अंडमान का सफरनामा-1
अंडमान का सफरनामा-2
अंडमान का सफरनामा-3
प्रो श्रीश चौधरी
आइआइटी, मद्रास के प्रोफसर श्रीश चौधरी ने समुद्र के रास्ते से तय किये गये अंडमान निकोबार द्वीपसमूह के अपने सफर को बहुत ही रोचक ढंग से शब्दबद्ध किया है. पेश है उनकी इस यात्रावृतांत का तीसरा एवं अंतिम भाग.
30 नवंबर, शुक्रवार, स्वराज द्वीप साढ़े सात बजे सुबह पोर्ट पर लगी. आठ बजते-बजते गरमी बढ़ गयी थी और आद्रता भी. जहाज को पोर्ट पर रुकने में काफी समय लगता है. कुशल लोग जहाज से फेंकी गयी रस्सियों को पकड़ते हैं. वे मोटी रस्सियों को बंदरगाह पर हवीत से बांध देते हैं. तब एक क्रेन के सहारे सीढ़ी को तीसरे डेक पर रखा जाता है. लगभग एक हजार लोग अपने लगेज के साथ बाहर निकले. सभी सुखदायी यात्रा से खुश नजर आ रहे थे. मैंने देखा कि मेरे सहयात्री को लेने दो युवक गाड़ी से आये थे. मैं सोच रहा था कि शायद वह मुड़ कर देखें और केबिन की ओर इशारा करके अपने मित्रों को बतायें कि वह कहां थे. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. वह घर जाने को लेकर खुश थे.
मैंने कैप्टन को डॉक्टर भेजने के लिए मैसेज किया. वह मैसेज दरअसल उनके घर चला गया और फिर वहां से दूसरे मोबाइल पर भेजा गया. एक व्यक्ति मेरे केबिन में आये और उन्होंने मेरी नाड़ी देखी. उन्होंने अपना परिचय नहीं दिया, पर डिस्प्रिन की तीन गोलियां दीं और कहा कि एक अभी ले लें. कुछ समय बाद कैप्टन लोखंडे मेरे केबिन में आये और मुझे जाने से पहले अपने साथ नाश्ता करने को कहा. उन्होंने मेरे लिए गेस्ट हाउस की व्यवस्था करने और अपनी कार में छोड़ने की बात कही. यह उन्होंने इतनी आत्मीयता से कहा था कि इनकार नहीं किया जा सकता था. इसके बाद मैंने एयर इंडिया हेल्पलाइन को संपर्क किया, ताकि एडवांस में एक तारीख की सुबह चेन्नई की फ्लाइट बुक करा सकूं. इसका मतलब साफ था कि मैं पोर्ट ब्लयेर में 24 घंटे से भी कम रुकनेवाला था.
कुछ समय बाद मैं कोरबिन कोव डाइनिंग हॉल पहुंचा. प्रशांत और उनके साथियों के साथ नाश्ता किया. उन्होंने बताया कि मेरा गेस्ट हाउस बुक हो चुका है. मैंने अपना सामान उठाया और कैप्टन के केबिन में इंतजार करने लगा. इस बीच उनके कुछ साथियों के साथ हमने ग्रुप फोटो भी खिंचायी. कुछ ही देर में कैप्टन आये. हम सीढ़ियों से नीचे उतरने लगे. कैप्टन बिना रेलिंग पकड़े सीढ़ियों से ऐसे उतर रहे थे, जैसे वह कोई फुटबॉल मैदान में चल रहे हों. हम भी उनके पीछे-पीछे उतरे. उन्होंने एक रजिस्टर पर साइन किया और हम आगे बढ़ गये.
कैप्टन मुझे एक सरकारी गेस्ट हाउस ‘अंडमान टील हाउस’ ले गये. वहां से समुद्र का नजारा लिया जा सकता था. कमरा बड़ा और हवादार था. पर शॉवर, वाश बेसिन टैप और बिजली के बोर्ड-प्वाइंट्स खराब थे. एक लड़का मेरा सामान कमरे तक पहुंचा गया. कैप्टन ने सुविधाओं को देख कर संतुष्टि जतायी. मैंने उन्हें शाम में डिनर पर बुलाया. उन्होंने बताया कि उनके ऊपर लिखे जानेवाले राइटप के लिए वह तसवीरें लायेंगे. मैंने कुछ देर सोने का निर्णय लिया. सुधाकर ने मुझे यह जानने के लिए फोन किया कि गेस्ट हाउस का इंतजाम हुआ या नहीं. वह मुझसे मिलना भी चाहते थे. वह पड़ोस में ही रहते थे. मैंने उन्हें खांसी का एक कफ सीरप लाने को कहा. वह आधा घंटा में कफ सीरप के साथ हाजिर हो गये. मैंने थोड़ा सा सीरप लिया और उसके पैसे देने चाहे. पर उन्होंने इनकार कर दिया. हमने तय किया कि पूरा दिन कैसे गुजारना है. फिर वह चले गये.
मैं सो गया. 12 बजे नींद खुली. तुरंत लंच के लिए चला गया. लंच में चपाती, दाल, भात-करी आदि थी. मैं वापस कमरे में लौट आया और सो गया. मुझे गहरी नींद आ गयी और मैं भूल गया कि मैंने सुधाकर को फोन करने की बात कही थी. उन्होंने ही तीन बजे फोन किया. मुझे बीच पर ले जाने की बात कही और फिर सेलुलर जेल. मैं तब भी बहुत थका हुआ, नींद में उन्मत्त और कमजोरी महसूस कर रहा था. लेकिन मैं तुरंत बेड से उठा, कपड़े बदले और सुधाकर के साथ चलने के लिए तैयार हो गया. उन्होंने बढ़िया कपड़े पहन रखे थे. उनके पास महंगी गाड़ी थी. वह रास्ते में कई बिल्डिंग और दूसरी महत्वपूर्ण चीजों के बारे में बताते जा रहे थे. हम लोगों ने कई अच्छी चीजें देखीं, जिसमें एक कॉलेज और स्टेडियम भी था. दोनों समुद्र से सटे हुए थे. इसके बाद हम सेलुलर जेल की ओर मुड़ गये. उन्होंने मुझे बताया कि कहां पर प्रवेश टिकट मिलता है.
रोड से सेलुलर जेल वैसी नहीं दिखती जैसा कि इतिहास के जरिये हम सभी जानते हैं. यह बहुत साफ-सुथरी है. इसका रख-रखाव बेहतर तरीके से किया गया है. कुछ आगंतुक पहले से ही थे. मैं बंगाली और मराठियों के समूह को आसानी से पहचान सकता था और दूसरा वहां बमुश्किल ही था. दस रुपये का टिकट लेकर मैं अंदर गया. वहां जो मुझे दिखा, वह यह कि जेल के कार्यालय फोटो गैलेरी या म्यूजियम में बदल गये हैं. वहां ब्लैक एंड व्हाइट, ग्रुप और अकेले की कई तसवीरें, पोट्रेट और कुछ हाल की रंगीन तसवीरें भी थी. कुछ पोस्टर्स थे, जिन पर कर्सिव रूप में अंगरेजी लिखी गयी थी. कुछ भी नजरअंदाज करने लायक नहीं था. लेकिन जिस चीज ने मेरा सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित किया, वह राम प्रसाद बिस्मिल की लंबी कविता थी, जिसकी एक पंक्ति थी-‘खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं.’ इस पंक्ति ने मेरे हृदय को झकझोर कर रख दिया.
ऐसी पंक्तियां और भी हैं. यह एक पूरे दौर की अभिव्यक्ति है और भारत के लिए अत्यंत मूल्यवान साहित्य. हम सभी उनका कर्ज कभी नहीं उतार सकते, जिन्होंने हंसते-हंसते, बिना एक पल सोचे, अपनी जान कुर्बान कर दी थी. उन्होंने कभी यह नहीं सोचा कि आनेवाली पीढ़ियां उनकी कुरबानी को समङोंगी या नहीं. क्या उनके बाद की पीढ़ी उसी हवा में सांस लेने और उसी जमीन पर चलने के योग्य है, जिस पर इन शहीदों के निशान हैं. उन्होंने वैसा ही किया, जैसा लोग प्यार में करते हैं और इसके पीछे कोई तर्क-वितर्क नहीं है.
नवंबर के महीने में सूरज सेलुलर जेल परिसर में चमक रहा था. बगीचा हरा-भरा था. शहीदों के लिए बने स्मारक मार्बल स्लैब से घिरे चमक रहे थे. मैं उनके पास से गुजरा. मैं सूर्यास्त से पहले जेल के कमरों को देखना चाहता था. जेल का डिजाइन निश्चित रूप से अंगरेजी साम्राज्य और उसके व्यावसायिक हितों को ध्यान में रख कर तैयार किया गया था. उन्होंने बेहद मजबूत, कम खर्चीली और आसानी से मैनेज करने लायक वास्तुकला के लिहाज से एक खूबसूरत इमारत तैयार की. यह खूबसूरती किसी की आंखों से तब गायब होती है, जब पता चलता है कि इमारत का डिजाइन इसलिए ऐसा किया गया था, ताकि धीरे ही सही, पर मौत निश्चित रूप से आये, चाहे कितना भी लंबा वक्त लगे. यह तो वन-वे टिकट था, जिससे आप यहां आ सकते थे, पर जा नहीं सकते थे.
जेल में कई विंग थे. प्रत्येक विंग में तीन फ्लोर वाली जेलों की कतार थी. सभी विंग एक टावर से जुड़े थे. टावर से विंग ऐसे जुड़े हुए थे, जैसे साइकिल के पहिये की रिम से स्पोक. प्रत्येक विंग के प्रत्येक फ्लोर पर जेल के कमरे बाहर की तरफ मुंह किये हुए हैं और सामने उसी ऊंचाई में दूसरे विंग की पीछे की दीवार दिखती है. किसी फ्लोर से कोई गार्ड उस ऊंचाई के सभी विंग के जेल कमरों में बंद कैदियों को देख सकता था. यह इमारत डिजाइन और इफीशियंसी का नायाब उदाहरण है. इसी तरह की प्रशंसा उस इंजीनियर की भी की गयी है, जिसने गिलोटीन को डिजाइन किया और जिसकी सहायता से 20 हजार से ऊपर लोगों के सिर काटे गये.
प्रत्येक सेल की लंबाई करीब सात कदम और चौड़ाई चार कदम है. इसमें एक खाट डाली जा सकती है, जैसा कि अनुमति थी. खाट पर चादर डालने की अनुमति नहीं थी. प्रत्येक सेल में पीछे की दीवार में वेंटीलेटर है, जिससे सूरज की रोशनी पहुंचती है, पर वास्तव में वहां से कुछ दिखता नहीं. हर सेल में लोहे का बना दरवाजा है. यह दरवाजा एक कॉरिडोर में खुलता है, जिसमें भी लोहे की जालियां लगी हुई हैं, जिससे एक गोरैया का भी इसमें आना और बाहर निकलना मुश्किल है. एक शक्तिशाली बम के सिवा किसी दूसरे तरीके से सेल की दीवारों को नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता.
क्या इन सब की जरूरत थी? भय या प्रेम, आवश्यक रूप से जरूरत आधारित नहीं होते. प्रत्येक कैदी को दो जोड़ी पैंट और एक जोड़ी शर्ट (बिना कॉलर या स्लीव के) दिये जाते थे. उन्हें तौलिया, तेल या साबुन नहीं दिया जाता था. (सेलुलर जेल में कभी किसी महिला कैदी को नहीं रखा गया). उन्हें समुद्र के पानी में नहाने की अनुमति थी. लेकिन वह अपने सूखे पैंट तब तक नहीं पहन सकते थे, जब तक कि गीले कपड़े को उतार न दें. इससे सार्वजनिक रूप से उन्हें कपड़े उतारना पड़ता था. कैदी अपनी इच्छानुसार नहीं नहाने का भी चुनाव कर सकते थे. उन्हें मिट्टी का एक घड़ा, एक लोहे का मग और लोहे की तस्तरी दी जाती थी. कैदियों को दिन में तीन बार (सुबह छह बजे, दोपहर दो बजे और शाम छह बजे) पैखाना जाने की अनुमति होती थी. वे अपने सेल में घड़े में पेशाब कर सकते थे, लेकिन यह इतना छोटा था कि इसमें किसी वयस्क पुरुष द्वारा किये जानेवाले पेशाब का आधा ही आ सकता था. लोहे के प्लेटों में बहुत जल्द जंग लग जाती थी और जिन्हें धोया नहीं जा सकता था. वे इन्हीं प्लेटों में खाना खाते थे.
उनके जिम्मे दो ही तरह के काम थे. नारियल का छिलका उतार कर गूदा निकालना. उन्हें सूर्यास्त से पहले निश्चित मात्र में गूदा निकालना पड़ता था. वे बैलों की तरह पिसाई मिल में काम करते थे. तेल पेरने के लिए हत्थे को खींचते थे. जब कभी मात्र में कमी होती थी, तो उनसे कड़ाई से निबटा जाता. कुछ अंगरेज जेलरों को उनके कर्तव्य के निर्वहन के लिए याद किया जाता है. कुछ कैदियों की मृत्यु जबरन खाना खिलाने से हुई. निराशा, घर-परिवार से दूर रहने के कारण ज्यादातर कैदी जल्द बूढ़े दिखने लगे, पर इसी दूरी ने उन्हें मौत से बचाया.
कुछ सेलों में सजावट की गयी है. वीडी सावरकर की सेल में एक पट्टिका और फोटो लगी है और कुछ जलते दीप रखे गये हैं. वास्तव में किसी भी सेल में कोई भी वीरता में किसी से कम नहीं था. मैंने महसूस किया कि मैं जोर से चिल्लाऊं और कहूं ‘धन्यवाद’ और साथ ही ‘सॉरी’ भी. जिन्होंने अपने सिर, अपने घर-परिवार की परवाह किये बिना अपनी कुरबानी दी, जो विश्वास उन्होंने हम पर जताया था, उसे हमने धूल में मिला दिया है. विचित्र बात है कि आजादी के बाद हमने भी अपने घर-परिवार के बारे में ही सोचा है.
यहां कुछ क्लिप बोर्ड हैं, जिन पर तसवीरें लगी हैं. कुछ ऐसे भी बोर्ड हैं, जिन पर उन लोगों के नाम हैं, जिन्हें 1911 के बाद रखा गया था. लगभग 50 प्रतिशत नाम बंगाली उपनाम वाले हैं. कुछ दूसरे प्रमुख उपनामों में मराठी और पंजाबी नाम हैं. दूसरे क्षेत्रों के भी कुछ नाम हैं. कोई ऐसा पेड़ नहीं, जिसकी सभी शाखाओं की पत्तियों में बहुत अंतर हो. यहां नोटिस बोर्ड पर यह नहीं लिखा है कि सूर्यास्त से पहले आगंतुक बाहर चले जायें.
शाम के समय लाइट और साउंड का कार्यक्रम बारिश के कारण रद्द कर दिया गया. वहां से निकलने से पहले ही बारिश शुरू हो गयी थी. मुझे नहीं लगता कि मैंने कुछ मिस किया. जेल परिसर स्थित पीपल का पेड़ इन सभी चीजों का गवाह है और इसकी झूमती पत्तियां बिना रुके बहुत कुछ कहती हैं.अगले दिन सुबह पोर्ट ब्लेयर के वीर सावरकर हवाई अड्डे से मैंने चेन्नई के लिए एयर इंडिया की फ्लाइट पकड़ी और दो घंटे में चेन्नई पहुंच गया.
(समाप्त)