्स कहा जाता है.

नजरिया विशेषज्ञों का

हम वित्तीय संसाधनों को एकत्र करने के महत्व को समझते हैं, लेकिन कंफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज का मानना है कि मांग अभी भी कमजोर बनी हुई है. मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र भी नाजुक स्थिति में है. इन परिस्थितियों में आबकारी करों को मौजूदा 12 फीसदी तक बनाये रखने में ही समझदारी होगी.

– चंद्रजीत बनर्जी, महानिदेशक, कंफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज

विदेशी निवेशकों में शेयरों के अप्रत्यक्ष हस्तांतरण से संबंधित चिंताओं में जो मुख्य है, वह है कि भारत में स्थित संपत्ति के मूल्य का समुचित निर्धारण क्या है. इसलिए, यह बहुत महत्वपूर्ण है कि सरकार बजट में अपनी राय स्पष्ट करे.

– विकास वसाल, कर विशेषज्ञ, केपीएमजी

सरकार अच्छी बातें कर रही है- व्यापार करना आसान बनाना, डिजिटल इंडिया के साथ डिजिटल तकनीकों में निवेश. अगर इन क्षेत्रों में कार्यान्वयन और नीतिगत प्रयास हो, तो इससे आर्थिक विकास को तेज करने में मदद मिलेगी और हमारी स्थिति सुदृढ़ होगी. – निशांत राव, प्रबंधक, लिंक्डइन इंडिया

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